देश के भीतर अच्छे अवसर मिलें

विडंबना है कि बाहर जाती भीड़ भारतीय व्यवस्था को अवरोधक, पर्यावरण को अस्वास्थ्यकर और सामाजिक रूप से दमनकारी मानती है.

By प्रभु चावला | December 14, 2021 7:37 AM

प्रभु चावला

एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप

prabhuchawla@newindianexpress.com

वर्ष 1025 में महान तमिल सम्राट राजेंद्र चोल प्रथम पहले भारतीय शासक थे, जो अपनी सेना को देश की सीमाओं से परे लेकर गये थे. उन्होंने श्रीलंका, मालद्वीप मलेशिया, दक्षिणी थाईलैंड और इंडोनेशिया समेत दक्षिण-पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्से को अपने अधीन कर भारत की सीमाओं का विस्तार किया. उन्होंने थाईलैंड और कंबोडिया के शासकों से धन प्राप्त किया. दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर कंबोडिया के अंकोरवाट में है.

साल 1893 में आत्मा के सम्राट स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक भाषण दिया और हिंदू धर्म से अमेरिका का परिचय कराया तथा पश्चिम में वेदांत और योग के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. चोल साम्राज्य के वैश्विक विस्तार से सदियों पहले भारतीय मसाले बड़े बाजारों में सोने के बराबर या उससे अधिक दाम पाते थे. राजनीतिक, बौद्धिक, धार्मिक और आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का वैश्विक प्रभाव था. इस सोने की चिड़िया के परों को अरबों, मुगलों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों, डचों और अंग्रेजों ने नोच दिया, जो व्यापारियों के रूप में आये थे और विस्तारवादी शासक बन बैठे.

अब बड़ी संख्या में भारतीय देश छोड़ कर जा रहे हैं और अपने साथ बौद्धिक और आर्थिक पूंजी भी ले जा रहे हैं. बीते पांच सालों में छह लाख से अधिक भारतीयों ने अपने पासपोर्ट वापस किये हैं, जो आजादी के बाद सबसे बड़ी संख्या है. लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने जानकारी दी है कि इस वर्ष सितंबर तक 1.11 लाख से अधिक भारतीयों ने अपना पासपोर्ट लौटा दिया है. उन्होंने अपनी जन्मभूमि को बेकार समझनेवाले भारतीयों की बढ़ती संख्या का कोई कारण नहीं बताया. क्या यह पलायन अधिक धन की चाहत के कारण हो रहा है या इस पलायन की वजह अधिक सफलता की चाहत है, जो यहां उपलब्ध नहीं है? क्या धनिकों का अब ब्रांड भारत में भरोसा नहीं रहा? भारत तेजी से बढ़ रहा है. यहां मजबूत नेतृत्व और राजनीतिक स्थिरता है.

वैश्विक कंपनियों के लिए यह स्वप्निल बाजार है. सबसे अहम कि भारत में कारोबार के प्रति दोस्ताना सरकार और माहौल है. विडंबना है कि बाहर जाती भीड़ भारतीय व्यवस्था को अवरोधक, पर्यावरण को अस्वास्थ्यकर और सामाजिक रूप से दमनकारी मानती है. स्वाभाविक रूप से यह मध्य वर्ग और नव धनिक समूह है, जो भारत में जीवन को आकर्षक नहीं मानता है. विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक, दो प्रतिशत से अधिक भारतीय अरबपतियों ने कारोबार और बेहतर जीवन के लिए दूसरे देश को चुना है. यह भी अचरज की बात है कि महामारी के दौरान भी भारतीय देश छोड़ रहे हैं. बीते दो वर्षों में कनाडा, सिंगापुर, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया में स्थायी निवास के बारे में पूछताछ में 60 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई है.

जाति एवं निर्धनता के कारण अधिकतर भारतीय शिक्षा और समृद्धि का लाभ नहीं ले पाते हैं. भारतीय बौद्धिक और पेशेवर दशकों से बेहतर फायदे के लिए पश्चिम का रुख करते रहे हैं. अमेरिका में लगभग 38 प्रतिशत डॉक्टर, 36 प्रतिशत नासा में कार्यरत और 34 प्रतिशत माइक्रोसॉफ्ट कर्मचारी और 28 प्रतिशत आइबीएम कर्मचारी भारतीय हैं. अमेरिकी संपदा का 20 प्रतिशत हिस्सा एक दर्जन से अधिक भारत में जन्मे टेक्नोक्रेट और भारतवंशियों के हाथ में है. ट्वीटर के सीइओ पराग अग्रवाल, गूगल के सीइओ सुंदर पिचाई, माइक्रोसॉफ्ट के सीइओ सत्या नडेला, एडोबी के सीइओ शांतनु नारायण, अरिस्टा नेटवर्क के सीइओ जयश्री उल्लाल, वीएमवेयर के सीइओ रंगराजन रघुराम, आइबीएम के सीइओ अरविंद कृष्ण, मास्टरकार्ड के एक्जीक्यूटिव चेयरमैन अजयपाल सिंह बंगा आदि अपने क्षेत्र के महारथी हैं. कई पश्चिमी अकादमिक और वित्तीय संस्थान भारतीयों द्वारा संचालित हैं, लेकिन उनमें से सभी ने भारत को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक असंतुष्ट के रूप में नहीं छोड़ा है.

भारतीय कॉरपोरेट, वरिष्ठ नौकरशाह और धनिक लंबे समय से अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भेजते रहे हैं, जिस पर नौ अरब डॉलर से अधिक सालाना खर्च होता है. उनमें से अधिकतर वहीं रह जाते हैं. विडंबना है कि वे ही भारत के विचार में योगदान देते हैं. धनी परिवारों में एक सदस्य को विदेश बसाने का चलन ही है. वर्तमान पलायन की अगुआई वे लोग कर रहे हैं, जिन्होंने भारत में ही धन और नाम कमाया है. लगभग सभी शीर्षस्थ उद्योगपतियों ने बाहर एक कारोबार खड़ा किया है, जिसकी देखरेख उनके बच्चे करते हैं.

शायद ही कोई वरिष्ठ नौकरशाह या सेनाधिकारी होगा, जिसकी एक संतान ने बाहर ग्रीन कार्ड या स्थायी निवास न हासिल किया हो. इधर सिंगापुर के बाद दुबई भारतीय धनी कारोबारियों का पसंदीदा जगह बन गया है. दुनियाभर के उग्र बाजारवादी मानव संसाधन और धन की गतिशीलता को निवेश प्रवासी उद्योग की संज्ञा देते हैं, लेकिन भारत के मामले में यह एकमार्गी रास्ता है. निवेश तो भारत आ रहा है, लेकिन निवेशक बाहर का जीवन पसंद करता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2017 में प्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में कहा था, ‘गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मैंने एक चर्चा में कहा था कि अगर देश की सारी प्रतिभाएं बाहर चली जायेंगी, तो क्या देश में केवल मूर्ख रह जायेंगे, लेकिन आज मैं भरोसे से कह सकता हूं कि हमारी सरकार की पहलों से हम प्रतिभा पलायन को प्रतिभा प्राप्ति में बदल रहे हैं.’ पहले मनमोहन सिंह ने भी ऐसा आशावाद प्रकट किया था. पलायन बीते दो दशकों में कुछ धीमा हो गया था. वर्तमान पूंजी पलायन के कारणों पर सहमति नहीं है.

अधिकारी कहते हैं कि दागदार कारोबारी एजेंसियों के डर से भाग रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी के आलोचकों का आरोप है कि मध्यवर्गीय उद्योगपतियों से बहुत अधिक पूछताछ हो रही है और उन पर छापे पड़ रहे हैं. अन्य कुछ का मानना है कि भारतीय भरोसेमंद और सुरक्षित विकल्प की तलाश कर रहे हैं. भारत कारोबार के लिए एक आदर्श स्थान नहीं बन सका है. विडंबना ही है कि कई प्रमुख देश भारत को भविष्य का देश मानते हैं. फिर भी निराशावादी तत्व और उदासीन व्यवस्था बनते हुए नये भारत की अवधारणा को प्रचारित नहीं कर सके हैं. भारत का नुकसान दूसरे देशों के लिए फायदा है. पुरानी कहावत है कि जब आप अलविदा कहते हैं, तो आप कुछ मर जाते हैं. विदेशी पासपोर्ट लेनेवाले भारतीयों के लिए इसका अर्थ है कि आप समृद्ध जीवन जी सकते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं).

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