मिट्टी में बढ़ते खतरनाक रसायन

हवा के साथ पूरी पारिस्थितिकी का चक्र बनाने वाले मिट्टी और पानी का जहरीला होना जैव विविधता के लिए भी एक बड़ा खतरा है, जिसके बिना कोई जीवन संभव नहीं है.

By हृदयेश जोशी | July 5, 2022 9:47 AM

पर्यावरण के कैनवास में प्रदूषण एक बड़ा शब्द है, लेकिन अक्सर बात वायु प्रदूषण तक ही सिमट कर रह जाती है. बेशक वायु प्रदूषण भारत समेत पूरे एशिया में स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े खतरों में है. लांसेट और स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर की रिपोर्ट बताती रही हैं कि दुनियाभर में हर साल होने वाली करीब 70 लाख मौतों के पीछे वायु प्रदूषण एक कारण होता है.

इनमें भारत का हिस्सा सबसे अधिक है, जहां हर साल 12 लाख से अधिक लोग वायु प्रदूषण से मर रहे हैं, पर यह भी सच है कि प्रदूषण पर होने वाली चर्चा जहरीली हवा की बंदी होकर रह गयी है, जबकि मिट्टी और पानी भी उतने ही प्रदूषित हैं. कुछ अपवादों को छोड़कर खबरिया चैनलों ने स्वास्थ्य, शिक्षा, महंगाई और रोजगार के साथ प्रदूषण जैसे मुद्दों को तिलांजलि दे दी है, वरना सरकार से यह सवाल जरूर पूछा जाता कि हमारे देश में मिट्टी में इतने खतरनाक रसायन क्यों भरे हैं और जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें पायदान पर क्यों हैं. हवा के साथ पूरी पारिस्थितिकी का चक्र बनाने वाले मिट्टी और पानी का जहरीला होना जैव विविधता के लिए भी एक बड़ा खतरा है, जिसके बिना कोई जीवन संभव नहीं है.

यह हैरानी की बात है कि हमारे देश में जहां कीटनाशकों के भारी इस्तेमाल के कारण मिट्टी और अनाज जहरीले हो गये हैं और हजारों गांव कैंसर हॉटस्पॉट में तब्दील हो रहे हैं. पंजाब के मालवा से चलने वाली कैंसर ट्रेन को याद करें. यहां आज भी 50 साल से अधिक पुराना एक नख-दंत विहीन कानून ही रसायनों का नियमन कर रहा है, जिसे इंसेक्टिसाइड कानून, 1968 कहा जाता है.

इस निर्जीव कानून के कारण कीटनाशक निर्माता कंपनियों पर कोई लगाम नहीं है. किसान कई बार इतने जहरीले कीटनाशक इस्तेमाल कर रहे हैं, जिनकी इजाजत श्रीलंका और बांग्लादेश में भी नहीं है. याद करें कि चार साल पहले महाराष्ट्र के यवतमाल में कीटनाशक छिड़कते 21 किसान मारे गये थे और 1000 से अधिक बीमार पड़े थे. जानकार बताते हैं कि किसानों के पास न तो सही कीटनाशक की पहचान का कोई तरीका होता है और न उन्हें इसकी जानकारी दी जाती है.

कर्ज से दबे किसान अक्सर कंपनी के एजेंटों के बताये कीटनाशक ही इस्तेमाल करते हैं और कीटनाशकों का अनियंत्रित बाजार फैलता जा रहा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2019-20 में पूरे देश में 60,599 टन रासायनिक कीटनाशक का छिड़काव हुआ था. केवल पांच राज्यों- महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, हरियाणा और पंजाब में ही इसकी 70 फीसदी (42,803 टन) खपत है.

डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में ही भारत का कीटनाशक बाजार 19,700 करोड़ रुपये का था. अक्तूबर, 2019 में करीब 300 कीटनाशक भारत में पंजीकृत हो चुके थे और यह माना जा रहा है कि आज यह मार्केट 31,600 करोड़ रुपये का होगा. हमारे देश में दर्जनों ‘क्लास-1’ रसायन (जिन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बेहद हानिकारक माना है) कीटनाशकों की स्वीकृत सूची में वर्षों तक रहे और उसका कुप्रभाव किसानों के स्वास्थ्य के साथ उपभोक्ताओं की सेहत पर पड़ा है.

हालांकि सरकार ने पिछले साल कई ऐसे रसायनों पर पाबंदी लगायी है, पर मोनोक्रोटोफॉस (जो क्लास 1-बी श्रेणी का रसायन है और यवतमाल में किसानों की मौत का कारण था) जैसे कुछ खतरनाक रसायन अब भी पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं हुए हैं, हालांकि सब्जियों में इसके इस्तेमाल पर रोक है. पहली बार 2008 में इसे संसद में पेश किया गया, लेकिन पारित नहीं हो सका. प्रस्तावित कानून- कीटनाशक प्रबंधन विधेयक, 2020- अभी भी लंबित है.

न केवल देश के तमाम हिस्सों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि है, बल्कि जो जल उपलब्ध है, उसकी गुणवत्ता बेहद खराब है. जल गुणवत्ता के मामले में भारत सबसे फिसड्डी देशों में है. आर्सेनिक और फ्लोराइड के कारण लोगों के अंग खराब हो रहे हैं और एक पूरी पीढ़ी के पंगु हो जाने का खतरा है. लखनऊ से लेकर कानपुर, इलाहाबाद, गाजीपुर, बलिया, आरा, बक्सर, पटना और भागलपुर से कोलकाता तक आर्सेनिक से लोग मर रहे हैं.

कई गांवों में जानते-बूझते लोग जहरीला पानी पी रहे हैं, क्योंकि उनके पास सुरक्षित पानी है ही नहीं. कई गांवों में लोगों ने अपनी बेटियों की शादी करना बंद कर दिया है. बिहार के गांवों में मुझे कई ऐसे युवा मिले, जो सेना और अन्य सुरक्षा बलों में सिर्फ मेडिकल पास न करने के कारण भर्ती से रह गये.

यही हाल फ्लोराइड पीड़ितों का है. मध्य प्रदेश के दो-तिहाई जिलों में फ्लोराइड की समस्या है, जहां पानी में इसकी मात्रा सुरक्षित सीमा से कई गुना अधिक है, लेकिन न तो सरकार के लिए पर्यावरण और स्वास्थ्य के ये सवाल अहम हैं और न मुख्यधारा कही जाने वाली मीडिया की इनमें दिलचस्पी है. पर्यावरण और सेहत के सवाल कभी-कभार खबर बनते हैं, जब राजधानी के पास पराली का धुंआ फैलता है या फिर इंसेफिलाइटिस जैसी बीमारी से कई बच्चों की जान जाती है. कोरोना ने हमें सिखाया है कि देश के मजबूत भविष्य के लिए पर्यावरण और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर पूरी ताकत से और लगातार लिखने-बोलने की जरूरत है. इसका कोई विकल्प हमारे पास नहीं है.

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