अगस्त क्रांति : भारत छोड़ो आंदोलन में वीरांगना मातंगिनी हाजरा का बलिदान
Quit India Movement : सितंबर, 1942 में तिहत्तर वर्ष की उम्र में अपने राज्य के तमुलक में प्रदर्शन करती हुईं वे पुलिस की तीन गोलियां खाकर शहीद हुईं, तो शरीर में प्राण रहते अपने हाथ में थामे हुए तिरंगे की आन पर आंच नहीं आने दी. दरअसल, इस आंदोलन के दौरान बंगाल के आंदोलनकारियों ने ऐसा जीवट प्रदर्शित किया कि यह अपनी शुरुआत के अगले महीने सितंबर में और जोर पकड़ गया.
Quit India Movement : दूसरे विश्व युद्ध के दौरान आठ अगस्त, 1942 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बंबई (अब मुंबई) से महात्मा गांधी की अगुवाई में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन आरंभ किया, तो उसे गोरी सत्ता का बेहद निर्मम और क्रूर दमन चक्र झेलना पड़ा. शायद इसलिए कि गोरों ने अंदाजा लगा लिया था कि भारत में अब उसके दिन ज्यादा नहीं रह गये हैं और यह आंदोलन भारतीयों को आजादी की मंजिल तक पहुंचाने में निर्णायक सिद्ध होने वाला है. जाहिर है, ऐसे में आंदोलनकारियों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. पर जैसी कीमत बंगाल की वीरांगना मातंगिनी हाजरा ने चुकायी, शायद ही किसी और ने चुकायी हो.
सितंबर, 1942 में तिहत्तर वर्ष की उम्र में अपने राज्य के तमुलक में प्रदर्शन करती हुईं वे पुलिस की तीन गोलियां खाकर शहीद हुईं, तो शरीर में प्राण रहते अपने हाथ में थामे हुए तिरंगे की आन पर आंच नहीं आने दी. दरअसल, इस आंदोलन के दौरान बंगाल के आंदोलनकारियों ने ऐसा जीवट प्रदर्शित किया कि यह अपनी शुरुआत के अगले महीने सितंबर में और जोर पकड़ गया. आठ सितंबर को मिदनापुर जिले में पुलिस फायरिंग के बावजूद ये आंदोलनकारी न भड़के, न ही उग्र होकर गोरों को उनके ही अंदाज में तुरंत जवाब देने की सोची, बल्कि विवेक व दूरंदेशी के साथ अगले 20 दिनों तक सरकारी दमन के प्रतिरोध की अपनी तैयारियों को व्यापक बनाने में लगे रहे.
फिर 28 सितंबर को एकजुट होकर जिले के तामलुक क्षेत्र का अन्य जगहों से संपर्क पूरी तरह काट दिया. इसके अगले दिन 29 सितंबर को मातंगिनी हाजरा के नेतृत्व में कोई छह हजार आंदोलनकारियों का जत्था (जिसमें अधिकतर महिलाएं थीं) प्रदर्शन करने निकला. जैसे ही वह शहर पहुंचा और अदालत की ओर जाने लगा, पुलिस ने उसे रोकने की कोशिशें शुरू कर दीं. पर प्रदर्शनकारियों की अगुवाई कर रहीं मातंगिनी हाजरा हाथ में तिरंगा लिए जोर-जोर से ‘वंदेमातरम’ का उद्घोष करती हुई जत्थे के साथ आगे बढ़ती रहीं. फिर क्या था, पुलिस ने उन पर गोलीबारी आरंभ कर दी. उसकी दो गोलियां मातंगिनी के दोनों हाथों में, जबकि एक माथे पर आ लगी. इसके बावजूद वे तिरंगे को मजबूती से पकड़े आगे बढ़ती रहीं और जब तक निष्प्राण नहीं हो गयीं, उसे भूमि पर नहीं गिरने दिया. उस वक्त जिसने भी तिहत्तर वर्ष के वार्धक्य के बावजूद उनका अद्भुत साहस देखा, उसी ने दंग होकर दांतों तले अंगुलियां दबायीं. इस पुलिस फायरिंग में उनके जत्थे के स्त्री-पुरुषों ने भी कुछ कम दृढ़ता का प्रदर्शन नहीं किया. उनमें से 43 को अपने प्राणों की आहुति देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी, लेकिन जो बच गये, उनका मनोबल नहीं टूटा. उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और अंततः तमुलक व कोनटाई में अपनी मर्जी की आजाद ‘ताम्रलिप्त जातीय सरकार’ गठित करने में सफल रहे, जो 1945 तक चली.
मातंगिनी का जन्म 1869 में बंगाल के पूर्वी मेदिनीपुर जिले में तमुलक के निकट स्थित होगला गांव में एक बेहद गरीब व साधारण किसान परिवार में हुआ था. बारह वर्ष की छोटी-सी उम्र में ही उनको बाल विवाह का अभिशाप झेलना पड़ गया था. अठारह वर्ष की होते-होते वे विधवा भी हो गयीं. लेकिन उनकी जिजीविषा इतनी अदम्य थी कि न वे इन सब से टूटीं और न ही किसी से दया की याचना की. ससुराल से मायके वापस लौट आयीं और सामाजिक कार्यों व स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पित हो गयीं. उनका यह समर्पण रंग लाया और कुछ वर्षों में वे न केवल अपने गांव, बल्कि उसके आसपास के बड़े क्षेत्र के ग्रामीणों की विश्वासपात्र हो गयीं. अनंतर, महात्मा गांधी से प्रभावित होकर वे उनकी प्रतिबद्ध अनुयायी बन गयीं. समय के साथ उन्होंने 1905 के स्वदेशी आंदोलन, फिर नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भी सक्रिय हिस्सेदारी की और छह माह का सश्रम कारावास भी झेला. साठ वर्ष की होने तक आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों के सिलसिले में सत्ताधीशों द्वारा उन्हें कई बार जेल की हवा खिलायी जा चुकी थी. उन्हीं के शब्दों में कहें तो, ‘जेल यात्राओं के दौरान मिलने वाली हर यातना स्वतंत्रता के लिए जूझते रहने के उनके संकल्प को और मजबूत कर दिया करती थी.’
अपनी शहादत से नौ वर्ष पहले 1933 में भी उन्होंने अपने शरीर पर पुलिस के हमले झेले थे. एक बार तब, जब सेरामपुर में उनकी देखरेख में आयोजित कांग्रेस के उपखंड स्तर के सम्मेलन पर बर्बर पुलिस लाठीचार्ज हुआ और दूसरी बार जब वे मिदनापुर में लाट साहब, यानी गवर्नर के खिलाफ मार्च निकाल रही थीं. बताया जाता है कि जब ‘लाट साहब वापस जाओ’ के नारे लगाता हुआ उनका मार्च चिलचिलाती गर्मी में लाट साहब के निवास की ओर बढ़ रहा था, तो लाट साहब अपने निवास के छज्जे से उसे देखकर कुछ इस तरह मजे ले रहे थे, जैसे पिकनिक पर आये हों. इसके कुछ ही देर बाद पुलिस ने मार्च पर लाठियां बरसानी आरंभ कर दीं. उसकी लाठियों से मातंगिनी हाजरा को कई गंभीर चोटें आयीं, लेकिन वे लाट साहब का मजा किरकिरा करने में सफल रहीं.
