बाघों को सुरक्षित करना जरूरी

वर्ष 2012 से हर साल औसतन 98 बाघ की मौत हुई है. सबसे ज्यादा मौतें 2021 में हुईं, जब यह संख्या 126 रही थी. इनमें 60 अवैध शिकार, सड़क हादसों व इंसानी संघर्ष में मरे थे.

By ज्ञानेंद्र रावत | July 29, 2022 8:04 AM

केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने कुछ दिन पहले संसद में बताया कि 2019 से 2021 के बीच हर तीसरे दिन एक बाघ की मौत हुई है. इन तीन सालों में कुल 329 बाघ मौत के मुंह में चले गये. इनमें 68 की मौत स्वाभाविक हुई, पांच की अस्वाभाविक हुई, 29 शिकारियों द्वारा मारे गये और 30 की मौत लोगों के हमले में हुई. ये आंकड़े इस बात का सबूत हैं कि बाघों के संरक्षण की दिशा में किये जा रहे सरकारी प्रयास बेमानी हैं.

इस साल के शुरू में नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने घोषणा की थी कि राजस्थान के रणथंभौर से लेकर मध्य प्रदेश के पन्ना तक वन्यजीव गलियारा बनाया जायेगा. इसका मुख्य कारण अभयारण्यों में क्षमता से बहुत अधिक बाघों का होना है और इससे भोजन, क्षेत्र और आवास की समस्या के चलते मानव आबादी में हमले की आशंका बढ़ गयी है. वर्ष 1972 में बाघ को राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया था.

उसके बाद बाघ बचाओ परियोजनाओं की शुरुआत हुई. वर्तमान में देश में कुल 53 टाइगर रिजर्व हैं. दुनिया के 71 फीसदी, यानी लगभग 3000 बाघ हमारे देश में हैं. देश में सबसे ज्यादा बाघ मध्य प्रदेश, कर्नाटक और उत्तराखंड में हैं. उत्तराखंड में कार्बेट टाइगर रिजर्व और राजाजी टाइगर रिजर्व में सबसे अधिक बाघ हैं, जबकि छत्तीसगढ़, ओड़िशा, बिहार, राजस्थान और पूर्वोत्तर राज्यों में इनकी आबादी कम है. इस साल सरकार ने इन राज्यों के कुछ अभयारण्यों को टाइगर रिजर्व के रूप में विकसित करने की मंजूरी दी है.

उत्तराखंड में अब बाघ खुद नये गलियारे बना रहे हैं. कार्बेट-नघौर के बाघ इसके सबूत हैं. यहां हैडाखान के अलावा पिथौरागढ़ के अस्कोट व केदारनाथ में भी बाघों की मौजूदगी के सबूत मिले हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, बौरवैली से देचौरी रेंज होते हुए नैनीताल शहर से लगे पंगूट के जंगलों तक, दाबका वैली से नैनीताल के विनायक तक और मोहान कुमखेत से बेताल घाट व अल्मोड़ा के जंगलों तक अब बाघ पहुंच रहे हैं. कार्बेट-नघौर में बाघों की तादाद तेजी से बढ़ी है, इसलिए वे नये इलाकों की तलाश में पहाड़ों की ओर रुख कर रहे हैं.

जंगलों के अंधाधुंध कटान ने इसमें अहम भूमिका निभायी है. अंतरराष्ट्रीय ग्लोबल टाइगर फोरम की मानें, तो भारत की स्थितियां बाघों के आवास के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. भारत में 38,915 वर्ग किलोमीटर इलाका बाघों के रहने लायक है. नेपाल और तिब्बत भी बाघों के लिए उपयुक्त हैं. भारत, नेपाल और भूटान के अधिक ऊंचाई वाले पारिस्थितिक तंत्र के अध्ययन में इन देशों में करीब 52,671 वर्ग किलोमीटर इलाका बाघों के अनुकूल पाया गया है. इसके बावजूद बाघ मर रहे हैं, यह चिंताजनक स्थिति है.

नौ साल पहले रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में 13 देशों ने 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने का लक्ष्य निर्धारित किया था. इस लक्ष्य को भारत ने चार साल पहले ही हासिल कर लिया था. इससे ग्लोबल टाइगर फोरम के अध्ययन के निष्कर्ष की पुष्टि होती है कि भारत बाघों के लिए सर्वोत्तम सुरक्षित स्थल है. विडंबना यह है कि हमारे यहां जहां बाघों की तादाद में बढ़ोतरी के दावे किये जा रहे हैं, इसका कारण वन्यजीव अभयारण्यों के बेहतर प्रबंधन को माना जा रहा है, वहीं देश में बाघों की मौतों में बढ़ोतरी होना बेहद चिंताजनक बात है.

भले सरकार द्वारा बाघ संरक्षण की दिशा में ढेर सारी योजनाएं चलायी जाएं, मगर असलियत में देश में बाघों के शिकार की गति बढ़ रही है. वर्ष 2012 से हर साल औसतन 98 बाघ की मौत हुई है. सबसे ज्यादा मौतें 2021 में हुईं, जब यह संख्या 126 रही थी. इनमें 60 अवैध शिकार, सड़क हादसों व इंसानी संघर्ष में मरे थे. इनमें 44 मध्य प्रदेश, 26 महाराष्ट्र और 14 कर्नाटक में मरे थे. बीते आठ सालों में 750 बाघों की मौत हुई, जिनमें 168 की शिकार से और 319 प्राकृतिक कारणों से मरे.

बाघों के आपसी संघर्षों में होने वाली मौतों की संख्या बढ़ना भी चिंता की बात है. बीते कुछ सालों में 350 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के वन्यजीव उत्पादों के बरामद होने से यह साबित होता है कि वन्यजीव तस्करों को कोई भय नहीं है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, बाघों के प्राकृतिक आवासों का संरक्षण बहुत जरूरी हो गया है. सरकार बीते दस सालों में 530 से अधिक बाघों की मौत का दावा करती है, जबकि वन्य जीव विशेषज्ञ मौतों की संख्या इससे कहीं अधिक बताते हैं.

इनके आवास स्थल जंगलों में अतिक्रमण, प्रशासनिक कुप्रबंधन, चारागाह का सिमटते जाना, जंगलों में प्राकृतिक जलस्रोत तालाब, झीलों के खात्मे से इनका मानव आबादी की ओर आना जैसी कई समस्याएं हमारे सामने हैं. ऐसे में इन वजहों तथा आपसी संघर्ष और बढ़ते अवैध शिकार के चलते बाघों की मौतों का आंकड़ा हर साल बढ़ता ही जा रहा है. पिछले साल राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की सदस्य एवं सांसद दीया कुमारी ने आरोप लगाया था कि रणथंभौर अभयारण्य से 26 बाघ गायब हो गये.

दुखद यह है कि प्रशासन इस बाबत चुप्पी साधे रहा. यह विचारणीय है कि जब वन्यजीव अभयारण्यों का प्रबंधन इतना बढ़िया है, उस हालत में बाघ कैसे गायब हो जाते हैं या शिकारियों द्वारा मार दिये जाते हैं, इसका जवाब किसी के पास नहीं है.

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