किन बातों पर निर्भर करता है भाग्य-दुर्भाग्य

मार्कण्डेय शारदेय, ज्योतिषविद् कहा गया है – समुद्र-मथने लेभे हरिः, लक्ष्मीं हरो विषम्। भाग्यं फलति सर्वत्र ,न च विद्या न पौरुषम्।। अर्थात् समुद्र-मंथन में विष्णु को लक्ष्मी मिलीं और शिव को विष. मायने यह कि भाग्य का ही फल सभी जगह मिलता है, विद्या और उद्योग का नहीं. यह कथन अपने उदाहरण से भले ही […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 19, 2019 1:13 AM
मार्कण्डेय शारदेय, ज्योतिषविद्
कहा गया है – समुद्र-मथने लेभे हरिः, लक्ष्मीं हरो विषम्।
भाग्यं फलति सर्वत्र ,न च विद्या न पौरुषम्।।
अर्थात् समुद्र-मंथन में विष्णु को लक्ष्मी मिलीं और शिव को विष. मायने यह कि भाग्य का ही फल सभी जगह मिलता है, विद्या और उद्योग का नहीं. यह कथन अपने उदाहरण से भले ही भाग्यवादी सोच को बल देता हो, पर ज्ञान और उद्यम का सदा महत्व रहा है. ऐसा नहीं होता तो शिक्षा केंद्रों की जरूरत नहीं होती.
लोग रात-दिन मेहनत नहीं करते. लक्ष्मी, विष्णु की ही थीं. शिव ने तो स्वयं ही जगत् के कल्याण के लिए विषपान किया था. भाग्य की देन तब कहा जाता, जब स्वतः उन्हें विष उपलब्ध होता!
वस्तुतः भाग्य कर्म का ही फल होता है. कभी किसी गरीब को अचानक राह चलते रत्नों की गठरी मिल गयी या किसी का बहुमूल्य सामान खो गया, तो लोग भाग्यफल कह सकते हैं, परंतु भाग्य भी कर्म का ही अंश है.
हां, पूर्वजन्म से भी संबद्ध होने के कारण लोग इसके रहस्य को समझ नहीं पाते. अब ज्योतिषीय आधार पर मूल्यांकन करें, तो जन्म कुंडली के 12 भावों में नौवां भाग्य का है.
कुंडली-चक्र 12 राशियों और सात उनके स्वामियों पर आधारित होने से नौवें भाव में कोई भी राशि तथा सूर्य से लेकर शनि तक कोई भी ग्रह उसका स्वामी हो सकता है, लेकिन बृहस्पति इस घर का पदेन अध्यक्ष होता है. यानी बृहस्पति उपयुक्त स्थान में हो, तो सर्वाधिक भाग्यवृद्धि होती है.
शास्त्रकारों के अनुसार, भाग्य का विचार करते समय नवम भाव की स्थिति, उसके स्वामी की स्थिति, भाग्येश जिस भाव में है, उसकी स्थिति के साथ बृहस्पति की भी स्थिति पर ध्यान रखना आवश्यक है.
चूंकि भाग्येश अपनी दशा में भाग्यफल देता ही है, भाग्येश जहां रहता है, उसका स्वामी भाग्यकारक एवं लग्नेश भाग्य का प्रेरक होता है, इस कारण इनकी प्रबलता तथा शुभता का अधिक मूल्य है.
नवम भाव के महत्व पर ‘जातकाभरणकार’ ढुण्ढिराज कहते हैं कि ज्योतिषियों को अन्य भावों की चिंता छोड़ केवल नवम भाव पर ही विचार करना चाहिए. आयु, माता, पिता, वंश- ये सब भाग्य से ही होते हैं.
अब पहले जन्मांग-चक्र में उपस्थित दुर्भाग्य योग पर विचार करें. पराशर का कथन है कि पंचम भाव में राहु हो और भाग्य भाव का स्वामी अष्टम में या अपने नीच स्थान में हो, तो व्यक्ति अभागा होता है-‘हीनभाग्यो भवेत् नरः’. वह कहते हैं कि नवम भाव में चंद्रमा के साथ शनि हो और लग्नेश नीच राशि में, तो व्यक्ति भिखारी तक हो सकता है.
अन्य आचार्यों के अनुसार दुर्भाग्य के और भी कई कारण हैं; जैसे- चतुर्थ भाव के स्वामी का अष्टम भाव में होना, नवम में पाप ग्रह तथा नवमेश का निर्बल होना, नवमेश का क्रूर राशि में या उस पर नीचस्थ ग्रह की दृष्टि.
कभी-कभी लोग विवाह के बाद दुर्भाग्य के शिकार हो जाते हैं. इसका कारण बताते ‘जातकतत्व’ कहता है- ‘लग्नार्थ-दारपा दुःस्था विवाहात् परतोsभाग्यम्’.
अर्थात् लग्न, द्वितीय और सप्तम भाव के स्वामी दुःस्थान (षष्ठ,अष्टम,द्वादश) में हो, तो व्यक्ति विवाह के बाद दुर्भाग्यवान होता है.
भाग्यशाली योग की बात करें तो भाग्य का स्वामी यदि केंद्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम) में अथवा त्रिकोण (पंचम, नवम) में रहे तथा लग्नेश यदि उच्च का रहे, तो व्यक्ति आजीवन सुख-समृद्धि से युक्त होता है –
नवम-भावपतिः यदि केन्द्रगो,नवम-पंचमगश्च यदा भवेत्। प्रसव-लग्नपतिः यदि तुंगगः, सुख-समृद्धि-युतो मरणान्तकः।।

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