महामारी का शिक्षा व्यवस्था पर असर

तकनीक के प्रभाव से शिक्षा का जो स्वरूप उभर रहा है, उसकी व्यापकता के साथ, पीछे छूट जानेवाले बच्चे और संस्थान कहां जायेंगे, इसका रास्ता साफ नहीं दिख रहा है. संकट, शिक्षकों पर भी है और सरकारी शिक्षण संस्थानों पर भी.

By संपादकीय | December 31, 2021 7:09 AM

डॉ संजीव राय, डॉ संजीव राय, शिक्षा विशेषज्ञ

sanj.2402@gmail.com

जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की तरह कोरोना महामारी ने हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी गंभीर प्रभाव डाला है. दो साल से चली आ रही से महामारी से अभी पूरी तरह निजात मिलने की उम्मीद भी नहीं दिखायी दे रही है. पिछले वर्ष जिन छात्रों ने स्नातक कक्षाओं में प्रवेश लिया था, उन्हें कॉलेज कैंपस में पढ़ने का मौका नहीं मिला और अब वे दूसरे वर्ष के छात्र हो गये हैं. दो अकादमिक सत्रों से सामान्य कक्षाएं नहीं चल पा रही हैं. शैक्षणिक संस्थानों के पास शिक्षण के अन्य विकल्प तलाशने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता है. इस दौर में तीन तरह के शिक्षण संस्थान उभरे हैं.

सर्वप्रथम जिन संस्थानों के पास डिजिटल ढांचा था, उन्होंने कक्षाओं को ऑनलाइन माध्यम में बदल लिया. दूसरी श्रेणी में तकनीकी रूप से उभरते संस्थान हैं, जिन्होंने ऑनलाइन और ऑफलाइन शिक्षण का एक मिश्रित स्वरूप बनाया है. तीसरी श्रेणी में ऐसे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं, जो तकनीकी रूप से बहुत पीछे हैं. इन संस्थाओं के नामांकित छात्र ‘डिजिटल असमानता’ के शिकार हैं. इसमें भी लड़कियां और महिलाएं डिजिटल और जेंडर दोनों नजरिये से विषमता की शिकार हैं. स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक के शिक्षकों पर तकनीक के साथ सामंजस्य बिठाने का दबाव भी है.

इस साल के अंत में कोरोना का ग्रहण उतरते-उतरते अचानक वक्रगामी हो गया है और हमारे सामने ओमिक्रॉन वैरिएंट के रूप में नयी चुनौती खड़ी हो गयी है. संक्रमण की स्थिति कुछ भी हो, लेकिन इतना तो तय है कि शिक्षण संस्थाएं अब पहले जैसी नहीं रह जायेंगी. मार्च, 2020 के बाद से पूरे देश में सभी स्कूल-विश्वविद्यालय सामान्य तरह से नहीं खुल पाये. दिसंबर में दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर खुलने ही वाले थे, तभी ओमिक्रॉन की छाया पड़ने लगी. हो सकता है कि एक साल और छात्रों को ऑनलाइन कक्षाओं का सहारा लेना पड़े.

कोरोना काल में तकनीकी कंपनियों के लिए शिक्षा जगत में विशाल बाजार खुल गया है. दुनियाभर में कई कंपनियां शिक्षा को ऑनलाइन करने में लगी हुई हैं क्योंकि यह क्षेत्र लाखों-करोड़ों डॉलर के सालाना व्यापार की संभावना जगाता है. तकनीक के सहारे कंटेंट से लेकर एप बनानेवाली कंपनियां शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए अनुबंधित कर रही हैं. कई देशों में सरकारें भी शिक्षकों के लिए ऑनलाइन प्रशिक्षण की व्यवस्था बना रही हैं. कुछ तकनीकी कंपनियां शिक्षकों की भूमिका को एक ‘रिसोर्स मैनेजर’ के तौर पर देख सकती हैं, जो जरूरत के अनुसार बने-बनाये कंटेंट को बच्चों के लिए उपलब्ध करा दें.

दुनियाभर में जब अर्थव्यवस्था सुस्त चाल से चल रही है, तब शिक्षा में तकनीक (जूम, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट आदि) वाली कंपनियों के शेयरों में बड़ी उछाल दर्ज हो रही है. जूम, गूगल क्लासरूम, माइक्रोसॉफ्ट टीम जैसे एप अब शिक्षक के लिए उपयोग होनेवाले कंप्यूटर और मोबाइल के आवश्यक तत्व बन चुके हैं. ट्यूटोरियल के लिए यूट्यूब ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कर ली है. महामारी का इतिहास यह संकेत देता है कि कोरोना का कहर साल दो साल में रुक जायेगा. लेकिन कोरोना ने शिक्षा के स्वरूप में जो बदलाव किया है, वह आगे भी बना रहेगा.

बिना कंप्यूटर और डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर वाले स्कूल के बच्चों के लिए चुनौतियां तो कम होती नहीं दिख रही हैं. जिन स्कूलों में अभी तक शिक्षकों और फर्नीचर की जरूरत पूरी नहीं हुई है, वहां के बच्चे 21वीं शताब्दी में शिक्षा के जरिये अपने लिए कैसा सुनहरा सपना बुनते हैं, यह शोध (और शायद क्षोभ!) का विषय होगा! जिन विश्वविद्यालयों में अभी हाइब्रिड मॉडल का अध्यापन भी शुरू नहीं हुआ, उनको आनेवाले दिनों में संसाधनों और छात्रों की कमी का सामना करना पड़ सकता है.

कोरोना महामारी के बाद के दिनों में विश्वविद्यालय कैसे होंगे, इसकी एक झलक पूर्वी चीन के एक शिक्षण संस्थान को देख कर मिल जायेगी. जहेजिंग विश्वविद्यालय मूलतः एक शोध संस्थान हैं और यहां संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा दूरस्थ शिक्षा का प्रयोग किया गया है. इस विश्वविद्यालय में ट्रांजिशन के दौरान शिक्षकों के लिए दो सौ से अधिक स्मार्ट क्लासरूम बनाये गये, जिनमें वीडियो बनाने, आवाज पहचानने और साथ ही अनुवाद करने की तकनीक समाहित की गयी है.

दो सप्ताह के भीतर ही यहां स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों के लिए पांच हजार कोर्स तैयार कर दिये गये. लाइव स्ट्रीमिंग के लिए एप बना दिये गये और देखते-देखते कोर्स हब में लगभग छह लाख लोगों ने विजिट किया और उनके ऑडियो एप पर तीन लाख लोग सुनने आ गये. तकनीक के प्रभाव से शिक्षा का जो स्वरूप आज उभर रहा है, उसकी व्यापकता के साथ पीछे छूट जानेवाले बच्चे और संस्थान कहां जायेंगे, इसका रास्ता साफ नहीं दिख रहा है. यह एक गंभीर सामस्या है. संकट शिक्षकों पर भी है और सरकारी शिक्षण संस्थानों पर भी. शिक्षा में बदलाव के लिए जरूरी है कि पहले इसका दार्शनिक और वैचारिक आधार तय किया जाये.

पिछले दशकों में शिक्षा में सुधार के जो प्रयोग हुए, उनसे हमने क्या सीखा है? शिक्षा में बदलाव के मौजूदा तरीके इस संक्रमण में कितने उपयोगी होंगे? शिक्षण-प्रशिक्षण में बदलाव के केंद्र में जो बच्चे, अभिभावक और शिक्षक हैं, क्या वे अपने स्कूल -विश्वविद्यालय के बारे में होनेवाले निर्णयों में शामिल रहते हैं? इन सवालों के जवाब शायद आनेवाले दिनों में शिक्षा की तस्वीर पर जमी धुंध को साफ करने में मददगार होंगे तथा शिक्षा के भविष्य को भी तय करेंगे. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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