छवि सुधार से शुरू हो पुलिस सुधार

Police reforms : हर वर्ष पुलिस सुधार पर कॉन्फ्रेंस होती है. आइबी, यानी खुफिया ब्यूरो यह कॉन्फ्रेंस आयोजित करता है. इन कॉन्फ्रेंस में आतंकवाद पर, नक्सलवाद पर, जम्मू-कश्मीर पर, पूर्वोत्तर पर खूब बातें होती हैं. लेकिन इनमें रोजाना की पुलिस समस्याओं पर कभी कोई बात नहीं होती.

By प्रकाश सिंह | December 10, 2025 7:54 AM

Police reforms : पिछले दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित डीजीपी-आइजी के समापन सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता के बीच पुलिस की छवि बदलने पर जोर दिया. उन्होंने शहरी पुलिस व्यवस्था को मजबूत करने और औपनिवेशिक काल के आपराधिक कानूनों के स्थान पर लागू किये गये भारतीय न्याय संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के बारे में जन जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया. यह बिल्कुल सही बात है. लेकिन यह बहुत ही दयनीय स्थिति है कि आजादी के 78 साल बाद भी हम उस पुलिस बल पर निर्भर हैं, जिसका गठन अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक हितों की पूर्ति के लिए किया था. प्रधानमंत्री देश को विकसित भारत के रूप में देखना चाहते हैं, यह अच्छी बात है, पर एक आर्थिक महाशक्ति को बेहतर कानून-व्यवस्था की ठोस बुनियाद की आवश्यकता है.


हर वर्ष पुलिस सुधार पर कॉन्फ्रेंस होती है. आइबी, यानी खुफिया ब्यूरो यह कॉन्फ्रेंस आयोजित करता है. इन कॉन्फ्रेंस में आतंकवाद पर, नक्सलवाद पर, जम्मू-कश्मीर पर, पूर्वोत्तर पर खूब बातें होती हैं. लेकिन इनमें रोजाना की पुलिस समस्याओं पर कभी कोई बात नहीं होती. इन कॉन्फ्रेंस के आयोजक आइबी में वे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होते हैं, जिन्होंने बीस-तीस साल से वर्दियां नहीं पहनी हैं. इसलिए उन्हें पुलिस को होने वाली रोजमर्रा की समस्याओं की कोई खास जानकारी नहीं होती. मैंने सुझाव दिया था कि पुलिस सुधार पर सालाना कॉन्फ्रेंस दो हिस्सों में होनी चाहिए. पहले हिस्से में पुलिस की रोजमर्रा की समस्याओं पर बातें हों, ताकि उनका हल निकालने के बारे में सोचा जाये. और दूसरे हिस्से में उन तमाम चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा हो, जिन पर चर्चा होती ही है.

देश के पुलिस बल को जिन समस्याओं से रोज दो-चार होना पड़ता है, वे बहुत बड़ी हैं. मालखाने में सामान रखने की जगह नहीं है, थानों में विजिटर्स रूम नहीं हैं. कई जगह थानों में लॉकअप नहीं हैं. पुलिस स्टेशन की बिल्डिंग जर्जर है. लाशों के अंतिम संस्कार के लिए जितनी राशि दी जाती है, उतनी कम राशि में वह संभव नहीं है. ऐसी स्थिति में भी दारोगा और पुलिस वाले जिस तरह काम करते हैं, वह अचरज में डालने वाला है. पुलिस सुधारों की शुरुआत 1902 से होती है… मुद्दा यह है कि इन सवा सौ सालों में कुछ भी नहीं बदला है. क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है? अगर अंग्रेज नहीं बदले, तो आप उन्हें दोष नहीं दे सकते, लेकिन आप क्यों नहीं बदले?


यह हम सभी का एक प्रतिबिंब है-वकील, पुलिस अधिकारी, नौकरशाह, राजनेता, न्यायपालिका. हम जानते हैं कि यह एक औपनिवेशिक ढांचा है, जो हमें दिया गया है और हम इसे रोकने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि सत्ता में बैठे राजनेता सोचते हैं कि यह उनके अनुकूल है, वे इसका इस्तेमाल और दुरुपयोग कर सकते हैं. इसलिए, यह व्यवस्था जारी है. अगर आप अपराध की अच्छी तरह से जांच करना चाहते हैं, अगर आप अच्छी कानून-व्यवस्था चाहते हैं, तो पुलिस सुधारों से कोई बच नहीं सकता. हमें सुधारों की आवश्यकता क्यों है? एक तो कानून-व्यवस्था के लिए और दूसरा आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए. हमें सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने पर गर्व है.

अगर आप आर्थिक प्रगति की गति को बनाये रखना चाहते हैं, तो आपको अच्छी कानून-व्यवस्था की आवश्यकता है. और अगर आप अच्छी कानून-व्यवस्था चाहते हैं, तो आपको सुधार करने होंगे. अगर जरूरी पुलिस सुधार नहीं किये गये और औपनिवेशिक मॉडल पर ही पुलिस काम करती रही, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था ध्वस्त हो जायेगी. वर्ष 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार का निर्देश जारी किया था. लेकिन उस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं हुआ. मेरी किताब, ‘द स्ट्रगल फॉर पुलिस रिफॉर्म्स इन इंडिया: रूलर्स पुलिस टू पीपल्स पुलिस’ से आपको पता चलेगा कि शीर्ष अदालत का फैसला आने के बाद राज्यों ने अपने-अपने कानून तो पारित किये, लेकिन केवल यथास्थिति को वैध बनाने के लिए.

ऐसे में, प्रधानमंत्री ने बदलाव लाने की जो बात कही है, उसके लिए बहुत कुछ करना होगा. सबसे पहला और जरूरी काम है कि पुलिस खुद अपनी छवि सुधारे. लोगों का भरोसा अपने आप जीता नहीं जा सकता, भरोसा हासिल करना पड़ता है. लिहाजा आम लोगों के साथ बातचीत और संवाद का तरीका बदलना होगा. थानों में पुलिस के लोग आम आदमी से जिस तरह बात करते हैं, उनमें असहमति और दबंगई दिखती है. इसके बजाय आम आदमी के साथ सम्मान से पेश आना होगा. विनम्रता भरे एक शब्द, धैर्य के साथ लोगों की बात सुनने की आदत और सम्मानजनक ढंग से समाधान बताने का ही बेहद प्रभावी असर होगा और इससे लोगों में पुलिस के प्रति धारणा बदलेगी.


लोगों की शिकायतें तत्काल दर्ज करना भी उतना ही आवश्यक है. एफआइआर दर्ज करने से बचना या मना करना भी पुलिस के प्रति आम लोगों की प्रतिकूल छवि बनने का एक कारण है. जब पीड़ितों को खाली हाथ लौटा दिया जाता है, तब सिर्फ पुलिस पर नहीं, बल्कि पूरी अपराध न्याय प्रणाली पर से भरोसा टूट जाता है. मामलों की पक्षपात रहित जांच भी लोगों के बीच पुलिस की बेहतर छवि निर्माण के लिए जरूरी है. पुलिस को न्याय का वाहक होना चाहिए, निहित स्वार्थ का नहीं. जांच साक्ष्यों पर आधारित होना चाहिए, दबाव डलवा कर दिलाये गये बयानों पर नहीं. अगर जांच पेशेवर तरीके से की जाये, तो अदालतों में दोषसिद्धि होना तय है, जिससे लोगों का भरोसा बढ़ेगा.

पुलिस हिरासत में यातना देने और थर्ड डिग्री तरीकों को खत्म किया जाना चाहिए. हिरासत में हिंसा मानवाधिकार उल्लंघन का मामला तो है ही, इससे लोगों का भरोसा भी टूटता है. सभी थानों में सीसीटीवी लगाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पूरी तरह से अमल होना चाहिए. संसाधनों का पर्याप्त आवंटन भी पुलिस सुधार के लिए आवश्यक है. बीसवीं सदी के ढांचे से आप पुलिस से बेहतर करने की उम्मीद नहीं कर सकते. पर्याप्त पुलिस बल, वाहन, संवाद के आधुनिक उपकरण, फोरेंसिक प्रयोगशालाएं, प्रशिक्षण की सुविधा और साइबर यूनिट्स अनिवार्य आवश्यकताएं हैं.

यदि पुलिस सुधारों को पूरी तरह से अमल में नहीं लाया गया तो भविष्य में देश में लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है, क्योंकि तमाम सरकारें अपने-अपने हिसाब से पुलिस का इस्तेमाल करती हैं और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की के लिए जरूरी है कि पुलिस सुधार हों. आधुनिक भारत के लिए जरूरी है कि पुलिस भी आधुनिक हो.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)