पुण्यतिथि विशेष : संपूर्ण क्रांति के स्वप्नदर्शी थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण
Jayaprakash Narayan : जेपी के शुरुआती जीवन पर जायें, तो स्वदेश में आरंभिक शिक्षा के बाद 1922 से 1929 तक उन्होंने अमेरिका में रहकर समाजशास्त्र में एमए किया और कैलिफोर्निया व विस्काॅन्सिन विश्वविद्यालयों की महंगी पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए खेतों, कंपनियों व रेस्टोरेंटों आदि में छोटे-मोटे काम किये.
Jayaprakash Narayan : लोकनायक जयप्रकाश नारायण की लंबी जीवन यात्रा में लोक के लिए प्रेरक प्रसंगों की कोई कमी नहीं है. परंतु हमारी आज की युवा पीढ़ी के कम ही सदस्य जानते होंगे कि उनके सार्वजनिक जीवन का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग उनके निधन से दो सौ दिन पहले, 23 मार्च, 1979 को घटित हुआ था. उस दिन हुआ यह कि जब वे गुर्दों की बीमारी से पीड़ित होकर मुंबई के जसलोक अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, आकाशवाणी ने अचानक खबर दी कि उनका निधन हो गया है.
खबर की पुष्टि के बगैर तत्कालीन लोकसभाध्यक्ष केएस हेगड़े ने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के हवाले से लोकसभा को भी उनके निधन की सूचना दे डाली और श्रद्धांजलियों व सामूहिक मौन के बाद सदन को स्थगित कर दिया. खबर सुनकर लोग अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन के लिए जसलोक अस्पताल पहुंचने लगे, तो जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर अस्पताल में ही थे. उन्होंने बाहर आकर लोगों से क्षमायाचना की और बताया कि लोकनायक अभी हमारे बीच हैं.
बहरहाल, जीते जी मिली संसद की इस ‘श्रद्धांजलि’ के बाद जेपी दो सौ दिनों तक हमारे बीच रहे और आठ अक्तूबर, 1979 को इस संसार को अलविदा कहा. वर्ष 1998 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया. इससे पहले 1974 में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मनमानियों के खिलाफ छात्र असंतोष के रास्ते शुरू हुए व्यापक आंदोलन का नेतृत्व किया. इसी दौरान पांच जून, 1975 को पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी रैली को संबोधित करते हुए ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया. यह आंदोलन चल ही रहा था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली लोकसभा सीट से प्रतिद्वंद्वी रहे राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाते हुए श्रीमती गांधी का निर्वाचन रद्द कर दिया.
इसके मद्देनजर 25 जून, 1975 को जेपी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में नागरिकों और सरकारी अमलों/बलों से उनके असंवैधानिक आदेशों की अवज्ञा की अपील कर दी, तो इंदिरा गांधी ने न केवल देश पर इमरजेंसी थोप दी, बल्कि जेपी समेत लगभग सारे विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया. उस उन्नीस महीने लंबे अंधेरे में जेपी ने इकलौते रोशनदान की भूमिका निभायी और 1977 में इंदिरा गांधी द्वारा कराये गये आम चुनाव में व्यापक विपक्षी एकता के सूत्रधार बने. फलस्वरूप वे करारी हार हारीं. गैर-कांग्रेसवाद का सिद्धांत भले ही डॉ राममनोहर लोहिया ने दिया था, उसकी बिना पर कांग्रेस की केंद्र की सत्ता से पहली बेदखली 1977 में जेपी के तत्वावधान में ही संभव हुई, जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता संभाली.
जेपी के शुरुआती जीवन पर जायें, तो स्वदेश में आरंभिक शिक्षा के बाद 1922 से 1929 तक उन्होंने अमेरिका में रहकर समाजशास्त्र में एमए किया और कैलिफोर्निया व विस्काॅन्सिन विश्वविद्यालयों की महंगी पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए खेतों, कंपनियों व रेस्टोरेंटों आदि में छोटे-मोटे काम किये. इस तरह एक साथ पढ़ाई व कमाई का साथ निभाते हुए वे कार्ल मार्क्स के समाजवाद से खासे प्रभावित हुए, जिसने उनकी आगे की वैचारिक दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. हालांकि उनके समाजवादी मानस के निर्माण का बड़ा श्रेय बिहार विद्यापीठ को दिया जाता है. मां की बीमारी के चलते पीएचडी करने का अपना इरादा अधूरा छोड़ जेपी अमेरिका से लौटे, तो स्वतंत्रता संग्राम को जैसे उनका ही इंतजार था.
वर्ष 1932 में इस संग्राम के महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू समेत ज्यादातर नेताओं को जेल में डाल दिया गया, तो जेपी ने देश के कई हिस्सों में उसके नेतृत्व का जिम्मा संभाला. लेकिन सितंबर, 1932 में मद्रास में उन्हें भी गिरफ्तार कर नासिक जेल में डाल दिया गया. इसी जेल में अनेक समाजवादी नेताओं से विचार-विमर्श कर उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन की भूमिका तैयार की, जिसने 1934 के चुनावों में भाग लेने के कांग्रेस के फैसले का कड़ा विरोध किया. वर्ष 1939 में उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध में जीत के अंग्रेजों के प्रयत्नों में बाधा डालने के लिए सरकार को किराया व राजस्व का भुगतान रोकने का अभियान चलाया. इस पर उन्हें नौ महीने की कैद की सजा सुनाई गयी.
वर्ष 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में उन्हें मुंबई की आर्थर रोड जेल में निरुद्ध किया गया, तो एक योजना के तहत वहां से फरार होकर ‘आजाद दस्तों’ के गठन व प्रशिक्षण के लिए वे नेपाल चले गये. सितंबर, 1943 में, पंजाब में एक रेल यात्रा के दौरान पुलिस ने उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया और अप्रैल, 1946 में उन्हें तब छोड़ा, जब गांधी जी ने साफ कह दिया कि उनकी रिहाई के बिना अंग्रेजों से कोई समझौता असंभव है. जेपी ने स्वतंत्रता के बाद राजनीति को लोकनीति में परिवर्तित करने के प्रयत्नों में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्नीस अप्रैल, 1954 को बिहार के गया में उन्होंने अपना जीवन सर्वोदय व भूदान आंदोलनों के लिए समर्पित कर दिया और चंबल के डकैतों के आत्मसमर्पण व पुनर्वास में भी अप्रतिम योगदान दिया.
