ग्रामीण विकास में नरेगा योगदान कर सकता है

नरेगा की भूमिका किसानों को ऐसे उत्पादक निवेश करने में सक्षम बनाना है, जो आम तौर पर उनकी पहुंच से बाहर है. यह सिर्फ एक कल्याणकारी योजना नहीं है, बल्कि एक ठोस आर्थिक उद्यम है.

By ज्यां द्रेज | March 28, 2023 5:52 AM

निखिला नायर

स्वतंत्र शोधकर्मी

झारखंड में बीते छह सालों से बिरसा हरित ग्राम योजना (बीएचजीवाइ) के तहत जगह-जगह आम की बागवानी की गयी है. इसे पहले बिरसा मुंडा बागवानी योजना कहा जाता था. यह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (नरेगा) की छत्र-छाया में लागू एक प्रादेशिक योजना है. साल 2020-21 तक इसके तहत 25 हजार एकड़ से ज्यादा में आम की बागवानी की गयी है.

आपको आशंका हो सकती है कि रोपे गये पौधों में ज्यादातर मर चुके होंगे. लेकिन राज्य की सामाजिक अंकेक्षण इकाई के अनुसार सच यह है कि आम के ज्यादातर बिरवे जीवित और स्वस्थ हैं. हरित ग्राम योजना के अंतर्गत 18 हजार से अधिक परियोजनाओं के सामाजिक अंकेक्षण के आधार पर आकलन किया गया है कि पौधों की वार्षिक मृत्यु दर पांचवें वर्ष तक लगभग 13 प्रतिशत है और इसके बाद के समय में नगण्य. इसका मतलब हुआ कि 57 प्रतिशत बिरवे जीवित बचे रह गये हैं.

हमने बीएचजीवाइ परियोजनाओं की प्राप्ति की आंतरिक दर (आइआरआर) का अनुमान लगाने की कोशिश की. यदि आप किसी ऐसे बैंक में रकम जमा करते हैं, जो सालाना 10 प्रतिशत की वास्तविक (यानी मुद्रास्फीति को समायोजित करते हुए) ब्याज दर से भुगतान करता है, तो उस निवेश पर प्राप्ति की आंतरिक दर 10 प्रतिशत होगी. दस प्रतिशत आइआरआर वाली औद्योगिक परियोजनाओं को शानदार माना जाता है.

लेकिन हमें पता चला कि आम के बागानों का आइआरआर इससे भी कहीं ज्यादा है. स्पष्ट करते चलें कि हम यहां प्राप्ति की वित्तीय दर की बात कर रहे हैं, यानी प्रकट लागत और लाभ की गिनती के आधार पर प्राप्ति की आंतरिक दर का अनुमान लगा रहे हैं, चाहे यहां लागत और लाभ का वहन सरकार के जिम्मे हो या भूस्वामी के. भूस्वामी के लिए प्राप्ति की आंतरिक दर निश्चित ही ज्यादा होगी क्योंकि नरेगा के तहत ज्यादातर शुरुआती लागत सरकार वहन करती है. यहां हम ‘सामाजिक’ लागत और लाभ (जैसे पर्यावरणीय और पोषण-संबंधी लाभ) को अपनी गणना में शामिल नहीं कर रहे.

आइआरआर की गणना करने के लिए अंकेक्षण इकाई के उत्तरजीविता (आम के बिरवों की) अनुमान को बीएचजीवाइ के लागत-मानदंडों और आम की पैदावार और कीमतों के सर्वोत्तम अनुमानों के साथ जोड़ा है. इससे पता चलता है कि 112 बिरवों से एक एकड़ में बागवानी करने पर पांच साल में निवेश की लागत 3.38 लाख रुपये आती है.

आम के विभिन्न किस्मों के मंडी-मूल्य और बीएचजीवाइ के लाभार्थियों के साथ विचार-विमर्श के आधार पर हमने तय किया कि आम का बेसलाइन मूल्य प्रति किलोग्राम 40 रुपये रखा जाये (यहां सभी आंकड़े 2019 की स्थिर मूल्यों को आधार मानकर लिये गये हैं). आम की सालाना पैदावार 40 वर्षों की अवधि में कितनी रहेगी, इसके आकलन के लिए हमने कृषि-उपज की खरीद-बिक्री संबंधी अध्ययनों तथा भूस्वामियों के साथ हुई चर्चा को आधार बनाया है.

इस गणना में कई बार हमें अटकल का सहारा लेना पड़ा, लेकिन चाहे जो तरीका अपनायें, निष्कर्ष यही निकला कि प्राप्ति की आंतरिक दर सचमुच ज्यादा हैः आधारभूत (बेसलाइन) स्थितियों में करीब 31 प्रतिशत. राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के तहत हुए 2005 के एक अध्ययन में भी आइआरआर के इसी के आस-पास होने की बात कही गयी है.

अगर कमाई इतनी ज्यादा है, तो नरेगा के आने से पहले झारखंड में अपने दम पर आम की फसल उगाने वाले किसानों की तादाद बहुत कम क्यों थी? मुख्य कारण यह है कि झारखंड में ज्यादातर छोटे किसान हैं, जो अपने दम पर ऐसा जोखिम भरा निवेश नहीं कर सकते. उनकी पहली प्राथमिकता पेट पालने भर फसल उपजाने की होती है. फसली जमीन को आम की बागवानी की जमीन में बदलना एक महंगा सौदा है.

मुनाफा ज्यादा मिलेगा, लेकिन ऐसा पांच साल बाद ही संभव है. और, जब किसान के पास जानकारी कम हो, तो जोखिम बढ़ जाता है. दूसरे शब्दों में कहें, तो यहां नरेगा की भूमिका किसानों को ऐसे उत्पादक निवेश करने में सक्षम बनाना है, जो आम तौर पर उनकी पहुंच से बाहर है. यह सिर्फ एक कल्याणकारी योजना नहीं है, बल्कि एक ठोस आर्थिक उद्यम है. झारखंड में सभी नरेगा परियोजनाएं आम के बागानों की तरह लाभदायक नहीं साबित हुई हैं. कई कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार का घुन भी लगा हुआ है. लेकिन कुएं और बागान इसके गवाह हैं कि झारखंड जैसे राज्यों में ग्रामीण विकास में नरेगा कितना बड़ा योगदान कर सकता है.

यहां हमारे लिए एक और अहम सीख है. आम उन अनगिनत स्थानीय उत्पादों में से एक है, जिसके उत्पादन का विकास झारखंड में स्थानीय समुदायों के लाभ के लिए टिकाऊ, न्यायसंगत और भागीदारीपरक तर्ज पर किया जा सकता है. यह दृष्टिकोण तमाम गतिविधियों में लागू किया जा सकता है,

जैसे कृषि, पशुपालन, मत्स्य-पालन, बागवानी, शिल्प तथा लघु वनोपज (महुआ, तेंदू, बांस, मशरूम, शहद, गोंद आदि का उत्पादन). ऐसा करने के बजाय सरकार विकास के नाम पर राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर ध्यान नहीं दे रही है. आम रोपाई योजना इसका एक सुखद अपवाद है – इसे एक आदर्श मानकर बरतना चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Next Article

Exit mobile version