Hindi literature : लेखन के मूल में समाज और जिंदगी के प्रति प्रेम रखनेवाली लेखिका राजी सेठ खामोशी से हुईं अलविदा
उम्र के लिहाज से थोड़ी देर से लेखन शुरू करनेवाली राजी सेठ हिंदी की महत्वपूर्ण कथाकारों में शामिल रही हैं, लेकिन उन्होंने साहित्यिक खेमेबाजी से दूर अपने पाठकों की प्रिय लेखिका बने रहना चुना और खामोशी से अलविदा कह गयीं. राजी सेठ अब नहीं है, लेकिन जीवन के मौलिक सवाल उठाती उनकी कहानियां हमेशा हिंदी साहित्य में अपनी खास जगह पर बनी रहेंगी. प्रभात खबर को करीब एक दशक पहले दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने अपने लेखन के बारे में विस्तार से बातचीत की थी. प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार राजी सेठ को याद करते हुए पेश है उस साक्षात्कार के कुछ अहम अंश...
Hindi literature : यह वर्ष 2013 की मई का महीना था, उन दिनों प्रभात खबर के रविवार में हर सप्ताह हिंदी के किसी वरिष्ठ रचनाकार का साक्षात्कार ‘सृजन संवाद’ प्रकाशित होता था. ‘मैं क्यों लिखता हूं’ और ‘जीवन में ऐसी कौन सी चीजें रहीं, जिन्होंने मुझे लेखक बनाया?’ ऐसे कई सवालों के साथ आलेख फॉर्मेट में प्रकाशित होने वाले ‘सृजन संवाद’ के लिए मैं पहली बार हिंदी की वरिष्ठ साहित्यकार राजी सेठ से मिली थी. इस साक्षात्कार के बाद भी उनसे उनकी पसंदीदा किताबों समेत कई विषयों पर बातें हुईं. हर बार वह एक प्रतिष्ठित लेखक की तरह कम, एक बेहतरीन इंसान की तरह ज्यादा मिलीं और इतनी सहृदयता से कि जीवन भर उन्हें भुलाया नहीं जा सकता. कथाकार राजी सेठ में मौजूद रचनाकार को जानें उन्हीं के शब्दों में.
जिंदगी के प्रति प्रेम है मेरे लेखन के मूल में
मेरे लेखन के मूल में समाज, सकारात्मकता और जिंदगी के प्रति प्रेम है. मैं जैसा समाज या पात्र चाहती हूं, अपने लेखन में उसकी ओर इशारा करती हूं. मेरे सारे चरित्र मेरी कामना के चरित्र हैं. मैं किसी भी जुलूस में शामिल नहीं हूं, न घर के, न बाहर के. रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है, ‘जीवन के प्रति हमारा उत्साह वह है, जो हमारे अंदर बहता है. जब खुद हम ही बीमार हों, तो समाज को क्या देंगे.’ एक व्यक्ति के तौर पर मैं निरासक्त हूं, पर यह नहीं चाहती कि मेरी रचनाओं में यह निस्संगता छन कर आये. लेखक के तौर पर मैं वह पात्र हूं, जिसमें समाज का भोजन पकाया जाता है.
रचना में यथार्थ हड्डी है और कल्पना मांसपेशियां
कल्पनाशीलता कथा लेखन से अलग नहीं है. वह हड्डी के ऊपर मांसपेशियों की तरह है. रचना में यथार्थ हड्डी है और कल्पना मांसपेशियां, सामने का यथार्थ या विचार जिस पर भी हम खुद को केंद्रित कर देते हैं, वह रचना योग्य बन जाता है. किसी चरित्र में स्मृति में मौजूद दूसरे चरित्र भी घुलते-मिलते जाते हैं. साहित्य जिंदगी को ठहर कर देखने और समझने की मांग करता है. असल में हम लेखन की सारी खुराक जीवन के अनुभवों से ही लेते हैं. जिंदगी के गोदाम में लेखन की समग्र सामग्री संचित है. लेकिन सहवेदना के बिना रचनाशीलता संभव नहीं.
जिंदगी को गहरायी में देखें, अंधेरा है तो उजाला भी है
साहित्य साधना की मांग करता है. मैथिलीशरण गुप्त ने किसी संदर्भ में लिखा है, ‘मेरा सुधा सिंधु मेरे सामने लहरा तो रहा, पर मैं तट पर पड़ा प्यासा मरता हूं.’ इस प्यास को समझना पड़ता है. यही प्यास लेखन में जीवन के आयामों को बढ़ाती है. यदि आप देखेंगे ही नहीं, तो कैसे कुछ मिलेगा. जो लोग कहते हैं कि वे क्रांति का लेखन करते हैं, वो जिंदगी को गहरायी में देखना नहीं चाहते, सिर्फ लड़ना चाहते हैं जिंदगी से. क्यों न हम ठीक से चीजों को सामने रखें. उसका अंधेरा भी, उजाला भी. इनसान में अगर बुराइयां हैं, तो अच्छाइयां भी हैं. सवाल यह है कि किसका चुनाव क्या है? वह हमारे भीतर के श्रेष्ठतर को बाहर निकालना चाहता है या निम्नतर की व्याख्या में ही सीमित रहना चाहता है?
रचना पूरी होने के बाद पाठक की हो जाती है
मुझे अपनी रचनाओं से तभी तक लगाव रहता है, जब तक मैं उन्हें लिख रही होती हूं. इसके बाद यह लगाव समाप्त-सा हो जाता है. आखिरी वक्त तक दाएं-बाएं हर तरफ से मैं देखती हूं कि क्या यह मेरी दृष्टि में मुकम्मल हो गयी है? तब मैं कलम रखती हूं. कभी-कभी बीच में 10-10 साल का समय गुजर जाता है और रचना पूरी नहीं होती. रचना पूरी होने के बाद लेखक की नहीं रहती, पाठक की हो जाती है. लेखक को नयी रचना में प्रवेश करना होता है, नहीं तो उसे एक ठहराव घेर लेगा. इसीलिए मैं पुरस्कारों से डरती हूं. मुझे लगता है कि पुरस्कार एक तरह से आत्मतुष्टता दे देने का षड्यंत्र हैं. जैसे कि आपने बहुत कुछ कर लिया, पर यह सच नहीं है. लेखक हमेशा नयी सरहदें तलाश करना चाहता है.
देर से लेखन शुरू करने का मलाल है मुझे
मैंने 40 की उम्र में लेखन शुरू किया. देर से लेखन शुरू करने का मुझे मलाल है. लोग मुझे तसल्ली तो बहुत देते हैं कि अर्थवत्ता महत्वपूर्ण है, संख्या नहीं. लेकिन मुझे लगता है कि लोहे की एक बड़ी सी बॉल है, जिसे ऊपर से ही छूता हुआ मेरा लेखन एक तीर की तरह निकल गया है. अंदर घुसा ही नहीं है. अभी तक मैने कुछ किया ही नहीं है और अब मुझे लगता है मेरे पास ज्यादा समय नहीं है. मैं रोज नियम से बैठ कर नहीं लिख सकती. लिखने के लिए मैं ऊर्जा से दीप्त क्षण को चुनती हूं. मुझे अंदर से पता होता है कि आज मैं लिख सकती हूं. तब न मुझे भाषा के बारे में सोचना पड़ता है, न थीम के बारे में, न अंतर्वस्तु और परिवेश के बारे में. सिर्फ अपने आपको पूरा सौंप देना होता है. ऐसे क्षण घर में बहुत मुश्किल से उपलब्ध होते हैं. मैं हर रोज ऐसे क्षण की तलाश में जागती हूं. एक गहरे मौन के साथ मैं उसके होने को टटोलती हूं. अगर वह क्षण सामने हो, तो खुद को लिखने से रोकना मुश्किल होता है. मैंने रसोई के प्लेटफार्म पर बैठ कर भी कहानियां लिखीं हैं. ‘निष्कवच’ के 18 पेज मैंने बाथरूम में लिखे थे, क्योंकि उस वक्त घर मेहमानों से भरा था, मेरे बेटे की शादी थी.
लेखक का संस्कार पढ़ते रहने से बना
एक अच्छा लेखक, एक अच्छा पाठक भी होता है. मेरा संस्कार पढ़ते रहने से बना. दोस्तोवस्की की ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ मेरे लिए बहुत अहमियत रखती है और इससे जुड़ा एक यादगार संस्मरण भी है. मेरी शादी हो रही थी और उसके एक दिन पहले मैं छुप कर यह किताब पढ़ने में लगी थी. मेरी मां ने कहा कि ‘तुम्हारी शादी हो रही है और वह भी प्रेम विवाह. ऐसे में जहां तुम्हे प्रफुल्ल होना चाहिए, तुम किताब में डूबी हो.’ मैंने मां से कहा कि क्या पता ससुराल में पढ़ने का मौका मिले न मिले, फिर यह किताब मैं कैसे पूरी करूंगी ! शादी के एक दिन पहले लगातार पढ़ कर मैंने वह किताब खत्म की. इस तरह की दीवानगी रही है मेरी किताबों को लेकर.
राजी सेठ : जन्म, कृतियां और सम्मान
जन्म : 1935, नौशेहरा छावनी (अविभाजित भारत).
प्रकाशित कृतियां : उपन्यास -तत्-सम, निष्कवच.
कहानी संग्रह – अंधे मोड़ से आगे, तीसरी हथेली, यात्रा मुक्त, दूसरे देश काल में, यह कहानी नहीं, किसका इतिहास, गमे हयात ने मारा, सदियों से, खाली लिफाफा.
अनुवाद : जर्मन कवि रिल्के के पत्रों और कविताओं का अनुवाद.
सम्मान : भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार, हिंदी अकादमी सम्मान, टैगोर लिटरेचर अवार्ड, अनंत गोपाल शेवड़े हिंदी कथा पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित.
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