Birth Anniversary : महिलाओं की शिक्षा को जरूरी मानते थे मौलाना आजाद
Maulana Abul Kalam Azad : महात्मा गांधी की ही तरह वह किसी को सिर्फ जुबानी जमा-खर्च से कुछ सिखाने की कोशिशें करने के विरुद्ध थे. वह खुद को ईश्वर की संतान और 'अपने साथ घटित होने वाली हर चीज से महान' बताते और कहते थे कि मैं उस अविभाज्य एकता का हिस्सा हूं, जो भारतीय राष्ट्रीयता है.
Maulana Abul Kalam Azad : मौलाना अबुल कलाम आजाद मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत और भारत के विभाजन के मंसूबे के इतने प्रबल विरोधी थे कि उनको नाकाम करने के लिए कुछ और समय तक अंग्रेजों की गुलामी करने को तैयार थे. वह भी तब, जब उनका मानना था कि गुलामी दुनिया की सबसे बुरी शय है. विडंबना यह कि ऐसे दृढ़ रुख के बावजूद वह देश को विभाजन की विभीषिका से बचा नहीं पाये. बाद में वह आजाद देश के पहले शिक्षा मंत्री बने, तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और संगीत नाटक, साहित्य व ललित कला जैसी अकादमियों की स्थापना की पहल की.
नैतिक वह इतने थे कि मंत्री रहते हुए देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ लेने से मना कर दिया था. इसके अलावा, वह इस्लाम के अनूठे विद्वान, ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ जैसी कालजयी कृति के लेखक और कवि, पत्रकार, संपादक, क्रांतिकारी व खिलाफत आंदोलनकारी के रूप में भी जाने जाते हैं. महात्मा गांधी के अप्रतिम अनुयायी, सत्याग्रही, स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के सबसे कम उम्र अध्यक्ष के रूप में भी उनकी पहचान रही. इसके अलावा भी उनके व्यक्तित्व व कृतित्व के कई आयाम थे. जैसे कि उनकी दृढ़ता कमजोर क्षणों में और प्रबल हो जाती थी.
विभाजन के जिन्ना के मंसूबे के विरुद्ध तो उन्होंने इस दृढ़ता का प्रदर्शन किया ही, इसका एक उदाहरण 1945 में तब भी पेश किया, जब भले ही देश आजादी की आहट महसूस करने लगा था, पर गोरी सरकार को उन्हें जेल से छोड़ना गवारा नहीं था. उसी दौरान कलकत्ता में उनकी पत्नी का निधन हो गया, तो कई हलकों से सुझाव आये कि वह सरकार से पैरोल पर रिहाई मांग लें. पर उन्होंने यह कहकर सारे सुझाव ठुकरा दिये कि ऐसा करना आजादी देने में टालमटोल करती आ रही अन्यायी अंग्रेज सरकार से दया की याचना करने जैसा होगा.
अनंतर, उन्होंने इस याचना के बजाय अपने धैर्य को असीम कर लिया और पत्नी के बिछोह का सारा दुख अंदर ही अंदर सह गये. उनके अनुयायियों ने उनकी पत्नी का स्मारक बनाने के मकसद से धन जुटाने के लिए बेगम आजाद स्मृतिकोष बनाया, तो देश के लोगों ने उसके लिए इतने खुले हाथों दान दिया कि मौलाना के जेल से बाहर आने तक कोष में बड़ी रकम जमा हो गयी. अनुयायियों ने सोचा था कि मौलाना इस बाबत जानेंगे तो बहुत खुश होंगे. लेकिन मौलाना इतने नाराज हुए कि फौरन धन संग्रह रोक देने को कह दिया. साथ ही, कोष में जमा हुई सारी धनराशि इलाहाबाद के कमला नेहरू अस्पताल को देने का ‘आदेश’ दे डाला. अनुयायी इसके प्रति अन्यमनस्क दिखे, तो उनसे साफ कह दिया कि देशवासियों से एकत्र किया गया कोई भी धन किसी व्यक्ति के नहीं, लोक के हित में ही खर्च किया जाना चाहिए.
महात्मा गांधी की ही तरह वह किसी को सिर्फ जुबानी जमा-खर्च से कुछ सिखाने की कोशिशें करने के विरुद्ध थे. वह खुद को ईश्वर की संतान और ‘अपने साथ घटित होने वाली हर चीज से महान’ बताते और कहते थे कि मैं उस अविभाज्य एकता का हिस्सा हूं, जो भारतीय राष्ट्रीयता है. शिक्षाविद के तौर पर उनका कहना था कि शीर्ष पर चढ़ने के लिए ताकत की आवश्यकता होती है. शिक्षकों से उनकी अपेक्षा थी कि वे छात्रों में जिज्ञासा, रचनात्मकता, उद्यमशीलता और नैतिक नेतृत्व की भावना का विकास करें और उनके आदर्श बनें.
कला और संगीत को वह भावनाओं की शिक्षा मानते थे और कहते थे कि ये सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा की किसी भी योजना के अनिवार्य तत्व हैं. उनका कहना था कि शिक्षा माध्यमिक स्तर की हो या विश्वविद्यालय स्तर की, तब तक पूर्ण नहीं मानी जा सकती, जब तक वह शिक्षार्थियों की क्षमताओं को सौंदर्य बोध के लिए प्रशिक्षित न करे. उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी शिक्षा पाने का अधिकार है, जो उसे अपनी क्षमताओं का विकास करने और पूर्ण मानव जीवन जीने में सक्षम बनाये, और राष्ट्रीय शिक्षा का कोई भी कार्यक्रम तब तक उपयुक्त नहीं हो सकता, जब तक वह महिलाओं की शिक्षा और उन्नति पर पूर्ण ध्यान न दे. उनका यह भी मानना था कि जो व्यक्ति संगीत से प्रभावित नहीं होता, वह मानसिक रूप से अस्वस्थ व असंयमी तो होता ही है, आध्यात्मिकता भी से दूर होता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
