प्रणव प्रियदर्शी की कविताएं

प्रणव प्रियदर्शी, रांची झारखंड के रहने वाले हैं. इनका जन्म 12 जनवरी 1984 को हुआ. इन्होंने हिंदी भाषा में स्नातक (हिंदी प्रतिष्ठा) की डिग्री ली. स्रातकोत्तर (पत्रकारिता एवं जनसंचार)संप्रति ‘प्रभात खबर’ रांची के संपादकीय विभाग में कार्यरत. इनका एक कविता संग्रह ‘सब तुम्हारा’ प्रकाशित हो चुका है. वर्तमान साहित्य, सनद, देशज, परिकथा, साहित्य अमृत, साहित्य […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 11, 2017 12:40 PM

प्रणव प्रियदर्शी, रांची झारखंड के रहने वाले हैं. इनका जन्म 12 जनवरी 1984 को हुआ. इन्होंने हिंदी भाषा में स्नातक (हिंदी प्रतिष्ठा) की डिग्री ली. स्रातकोत्तर (पत्रकारिता एवं जनसंचार)संप्रति ‘प्रभात खबर’ रांची के संपादकीय विभाग में कार्यरत. इनका एक कविता संग्रह ‘सब तुम्हारा’ प्रकाशित हो चुका है. वर्तमान साहित्य, सनद, देशज, परिकथा, साहित्य अमृत, साहित्य परिक्रमा और कादंबिनी सहित कई पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. दूरदर्शन व आकाशवाणी में कई रचनाओं का प्रसारण.

संपर्क : मोबाइल : 9905576828, 7903009545
ई.मेल : Pranav.priyadarshi.pp@gmail.com
इस हवा में…
ऐसी चली है हवा
कि बदलने लगा है सबकुछ
अपने स्वभाव में नहीं
सहज स्वीकार में नहीं
ठहरे हुए बिखराव से ऊर्जा ग्रहण कर
नदी में बदलती लहरों की तरह
इस हवा के कारण
जीवन गति में नहीं
रफ्तार में है
और है संभावना छीन लेने की
एक धूर्त प्रतियोगिता में.
इस हवा में
अजीब नशा है
जो हर किसी को
अपने चक्रव्यूह में फंसा कर
खुशी बाहर-बाहर दिखाता है
लेकिन महसूसने की तरलता छीन लेता है.
ऐसी हवा से ही
वक्त-बेवक्त इस तरह की
परिस्थितियां पैदा होने लगी हैं
कि जिंदगी
बिन किये अपराध की
सजा जैसी लगने लगी है.
मुट्ठी भर भविष्य दे दो मुझे
एक समंदर खड़ा था
मेरे आसपास
लेकिन मैंने उसे
कभी नहीं देखा
न ही उसके बारे में कभी सोचा.
मेरे पास थी लहरों से
भरी नदी
उसे देखना
उसके भाव-भंगिमाओं में रमना
और नयी-नयी परिभाषाएं देने का
मेरा तरल हुनर
पता नहीं कब-कैसे
उसकी तलहटी सहलाने लगा.
जब नदी किनारा तोड़ने लगी
मेरे भीतर भी कुछ टूटने लगा
अब मैं डूब रहा हूं
और मुझे आगे
कुछ दिख भी नहीं रहा है
विश्वास के पुल भी हिलने लगे हैं
मुट्ठी भर भविष्य दे दो मुझे
सिरहाने तले रखने के लिए.
निढाल होता हुआ मंजर
समझ के पार
घटता है बहुत कुछ
संवेदना के गहन गह्वर में
उतर आता है बेबाक-मौन-अवाक
छटपटाहट होती है देखने की उसे
विचारों के आईने में
लेकिन शब्द का सूनापन
और अनुभूति का एकाकीपन
एक-दूसरे में घुल-मिल कर
जो कुछ गढ़ता है
मन उसी में ठहरा हुआ रह जाता है.
समय के पार
होता है बहुत कुछ
अनुकूल भी, प्रतिकूल भी
इसी में
कभी जीने का मर्ज ढूंढ़ता हूं
तो कभी व्यथित हो
स्वयं से ही पूछने लगता हूं
मैं ऐसा क्यों हूं?
दृश्य और अदृश्य के बीच
अधूरेपन की खालिश वेदना से
निढाल होता हुआ मंजर
मेरे भीतर भी है और आपके भी भीतर
तो फिर क्यों बिखर जाते हैं हम
अपने ही सरोकारों में तार-तार होकर?
दृश्य-अदृश्य
परंपरा से
परिवेश से
अथवा
कहां से आया है यह
अदृश्य सेतु बनाता हुआ
हवा की तरह
हमारे प्राणों में घुला हुआ
शोषण का बीज
पवित्र-अपवित्र पहचान के साथ.
समय के साथ
समायोजित होने के लिए
अदृश्य में दृश्य बन कर
सांप की तरह
उतारता रहता है बार-बार
अपनी शक्ल व सिलवट
फिर नया रूप धरता है
क्या बदल कर भी कुछ बदलता है?
तप्त दुपहरी में खड़ा होकर देख रहा हूं
कि हवा का रुख किस तरह बदलता है?
कि दृश्य का षड्यंत्र
अदृश्य बन कर किस तरह हमें सताता है?
कि शोषण हमें शोषण क्यों नहीं लगता?
यह भी कि शोषित किस तरह
शोषक बन कर उभर रहा है?
अदृश्य की सीढ़ी पर चढ़ कर
दृश्य में उतरता हुआ मंजर
या दृश्य के घोड़े पर सवार होकर
अदृश्य बनता हुआ करतब
इस अंतर के बीच
कहां दब जाता है-
हमारे हृदय का उत्कल सागर उच्छल?
अंतस की जमीन
पहाड़ी ढलान से
ढलकता हुआ आया है
या आकाश की साधना से
टपका है यह पानी
जो जड़ की मिट्टी
काटता जा रहा है.
सांप दूसरे के बनाए
बिल में घुस रहा है
हवाएं अपनी सहजता में
रुख बदल ली हैं
और किसी को कुछ
खबर तक नहीं है.
फैसले लिये जा रहे हैं
महत्वपूर्ण फैसले
जिंदगी के फैसले
जंग के फैसले
और हमें आभास तक नहीं होता
हमारे रक्त-बीज में
किन-किन वृक्षों की संभावनाएं हैं
कितने दंशों को ढो रही है हमारी काया
कितने स्पर्शों में ढल रहे हैं हमारे प्राण
समय को सोचना
अपने-आप में कठोर श्रम है
वह भी हर चीज पर सोचना
और भी घातक
लेकिन आघात सहे बिना
नहीं समझा जा सकता है
अपने अंतस की जमीन
कहां तक है बंजर?
किस तरह बनाया जाएगा इसे उर्वर?
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