‘विरासत’ के मुद्दे पर रणनीतिक घेराबंदी

भाजपा ने विरासत कर के मुद्दे को उठा कर लोगों को यह जताने का प्रयास किया है कि कांग्रेस निजी संपत्ति के विरुद्ध है. प्रधानमंत्री मोदी ने इस मसले को मंगलसूत्र से जोड़ कर प्रभावी बना दिया.

By राशिद किदवई | April 29, 2024 9:05 AM

इस लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस को सतर्क रहने की जरूरत यह थी कि भाजपा हर तरह से उसे कमजोर करने और रक्षात्मक बनाने की कोशिश करेगी. वह अपनी पहले की उपलब्धियों तथा मोदी सरकार की खामियों को असरदार तरीके से मतदाताओं के सामने पेश नहीं कर पा रही है. पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के एक भाषण को तोड़-मरोड़कर भाजपा ने एक बड़ा विमर्श खड़ा कर दिया, जिसमें उन्होंने देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों के साथ-साथ सभी वंचित समुदायों के अधिकार की बात की थी.

उल्लेखनीय है कि डॉ सिंह के कार्यकाल में सच्चर कमिटी की रिपोर्ट आयी थी, जिसमें रेखांकित किया गया था कि सामाजिक एवं आर्थिक रूप से मुस्लिम समुदाय की हालत बेहद खराब है. लेकिन उस रिपोर्ट पर क्या कार्रवाई की गयी, इसकी कोई रिपोर्ट तत्कालीन सरकार नहीं पेश कर सकी थी. जबकि इस चुनाव से ठीक पहले तक भाजपा और केंद्र सरकार अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए किये जा रहे प्रयासों का श्रेय ले रही थी.

इसके बरक्स हम कांग्रेस को देखें, तो वह अपने चुनावी घोषणापत्र में कही गयी बातों को ठीक से लोगों के पास नहीं ले जा पा रही है. इसी वजह से उन मुद्दों पर चर्चा भी नहीं हो रही है. भाजपा ने मुस्लिम मुद्दे और कांग्रेस में वाम सोच के लोगों के असर को मिलाकर कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की है, जिसमें वह कामयाब होती दिख रही है.


देश में एक बड़ा मध्य वर्ग है, जिसकी संख्या चालीस करोड़ से अधिक बतायी जाती है और जो राजनीतिक रूप से भी मुखर है और मतदान में भी बड़ी तादाद में हिस्सा लेता है. उस वर्ग में भाजपा इस बात को ले गयी कि कांग्रेस विरासत कर का कानून लाना चाहती है और लोगों की कमाई को हड़पना चाहती है. इस बात को बार-बार कहा जा रहा है. लेकिन कांग्रेस उसका ठीक से जवाब नहीं दे पा रही है.

दिलचस्प बात यह है कि एक तरह खुद कांग्रेस ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी. अमेरिका में बैठे ओवरसीज कांग्रेस के प्रमुख सैम पित्रोदा ने एक साक्षात्कार में उल्लेख किया कि अमेरिका में विरासत पर टैक्स लगाया जाता है. इस संबंध में पहली बात तो यह कि भारत और अमेरिका की आर्थिक स्थिति बिल्कुल भिन्न है. दूसरी बात यह है कि सबको पता है कि अमेरिका में राज्यों के अलग-अलग क़ानून होते हैं. वहां सभी राज्यों में इस तरह का कानून नहीं है.

शायद पांच-छह राज्यों में ऐसे कानून हैं और उनके भी प्रावधान अलग-अलग हैं. इस बयान से कांग्रेस को नुकसान पहुंचा है. उसने इसका खंडन और स्पष्टीकरण भी दिया, तो अगर-मगर के साथ दिया. जहां कांग्रेस को फोकस के साथ आक्रामक होना था, वहां वह अपने ही लोगों के बयानों के चलते फंसती नजर आ रही है.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति से आप असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनकी इस क्षमता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है कि उन्हें यह बखूबी पता होता है कि कौन सी बात जनता में पसंद की जायेगी या किस चीज पर लोग आकर्षित होंगे. इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस के साथ के क्षेत्रीय दलों पर अपेक्षाकृत कम हमलावर हैं. मुख्य रूप से उनके निशाने पर कांग्रेस और राहुल गांधी हैं. यह उनकी शैली रही है.

राहुल गांधी न तो कांग्रेस की ओर से और न ही इंडिया गठबंधन की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. फिर भी प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव अभियान के वे केंद्र में हैं क्योंकि यह भाजपा की रणनीति का हिस्सा है कि चुनाव को मोदी बनाम राहुल गांधी बनाया जाए. इसीलिए भाजपा बार-बार यह सवाल उठा रही है कि राहुल गांधी अमेठी से चुनाव क्यों नहीं लड़ रहे हैं.

अगर राहुल गांधी ऐसा करते हैं, तो भाजपा को यह बात कहने में और आसानी हो जायेगी कि यह चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी है क्योंकि आम तौर पर दो लोकसभा सीटों से वे ही नेता चुनाव लड़ते हैं, जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार होते हैं. इस मामले में कांग्रेस ने तुरंत कोई निर्णय न लेकर भाजपा के लिए काम आसान ही किया है.
रणनीति के मामले में कांग्रेस की और भी खामियां सामने आ रही हैं.

इंडिया गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों ने अपने-अपने घोषणापत्र जारी किये हैं. अगर गठबंधन बना है, तो एक कार्यक्रम के तहत चुनावी मैदान में उतरना ज्यादा असरदार होता. ऐसा कार्यक्रम बनाना कोई मुश्किल की बात नहीं थी क्योंकि यूपीए के समय का कॉमन मिनिमम प्रोग्राम एक उदाहरण के रूप में उनके सामने था. उस कार्यक्रम को सजाकर एक नयी दृष्टि और योजना के साथ लोगों के सामने रखा जा सकता था. समूचे गठबंधन का एक साझा घोषणापत्र नहीं होने से मतदाताओं के बीच संदेश पहुंचाने में मुश्किल हुई है. कांग्रेस के साथ एक बड़ी कमी यह भी है कि प्रतिक्रिया देने की कोई सुव्यवस्थित ढांचा नहीं है.

अगर भाजपा की ओर से कोई बात कही जा रही है, कोई आरोप लगाया जा रहा है, तो तुरंत उस पर ठोस जवाब आना चाहिए. आप देखें कि अमेरिका में बैठकर सैम पित्रोदा ने विरासत कर की बात की और तुरंत उस पर प्रधानमंत्री समेत तमाम बड़े भाजपा नेताओं के आक्रामक बयान आने लगे. उस बात को बड़ा चुनावी मुद्दा उन्होंने बना दिया.
यह समझना जरूरी है कि निजी संपत्ति का मसला एक संवेदनशील विषय होता है.

गरीब हो या अमीर, हर कोई अपनी जमीन, गहने, बचत आदि को लेकर भावनात्मक होता है. भाजपा ने विरासत कर के मुद्दे को उठाकर लोगों को यह जताने का प्रयास किया है कि कांग्रेस निजी संपत्ति के विरुद्ध है. इसी मामले में संपत्ति वितरण को जोड़ दिया गया. प्रधानमंत्री मोदी ने इस मसले को मंगलसूत्र से जोड़कर प्रभावी बना दिया.

चुनाव प्रचार में यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता है कि कोई बात तथ्यात्मक रूप से किसी सही है या गलत है. प्रधानमंत्री मोदी की एक लोकप्रियता है और उनके पास संदेश को असरदार ढंग से लोगों तक पहुंचाने की क्षमता है. लेकिन जब उनके बयानों का खंडन होता है, तो उसमें वह प्रभाव नहीं आ पाता है. कांग्रेस अपने भीतर के उथल-पुथल को भी संभालने में कामयाब नहीं रही है.

यह बात अनेक राज्यों में टिकट बंटवारे और सहयोगी दलों के साथ तालमेल बनाने में साबित हो चुकी है. यह विडंबना ही कही जायेगी कि दिल्ली में, जहां कांग्रेस का समूचा शीर्ष नेतृत्व है, पार्टी के भीतर बवाल मचा हुआ है. गठबंधन पर और टिकट को लेकर राज्य इकाई के अध्यक्ष ने ही इस्तीफा दे दिया है. यह प्रकरण संगठनात्मक असफलता को ही दर्शाता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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