जयंती विशेष : अनासक्ति डॉ राजेंद्र प्रसाद के जीवन का पाथेय थी

Dr Rajendra Prasad : राष्ट्रपति बनने के बाद उनके और प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू के मतभेद कई बार सार्वजनिक हुए. सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के मामले में भी, हिंदू कोड बिल के मामले में भी, राजनीति में धर्म की भूमिका और भारतीय मानस को लेकर दृष्टिकोण के मामले में भी. पर उन्होंने इनमें से किसी भी मतभेद को व्यक्तिगत कटुता तक नहीं पहुंचने दिया.

By कृष्ण प्रताप सिंह | December 3, 2025 7:32 AM

Dr Rajendra Prasad : स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद कुल मिलाकर 12 वर्ष, तीन महीने और 17 दिन देश के सर्वोच्च पद पर कहें या राष्ट्रपति भवन में रहे. लेकिन उसके चाकचिक्य को एक पल के लिए भी अपने पास फटकने नहीं दिया और अनासक्त भाव से ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की राह पर चलते रहे. राष्ट्रपति बनने के दिन, यानी 26 जनवरी, 1950 को शपथ ग्रहण के बाद उन्होंने अपनी डायरी में लिखा- ‘आज यह क्या का क्या हुआ. मैं भारत का राष्ट्रपति हो गया और भारत स्वतंत्र सर्वशक्ति संपन्न प्रजातंत्रात्मक गणराज्य!’ लेकिन तभी उन्हें लगा कि वे कुछ ऐसा लिख गये हैं, जो अनुचित और अवांछनीय है. तब उन्होंने काट-छांट कर उसे इस रूप में लिखा- ‘आज यह क्या का क्या हुआ. भारत स्वतंत्र सर्वशक्ति संपन्न प्रजातंत्रात्मक गणराज्य हो गया और मैं उसका पहला राष्ट्रपति!’ यानी पहले राष्ट्र, फिर राष्ट्रपति.


छोटे-बड़े 300 से अधिक कमरों वाले विशाल राष्ट्रपति भवन में उनका निजी जीवन वैसा ही रहा, जैसा स्वतंत्रता संग्राम के समय आश्रमों में रहा करता था. इसलिए कई लोग उन्हें राजा जनक जैसा विदेह मानते थे. एक बार किसी ने पूछा कि वे राष्ट्रपति भवन के राजसी ठाठ-बाट के बीच ‘छपरा’ के निरीह किसान जैसे गंजी पहने और कंधे पर गमछा रखे कैसे बैठे रह पाते हैं, तो उनका उत्तर था, ‘मैं कैसे भूल सकता हूं कि मेरा सत्य रूप क्या है! मैं तो धरती का बेटा हूं.’ राष्ट्रपति के रूप में वे जैसी शालीनता से देश-विदेश के महामहिमों का स्वागत करते थे, उतनी ही ममता, स्नेह और वात्सल्य से दूर-दराज के गांवों से आये ग्रामीणों से भी मिला करते थे. एक बार उनकी बेटी अपने नन्हे बेटे के साथ राष्ट्रपति भवन में उनसे मिलने आयीं और कुछ देर रुक कर वापस जाने लगीं, तो नानासुलभ स्नेहवश उन्होंने उनके बेटे को एक रुपया दिया. यह बात बच्चे की नानी को अच्छी नहीं लगी, तो उन्होंने कहा, ‘गजब करते हैं आप. इतने ऊंचे ओहदे पर हैं, फिर भी नाती को एक रुपया दे रहे हैं?’ पर वे सहजता से बोले, ‘एक रुपया कम है क्या? तुम ही सोचो, कितना मेरा वेतन है और कितने इस देश में बच्चे हैं! सभी बच्चों को एक-एक रुपया दूं तो क्या मेरे वेतन से पूरा पड़ सकता है?’ सच पूछिए, तो उनका राष्ट्रपति भवन में होना भगवान राम के भाई भरत की याद दिलाता था.

यूं, राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी, अधिवक्ता, संविधान सभा व कांग्रेस के अध्यक्ष और पहले केंद्रीय कृषि मंत्री के तौर पर जो महनीय भूमिकाएं निभायीं, गांधीवादी मूल्यों को अगली पीढ़ियों की प्रेरणा बनाये रखने के जैसे बहुविध जतन किये और राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद सदाकत आश्रम में जैसा निर्लिप्त जीवन जिया, वह भी सत्ता के शिखर व ऐश्वर्य को लेकर उनकी अनासक्ति का ही परिचायक है.
प्रतिभा बचपन से ही उनकी संगिनी थी. इस कदर कि एक परीक्षा में उनके परीक्षक को मजबूर होकर उनकी उत्तरपुस्तिका में लिखना पड़ा था कि ‘एग्जामिनी इज बेटर दैन एग्जामिनर (परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है).’

युवावस्था में जब वे स्वतंत्रता संघर्ष की ओर अग्रसर होने की सोच रहे थे, तब उनका परिवार कई तरह की मुश्किलों का सामना कर रहा था. इसके चलते वे धर्मसंकट में फंस गये थे और समझ नहीं पा रहे थे कि परिवार की मुश्किलें आसान करने में लगें या स्वयं को स्वतंत्रता संघर्ष में झोंके. एक दिन उन्होंने अपना यह धर्मसंकट महात्मा गांधी के समक्ष रखा, तो महात्मा ने छूटते ही उनसे कहा, ‘तुम्हारा परिवार देश से अलग तो नहीं है. तुम यह समझकर देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ो कि तुम्हारा परिवार ही नहीं, सारा देश मुश्किलों में फंसा है, और इस लड़ाई में जो हाल सारे देश का होगा, वही तुम्हारे परिवार का भी हो जायेगा.’ यह सुनकर उनका समाधान होते देर नहीं लगी.


राष्ट्रपति बनने के बाद उनके और प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू के मतभेद कई बार सार्वजनिक हुए. सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के मामले में भी, हिंदू कोड बिल के मामले में भी, राजनीति में धर्म की भूमिका और भारतीय मानस को लेकर दृष्टिकोण के मामले में भी. पर उन्होंने इनमें से किसी भी मतभेद को व्यक्तिगत कटुता तक नहीं पहुंचने दिया. राष्ट्रपति के उनके दूसरे कार्यकाल की समाप्ति के अवसर पर 10 मई, 1962 को दिल्ली के रामलीला मैदान में उन्हें समारोहपूर्वक भावभीनी विदाई दी गयी.

समारोह के अंत में नेहरू समेत सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘मैं इस पद से मुक्त होते हुए ऐसा अनुभव कर रहा हूं जैसे पाठशाला से छुट्टी मिलने पर बालक को प्रसन्नता होती है.’ उन्होंने इसके आगे का अपना जीवन पटना के ऐतिहासिक सदाकत आश्रम में बिताया. राष्ट्रपति पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने स्वेच्छा से सार्वजनिक जीवन से अवकाश लेने की घोषणा कर दी थी और उनके भारत रत्न से विभूषित होने से पहले ही कृतज्ञ देशवासियों ने उन्हें अपने चहेते ‘राजेंद्र बाबू’ और ‘देश रत्न’ में बदल दिया था.