भक्त की विनम्रता से विकसित होता सेवा व समर्पण का भाव
भक्त की विनम्रता से विकसित होता सेवा व समर्पण का भाव
मुंगेर. पंडित नीलमणी दीक्षित ने भक्त के जीवन में दीनता के महत्व को उजागर करते हुए कहा कि दीनता के आसन पर ही भक्ति विराजती है. दीनता को कैसे प्राप्त किया जाय यही प्रश्न जब भरत से किया गया था तो उन्होंने कहा कि दीनता अर्जित करने का पहला सोपान है अपराध न करने पर भी अपराधी होने का बोध. इस भाव को भरत ने अपने चरित्र में चरितार्थ करके दिखाया. वे बिहार योग विद्यालय के संन्यासपीठ पादुका दर्शन में चल रहे श्रीराम कथा के पांचवें दिन गुरुवार को श्रीराम के सरभंग मुनि से मिलन प्रसंग के दौरान कही. उन्होंने कहा कि भक्त के चरित्र में दीनता आने पर उसके भीतर सेवा और समर्पण भाव का विकास होता है. उसके अंदर का अहंकार खत्म होता है. योग, यज्ञ, जप, तप जो भी साधन वह करता हो, उसकी परिणति होती है. शरणागति में जब भक्त भगवान के सामने हाथ उठाकर कहता है कि अब मेरे से कुछ नहीं बतना. उन्होंने भगवान राम के अन्य प्रसंग सुतीक्ष्ण मुनि से मिलन और ताड़का वध को सुनाया. इन प्रसंगों में जिन भाव को उजागर किया गया, वह था भक्त का भगवान के प्रति अनन्य प्रेम, दीनता और शरणागति. यह प्रेम और भक्ति ताड़का जैसी तामसिक स्वभाव वाली राक्षसी में भी विद्यमान थी और उसकी दीनता ही देखकर भगवान ने उसे निज धाम भेज दिया. सुतीक्षण मुनि का चरित्र और व्यवहार भी इसी प्रकार की थी. प्रीति, भक्ति और दीनता से ओत प्रोत था. भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें ज्ञान, विज्ञान और भक्ति का वरदान दिया. जिसके बाद सुतीक्ष्ण मुनि ने उनसे यहीं मांगा कि आप जानकी सहित मेरे हृदय में सदा बसे रहें. इसके बाद सुतीक्ष्ण मुनि भगवान राम को अपने गुरु अगस्त्य मुनि के आश्रम ले गये, जहां दोनों का भावपूर्ण मिलन होता है. मौके पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु नर-नारी मौजूद थे.
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