साफ और बेलाग बोलते थे प्रो मैनेजर पांडेय

प्रोफेसर पांडेय ने कहा है कि व्यक्ति के चले जाने के बाद उसकी यादें रह जाती हैं. उसकी लिखी हुई किताबें रह जाती हैं. बाद की पीढ़ी उनको पढ़ती है तथा उनसे जितना ग्रहण कर सकती है, ग्रहण करती है.

By शिवानंद तिवारी | November 9, 2022 8:16 AM

पटना में चल रहे पुस्तक मेले में घूमते हुए श्रीकांत ने प्रोफेसर मैनेजर पांडेय के देहांत की दुखी कर देने वाली खबर मुझे सुनायी. हाल ही में मैंने पांडेय जी का एक भाषण यूट्यूब पर सुना था. वह अवसर क्या था, यह तो याद नहीं है, लेकिन उनकी बात आज भी अच्छी तरह याद है. अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि हिंदी समाज में या कहिए कि भारतीय समाज में सच बोलने की परंपरा नहीं है. इससे भी बड़ी बात यह है कि सच सुनने की आदत उससे भी कम है.

मुझे लगता है कि हमारे समाज और हमारी राजनीति में दिन-प्रतिदिन जो सड़ांध बढ़ती जा रही है, उसका इससे बढ़िया विश्लेषण और कुछ नहीं हो सकता है. अपने लंबे राजनीतिक जीवन में इस नंगे सत्य का मैं स्वयं गवाह हूं. कोई सच नहीं बोलता है और अगर गलती से सच बोल दिया, तो सामने वाले को अच्छा नहीं लगता है. प्रोफेसर मैनेजर पांडेय से मैं मिला हूं. उनके साथ उनके गांव लोहटी भी गया हूं. यह लगभग बीस बरस पुरानी बात है. उन दिनों मैं लालू यादव जी के ही साथ था.

यह बात याद नहीं है कि जब मैनेजर पांडेय जी ने मुझसे संपर्क किया था, उस समय मैं राबड़ी मंत्रिमंडल का सदस्य था या नहीं. पांडेय जी ने दिल्ली से मुझे फोन किया था. उसके पहले उनके गांव के उनके एक शिष्य यादव जी, जो किसी स्कूल में शिक्षक थे, मुझसे मिलने आये थे. उन्होंने मुझे उस घटना के विषय में बताया, जिसमें पांडेय जी के पुत्र की हत्या हो गयी थी.

वह घटना यह थी कि गोपालगंज, पंचदेवरी के लोहटी गांव में, जो पांडेय जी का गांव है, वहां अपराधियों और पुलिस के बीच में मुठभेड़ हुई थी. उस मुठभेड़ में गलती से पुलिस की गोली से ही पांडेय जी के पुत्र की हत्या हो गयी. प्रशासन ने अपनी गलती कुबूल भी की थी और तय हुआ था कि सरकार मृतक के परिवार को मुआवजा देगी और दोषी पुलिस पदाधिकारी पर हत्या का मुकदमा चलेगा.

लेकिन प्रशासन की अंधेरी गलियों में वह आश्वासन कहीं खो गया था. उसी सिलसिले में पांडेय जी ने मुझसे संपर्क किया था. मुझे यह भी याद नहीं है कि प्रोफेसर पांडेय के नाम से मैं पूर्व परिचित था या नहीं. पांडेय जी कद-काठी से तो बहुत लंबे-चौड़े नहीं थे, लेकिन अपनी बात वे रच-रच कर और बहुत जोर देकर इतने आत्मविश्वास के साथ कहते थे कि आप स्वयं उनके प्रभाव में आ जाते थे.

अपने साथ वे मुझे अपने गांव ले गये. वहां गांव के लोगों और उनके परिवार के साथ मुलाकात हुई. संपूर्ण घटना की प्रत्यक्ष जानकारी मुझे मिली. मुझे खुशी है कि सरकार के आश्वासन के मुताबिक पांडेय जी के परिवार को मुआवजा भी मिला और दोषी पुलिस पदाधिकारी को अदालत से सजा भी मिली. उसके बाद उनसे यदा-कदा फोन पर बात होती थी, लेकिन इधर तो जमाना हो गया था, उनसे बात नहीं हुई थी.

दिल्ली में एक लड़का है जयंत जिज्ञासु. उसने यूट्यूब पर उनके भाषण का विडियो मुझे भेजा था. उन्हीं में से एक में भारत में लिखी जानेवाली आत्मकथाओं पर उनकी एक टिप्पणी थी. डॉ राममनोहर लोहिया कहते थे कि जब तक राजनीतिक दल का कार्यकर्ता अपनी पार्टी के नेताओं की गलती की आलोचना नहीं करेगा, तब तक देश की राजनीति नहीं सुधरेगी. यही बात डॉ मैनेजर पांडेय ने अपने ढंग से कही है. भारतीय समाज और राजनीति का मूलभूत रोग यही है. प्रियदर्शन ने लिखा है कि प्रोफेसर पांडेय के जाने के साथ ही वह पूरी पीढ़ी निकल गयी.

उनकी रिक्तता को कौन भरेगा! इसका जवाब पांडेय जी ने स्वयं दिया है. वे कहते हैं कि व्यक्ति के चले जाने के बाद उसकी यादें रह जाती हैं. उसकी लिखी हुई किताबें रह जाती हैं. बाद की पीढ़ी उनको पढ़ती है तथा उनसे जितना ग्रहण कर सकती है, ग्रहण करती है. कितना साफ और बेलाग बोलते थे डॉक्टर मैनेजर पांडेय! मैं उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूं.

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