जयंती : पीड़ा में आनंद के कवि थे हरिवंश राय बच्चन
Harivansh Rai Bachchan : ‘मधुशाला’ का प्रथम प्रकाशन अपने समय की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के हीरक अंक में हुआ था और अब वह देश व दुनिया की अनेक भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित हो चुकी है. उसके एक के बाद एक नये संस्करणों की बिना पर आज भी ‘बच्चन’ और ‘मधुशाला’ को एक-दूसरे का पर्याय बताया जाता है.
Harivansh Rai Bachchan : हिंदी के कवियों में अपनी मस्ती व मादकता के लिए अलग से पहचाने जाने वाले हरिवंश राय ‘बच्चन’ का जन्म 1907 में 27 नवंबर को संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) के प्रतापगढ़ जिले में स्थित बाबूपट्टी गांव के एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके बचपन का बड़ा हिस्सा बस्ती जिले की ऐतिहासिक राष्ट्रवादी रियासत अमोढ़ा की छांव में बीता था. अपनी बहुचर्चित आत्मकथा के ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ नामक खंड में उन्होंने खास तौर पर इसका जिक्र किया और लिखा है कि उनके पिता इस रियासत के कर्मचारी थे और वह उनके पुरखों की भूमि है. इस भूमि पर उनको इस कारण कुछ ज्यादा ही गर्व था कि 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ, तो अमोढ़ा रियासत ने उसे सफल बनाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था. स्वाभाविक ही उसे तत्कालीन गोरी सत्ता के अनेक कोप झेलने पड़े थे.
दिलचस्प यह कि अमोढ़ा में उनके पुरखे कायस्थ नहीं, ‘अमोढ़ा के पांडे’ कहलाते थे. उस वक्त उनके कुल की मान्यता थी कि उसका जो भी सदस्य शराब पियेगा, उसे कोढ़ हो जायेगा. संभवतः इसी मान्यता का प्रभाव है कि उन्होंने अपनी बेहद लोकप्रिय कविता पुस्तक ‘मधुशाला’ में ‘बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला’ का उद्घोष करने के बावजूद लिखा है कि मदिरा नामधारी द्रव को वे सिर्फ नाम से जानते हैं. यह और बात है कि उन्होंने यह घोषणा भी कर रखी है : ‘मैं कायस्थ कुलोद्भव मेरे पुरखों ने इतना डाला, मेरे तन के लोहू में भी पचहत्तर प्रतिशत हाला. पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आंगन पर, मेरे दादों परदादों के साथ बिकी थी मधुशाला.’ पर ऐसी घोषणाओं की बात करें, तो उनकी एक घोषणा यह भी है : ‘वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला, जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबित प्रतिपल, वह मेरा प्याला, मधुशाला वह नहीं जहां पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहां मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला.’
बहरहाल, उन्होंने जीवन भर साहित्य सृजन में लगे रह कर छोटी-बड़ी कुल मिलाकर पांच दर्जन पुस्तकें लिखी हैं. लेकिन कवि के तौर पर तो वे बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक की अपनी कालजयी काव्य कृति ‘मधुशाला’ से ही जाने जाते हैं. भले ही, वह उनकी पहली नहीं, दूसरी पुस्तक है.
‘मधुशाला’ का प्रथम प्रकाशन अपने समय की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के हीरक अंक में हुआ था और अब वह देश व दुनिया की अनेक भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित हो चुकी है. उसके एक के बाद एक नये संस्करणों की बिना पर आज भी ‘बच्चन’ और ‘मधुशाला’ को एक-दूसरे का पर्याय बताया जाता है. आलोचकों के अनुसार, हिंदी कविता के आकाश में बच्चन नाम के तारे का उदय हुआ, तो उस समय उत्तर छायावाद व प्रयोगवाद का बहुत जोर था. पर बच्चन ने अपनी इन दोनों से इतर पहचान बनायी. उमर खय्याम की रुबाइयों और सूफी मत से प्रभावित अपने हालावादी साहित्य की मार्फत अपने कई चहेतों की गलतफहमी के विपरीत, मदिरापान की हिमायत या प्रचार कतई नहीं किया. इसके विपरीत, उन्होंने जीवन की कटुताओं, विषमताओं, कुंठाओं, अतृप्तियों व विक्षोभों को प्रकट कर सफलतापूर्वक उन्हें मस्ती व मादकता में रूपांतरित किया और कहा : ‘पीड़ा में आनंद जिसे हो, आये मेरी मधुशाला!’ उनके द्वारा सरल भाषा में रची गयी सीधी-सपाट व प्रेरणादायी कविताओं ने उस वक्त की युवा पीढ़ी को जिंदगी के नये मायने दिये.
उनकी शुरुआती शिक्षा इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला में हुई, जहां उर्दू व हिंदी का प्रारंभिक ज्ञान पा लेने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया. फिर कैंब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी के सुविख्यात कवि ‘डब्ल्यूबी यीट्स’ की कविताओं पर पीएचडी. वे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी के विशेषज्ञ और राज्य सभा के मनोनीत सदस्य भी रहे. लेकिन ऐसा भी नहीं कि उनकी राहों में हमेशा गलीचे ही बिछे रहे हों. पहली पत्नी श्यामा की असामायिक मृत्यु के बाद उनका पारिवारिक जीवन तहस-नहस होकर रह गया था, जिससे वे खासे अवसादग्रस्त हो चले थे. लेकिन जल्दी ही अवसाद से उबरकर उन्होंने तेजी सूरी से दोबारा विवाह किया.
‘मधुशाला’ के अलावा उनकी लोकप्रिय रचनाओं में ‘निशा निमंत्रण’, ‘सतरंगिनी’, ‘खाड़ी के फूल’, ‘सूत की माला’, ‘सोपान’और ‘मिलन यामिनी’ नामक कविता संग्रहों के साथ ही उनकी आत्मकथा भी शामिल हैं. यह आत्मकथा ‘क्या भूलूं, क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ नामक चार खंडों में है. इनमें बेबाकी, साहस और सद्भावना से अपने जीवन का यथार्थ प्रस्तुत करने के लिए उन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित ‘सरस्वती सम्मान’, जबकि कविता संग्रह ‘दो चट्टानें’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार हासिल हुआ था. पद्मभूषण, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और एफ्रो-एशियाई सम्मेलन का कमल पुरस्कार भी उनके खाते में हैं. छियानबे वर्ष की उम्र में 18 जनवरी, 2003 को मुंबई में अपने निवास पर जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो हिंदी साहित्य ने मस्ती और मादकता का अपना अप्रतिम कवि खो दिया.
