राजनीति में एकात्म मानववाद के प्रणेता

भर्तृहरि का कथन है- 'वारांगनेव नृपनीतिरनेकरूपा' अर्थात राजनीति वेश्याओं की तरह अनेक रूप धारण करती है, किंतु एकात्म मानववाद के मंत्रद्रष्टा पं दीनदयाल उपाध्याय ऐसे दुर्लभ राजनेता थे

By विनय कुमार | September 23, 2022 8:21 AM

भर्तृहरि का कथन है- ‘वारांगनेव नृपनीतिरनेकरूपा’ अर्थात राजनीति वेश्याओं की तरह अनेक रूप धारण करती है, किंतु एकात्म मानववाद के मंत्रद्रष्टा पं दीनदयाल उपाध्याय ऐसे दुर्लभ राजनेता थे, जिन्होंने भर्तृहरि इंगित कलुष को अपना स्पर्श नहीं होने दिया. गीता (16/3) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘तेजो क्षमा धृति शौचमद्रोहो नातिमानिता. भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत’ यानी तेज, क्षमा, धैर्य, अंतर्वाह्य शुद्धि, किसी से द्रोह का अभाव और निरभिमानी स्वभाव- ये दैवी संपदा संपन्न व्यक्ति के लक्षण हैं. सादा जीवन, उच्च विचार के प्रतिमूर्ति पं दीनदयाल जी गीतोक्त दैवी संपदा के प्रतीक पुरुष थे. वे राजनीति में संस्कृति के दूत थे.

छात्र जीवन में अत्यंत प्रतिभाशाली रहे पं उपाध्याय ने पढ़ाई समाप्त कर स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के नाते राष्ट्र को समर्पित कर दिया. संघ कार्य की व्यस्तता के बीच उन्होंने राष्ट्रवादी पत्रकारिता को दिशा देने के लिए अटल बिहार वाजपेयी जी को साथ लेकर राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और स्वदेश जैसी पत्र-पत्रिकाओं का कुशल संपादन भी किया. 21 अक्तूबर, 1951 को जब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ के नाम से भारतीय राजनीति के आंगन में प्रखर राष्ट्रीयता का एक छोटा-सा बिरवा लगाया, तो उसके प्रथम महामंत्री पं दीनदयाल बनाये गये.

पंडित जी के परिश्रम और नीति कुशलता के बल पर डॉ मुखर्जी के असमय अवसान के बावजूद जनसंघ ने शीघ्र ही अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर लिया था. वे इतने तेजस्वी थे कि 1952 से 1967 तक जनसंघ के दर्जनभर अध्यक्ष हुए, किंतु इसके महामंत्री के नाते दल को वे ही संभालते रहे.

यह उनकी संगठन कुशलता और नीतिमत्ता का ही प्रमाण था कि 1967 में समाजवादी नेता डॉ लोहिया से तालमेल कर उतर भारत के कई राज्यों में कांग्रेस को करारी मात दी और लोकसभा में 35 सीटों के साथ जनसंघ की प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज हुई. वर्ष 1967 में ही वे दल के कालीकट अधिवेशन में इसके अध्यक्ष बने, पर यह जनसंघ और देश का दुर्भाग्य रहा कि इसके मात्र 40 दिन बाद ही, 11 फरवरी, 1968 को चलती ट्रेन में उनकी हत्या कर दी गयी.

वर्ष 1916 से 1968 तक की जीवन यात्रा में उन्होंने मौलिक चिंतन के जिस विराट को छुआ, वह विस्मयकारी है. उनकी प्रेरणा का केंद्र ‘भारत माता’ हैं. ‘भूमि’ (देश) इसका शरीर है, ‘जन’ इसका अराधक है और ‘संस्कृति’ इसकी आत्मा है. भूमि, जन और संस्कृति मिल कर राष्ट्र बनते हैं और भारत की प्राचीन राष्ट्रीयता का आधार राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक है. पं दीनदयाल प्रणीत एकात्म मानववाद उनके चिंतन की गहराई से परिचित कराता है.

उनके अनुसार, जीवन और जगत के प्रश्नों का समाधान भौतिकता में रचे-पगे पूंजीवाद, समाजवाद अथवा साम्यवाद में नहीं, अपितु भारतीय अध्यात्म में है. उनका मानना था कि चार सिद्धांतों- अस्तित्व के लिए संघर्ष, सर्वोत्तम का अस्तित्व, प्रकृति का शोषण एवं वैयक्तिक अधिकार, इनके इर्द-गिर्द ही पश्चिम के सारे विचार घूमते हैं, जो अपूर्ण एवं एकांगी है. सनातन भारतीय चिंतन ‘संघर्ष’ की जगह सहयोग, सर्वोत्तम के अस्तित्व की जगह ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, प्रकृति के शोषण की जगह विवेकपूर्ण ‘दोहन’ तथा वैयक्तिक अधिकार की जगह ‘कर्तव्य’ का प्रतिपादन करता है.

पश्चिमी विचारक केवल शरीर का विचार करते है, इसलिए मनुष्य का सर्वांगीण विकास उनकी दृष्टि में नहीं आ पाता, पर भारतीय मनीषा शरीर के साथ ही मन, बुद्धि और आत्मा का समग्र विचार कर उसे सर्वांग सुखी बनाने की दृष्टि देती है. इसके लिए चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष निश्चित किये गये हैं. धर्म नैतिक निर्देशन करता है तथा धर्माधारित ‘अर्थ’ और ‘काम’ का उपभोग मानव को मोक्ष की ओर अग्रसर करता है. एकात्म मानववाद एक पूर्ण दर्शन है जो मानव और संपूर्ण प्रकृति के अंतर्संबंधों की मीमांसा कर व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की सभी समस्याओं का युक्तियुक्त निदान करता है.

पंडित जी ने एडम स्मिथ के पूंजीवाद और मार्क्स के समाजवाद को खारिज करते हुए इनके पतन की भविष्यवाणी कर दी थी. उनका स्पष्ट मानना था कि अगर पूंजीवाद समता का शत्रु है, तो समाजवाद या साम्यवाद स्वतंत्रता का और दोनों शत्रु हैं बंधुता के. स्वदेशी, स्वावलंबन, विकेंद्रीकरण और अंत्योदय दीनदयाल प्रणीत एकात्म अर्थनीति के सूत्र हैं. किसान अपने खेत के स्वामी हों तथा कृषि, लघु उद्योग और तब बड़े उद्योग का क्रम होगा, तभी बेरोजगारी पर अंकुश लगेगा.

सामाजिक लोकतंत्र की तरह आर्थिक लोकतंत्र ही हर हाथ को काम की गारंटी देता है, जिसके लिए विकेंद्रित अर्थनीति ही तरणोपाय हैं. वे कहते थे कि सरकारी और निजी क्षेत्र परस्पर पूरक हों, न तो पूर्ण राष्ट्रीयकरण और न ही खुली छूट. उत्पादन में वृद्धि, उपभोग में संयम और वितरण में समानता ही हमारी अर्थनीति के निर्देशक तत्व होने चाहिए. अंततः सारी राजनीतिक गतिविधियों का उद्देश्य उन्होंने भारत को समृद्ध, समर्थ, शक्तिशाली और स्वाभिमानी राष्ट्र बनाना बताया है. समाज के अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के कल्याण हेतु उन्होंने ‘अंत्योदय’ का मंत्र दिया. उनके एकात्म मानव दर्शन के आधार पर समग्र सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक पुनर्रचना वर्तमान की महती आवश्यकता है.

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