इतिहास लेखन में भारतीय दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक : डॉ संपत
नालंदा साहित्य महोत्सव के तीसरे दिन ज्ञान, संवाद और विमर्श की बहुआयामी छटा देखने को मिली.
राजगीर. नालंदा साहित्य महोत्सव के तीसरे दिन ज्ञान, संवाद और विमर्श की बहुआयामी छटा देखने को मिली. पंच पहाड़ियों और बौद्धिक नगरी राजगीर के आरआइसीसी में आयोजित इस महोत्सव में 12 से अधिक सत्रों में इतिहास, भाषा, साहित्य, संस्कृति, दर्शन, धर्म और समाज से जुड़े ज्वलंत विषयों पर गहन चर्चाएं हुई. देश के प्रख्यात इतिहासकारों, लेखकों, भाषाविदों, चिंतकों और कलाकारों ने अपने विचार रखे. इससे श्रोताओं को भारतीय बौद्धिक परंपरा की गहराई को समझने का अवसर मिला. तीसरे दिन का प्रमुख आकर्षण रहा “भारतीय इतिहास को भारतीय नजरिये से फिर से देखना : एक बातचीत” विषय पर आयोजित सत्र. इस सत्र का संचालन अमी गनात्रा ने किया, जबकि वक्ता के रूप में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ विक्रम संपत उपस्थित रहे. डॉ संपत ने कहा कि लंबे समय तक भारतीय इतिहास को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से देखा गया, जिससे कई तथ्यों और नायकों को उचित स्थान नहीं मिल सका. उन्होंने जोर देकर कहा कि इतिहास लेखन में भारतीय दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है, ताकि समाज अपनी जड़ों, परंपराओं और सांस्कृतिक निरंतरता को सही रूप में समझ सके. भाषा और संस्कृति के संबंध पर केंद्रित सत्र “भाषा विरासत के रूप में: क्षेत्रीय भाषाएं हमारी सांस्कृतिक जड़ों की रक्षा कैसे करती हैं?” का मिली ऐश्वर्या ने संचालन किया. इस सत्र में वक्ताओं ने क्षेत्रीय भाषाओं को केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक स्मृति का वाहक बताया. उन्होंने कहा कि भाषाओं के संरक्षण से ही विविधताओं से भरी भारतीय संस्कृति जीवित रह सकती है. पूर्वोत्तर भारत की समृद्ध विरासत पर आधारित सत्र “पूर्वोत्तर राज्यों के शिलालेख” में डॉ जेडडी लालमंगैहजाउवा के संचालन में डॉ मधुमिता बारबोरा और अरूप कुमार दत्ता ने अपने विचार रखे. वक्ताओं ने बताया कि शिलालेख न केवल ऐतिहासिक प्रमाण हैं, बल्कि वे उस क्षेत्र की सामाजिक, राजनीतिक और भाषाई यात्रा को भी प्रतिबिंबित करते हैं. इसी क्रम में “सात बहनें और भाषाओं की यात्रा” विषय पर आयोजित सत्र में उत्तर-पूर्वी भारत की भाषाई विविधता पर विस्तार से चर्चा हुई. इस सत्र में किनफाम सिंग नोंग्किनरिह, प्रो गणेश नारायणदास डेवी और प्रो केसी लालथलामुआनी ने कहा कि तिब्बती-बर्मी, इंडो-आर्यन और ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवारों से जुड़ी असमिया, बोडो, खासी, मिजो, मणिपुरी (मैतेई), नागामी और अरुणाचली भाषाएं भारत की भाषाई समृद्धि के प्रमाण हैं. भाषा जनजाति विषय पर आयोजित सत्र में प्रो एमजे वारसी के संचालन में प्रो उपेन राभा हकासम, प्रो रीता चौधरी और कुलधर सैकिया ने जनजातीय भाषाओं के संरक्षण पर बल दिया. वक्ताओं ने कहा कि जनजातीय भाषाएं केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि समुदाय की आत्मा होती हैं. इनके लुप्त होने से सांस्कृतिक विविधता को अपूरणीय क्षति होती है. मौखिक परंपरा पर केंद्रित सत्र मौखिक साहित्य में वंदना राग के संचालन में प्रख्यात कथाकार देवदत्त पटनायक ने कहा कि कहानियां, गीत, लोककथाएं और मिथक पीढ़ी दर पीढ़ी समाज की चेतना को गढ़ते हैं. मौखिक साहित्य लिखित साहित्य से पहले अस्तित्व में था और आज भी समाज को जोड़ने में इसकी भूमिका अहम है. तीसरे दिन पुस्तक समीक्षा सत्र में इकोज ऑफ इटर्निटी : ए जर्नी थ्रू इंडियन थॉट पुस्तक पर चर्चा हुई. लेखक पवन के वर्मा ने सुनीत टंडन के साथ संवाद में भारतीय दर्शन की निरंतरता और उसकी आधुनिक प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला. वहीं चेयरपर्सन डी आलिया ने स्वास्थ्य और मन विषय पर प्रेरक भाषण देकर श्रोताओं को मानसिक संतुलन और सकारात्मक सोच का महत्व समझाया. महिलाओं की रचनात्मक अभिव्यक्ति पर आधारित सत्र “उनके शब्द, उनकी दुनिया: भारतीय लेखन में महिलाओं की आवाज़ों की खोज” में अंबिका चोपड़ा के संचालन में वंदना राग, सांता खुराई और दिव्या माथुर ने भारतीय साहित्य में महिलाओं के योगदान और प्रतिनिधित्व पर विचार साझा किए. गांधीवादी दर्शन पर आधारित “सत्याग्रह : चंपारण प्रयोग” सत्र में भैरव लाल दास के संचालन में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने चंपारण आंदोलन के संदर्भ में सत्याग्रह की शक्ति और उसकी आज की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला. अनुवाद के क्षेत्र में बदलते परिदृश्य पर “स्थानीय से वैश्विक तक : साहित्यिक अनुवाद की विकसित हो रही प्रथाएं” सत्र में अदिति माहेश्वरी के संचालन में अमर मित्रा, शाहू पाटोले और प्रो एमजे वारसी ने विचार रखे. वहीं “उर्दू : अतीत से वर्तमान तक” सत्र में उर्दू भाषा की ऐतिहासिक यात्रा और वर्तमान स्थिति पर चर्चा हुई. समकालीन समाज में शास्त्रों की प्रासंगिकता पर नालंदा में बौद्धिक मंथन कट्टरता नहीं, करुणा का संदेश, धर्म की भूमिका पर नालंदा में मंथन तीसरे दिन का समापन सत्र वर्तमान समय में धर्म की भूमिका और उसके जीवन पर प्रभाव को लेकर एक विचारोत्तेजक सत्र का आयोजन किया गया. सत्र का विषय था “क्या धर्म हमारे जीवन जीने के तरीके पर हावी होता है?”. कार्यक्रम का संचालन सुनीत टंडन ने किया, जबकि वक्ताओं में डॉ असलम परवेज, प्रो डी वेंकट राव, अमी गनात्रा एवं प्रो केसी लैथलामुआनी शामिल रहे. इस सत्र में भगवत गीता, रामायण, ऋग्वेद, कुरान, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब, त्रिपिटक और जैन आगमों जैसी प्रमुख धार्मिक पुस्तकों की आज के युग में प्रासंगिकता पर गहन चर्चा हुई. वक्ताओं ने एकमत से कहा कि धर्म का मूल उद्देश्य मानव जीवन को नैतिक, संतुलित और करुणामय बनाना है, न कि उस पर प्रभुत्व स्थापित करना. डॉ असलम परवेज ने कहा कि धार्मिक ग्रंथों का संदेश मूलतः मानवता, भाईचारे और न्याय पर आधारित है, किंतु जब धर्म की व्याख्या संकीर्ण सोच से की जाती है, तब वह टकराव का कारण बनता है. प्रो डी वेंकट राव ने गीता और वैदिक दर्शन का उल्लेख करते हुए कहा कि भारतीय परंपरा धर्म को जीवन का पथप्रदर्शक मानती है, जो व्यक्ति को कर्तव्य और आत्मबोध की ओर ले जाता है. अमी गनात्रा ने रामायण और वैदिक साहित्य को सामाजिक मूल्यों का आधार बताया और कहा कि इन्हें आधुनिक दृष्टि से समझना आवश्यक है. वहीं प्रो केसी लैथलामुआनी ने त्रिपिटक, गुरु ग्रंथ साहिब और आगमों का हवाला देते हुए कहा कि सभी धर्मों का सार अहिंसा, समानता और आत्मशुद्धि में निहित है. इससे निष्कर्ष निकला कि धर्म तब तक उपयोगी है, जब तक वह विवेक और मानवता के साथ जुड़ा रहे. कट्टरता के बजाय यदि धार्मिक ग्रंथों को जीवन-मूल्यों के स्रोत के रूप में अपनाया जाय, तो वे समाज को दिशा देते हैं, उस पर हावी नहीं होते हैं. कुल मिलाकर, नालंदा साहित्य महोत्सव का तीसरा दिन विचारों की समृद्ध विरासत और बौद्धिक संवाद का सशक्त उदाहरण बनकर सामने आया है.
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