बांग्लादेश का भारत विरोधी अभियान बड़ा खतरा
Anti-India Campaign : अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने बार-बार शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग उठाकर भारत को बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति में विवादास्पद पक्ष के रूप में पेश किया है. यह रुख न केवल द्विपक्षीय संबंधों को बेहद तनावपूर्ण बना रहा है, बल्कि बांग्लादेश के भीतर भारत विरोधी भावनाओं को भी संगठित कर रहा है, जो खतरनाक है.
Anti-India Campaign : अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना पर भारत में कथित भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाते हुए बांग्लादेश ने हाल ही में ढाका में भारतीय उच्चायुक्त को जिस तरह तलब किया, वह दोनों देशों के कूटनीतिक संबंधों में तनाव का ताजा उदाहरण है. भारत ने स्वाभाविक ही इस पर तीखी प्रतिक्रिया जतायी है. गौरतलब है कि पड़ोसी बांग्लादेश फिलहाल अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे निर्णायक और अस्थिर दौर से गुजर रहा है.
आगामी 12 फरवरी को प्रस्तावित आम चुनाव, जिसे लोकतांत्रिक पुनर्स्थापना का माध्यम बनना चाहिए था, अब गंभीर अनिश्चितताओं, राजनीतिक बहिष्कार और वैचारिक ध्रुवीकरण के कारण अस्थिरता का स्रोत बनता दिख रहा है. इस चुनाव में बांग्लादेश की सबसे बड़ी और संगठित राजनीतिक शक्ति अवामी लीग को भाग लेने की अनुमति नहीं दी जा रही है.
परिणामस्वरूप राजनीतिक प्रतिस्पर्धा अब बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी, यानी बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी के बीच सिमट गयी है-ये वे दल हैं, जो अतीत में 2001 से 2006 के बीच सत्ता में साझेदार रह चुके हैं. बांग्लादेश में यह राजनीतिक टकराव केवल सत्ता संघर्ष नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर भारत की सुरक्षा, क्षेत्रीय स्थिरता और ऐतिहासिक संबंधों पर पड़ने वाला है. जुलाई-अगस्त, 2024 की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद शेख हसीना का सत्ता से हटना और भारत में शरण लेना बांग्लादेश की राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बन चुका है.
अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने बार-बार शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग उठाकर भारत को बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति में विवादास्पद पक्ष के रूप में पेश किया है. यह रुख न केवल द्विपक्षीय संबंधों को बेहद तनावपूर्ण बना रहा है, बल्कि बांग्लादेश के भीतर भारत विरोधी भावनाओं को भी संगठित कर रहा है, जो खतरनाक है. इसके अलावा यह भारत विरोधी विमर्श अब हाशिये पर मौजूद तत्वों तक सीमित नहीं रहा. नेशनल सिटिजन पार्टी के नेता हसनत अब्दुल्ला द्वारा ढाका के सेंट्रल शहीद मीनार में दिया गया बयान, जिसमें उन्होंने भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों को ‘सात बहनें’ कहकर उन्हें भारत से अलग करने की धमकी दी, बेहद चिंताजनक है.
इस पर वहां मौजूद भीड़ की तालियों से यह स्पष्ट हो गया कि कट्टर राष्ट्रवाद और आक्रामक भारत विरोधी विचारधारा को समाज के कुछ वर्गों में समर्थन मिल रहा है. पूर्वोत्तर के चार राज्य-असम, त्रिपुरा, मेघालय और मिजोरम बांग्लादेश से सीमा साझा करते हैं, लिहाजा ऐसे बयान राजनीतिक भाषण न रहकर सुरक्षा चेतावनी बन जाते हैं.
भारत के लिए यह स्थिति इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि 1990 के दशक के अंत और 2000 के शुरुआती वर्षों में कई उग्रवादी संगठनों ने बांग्लादेश की धरती का उपयोग भारत के उत्तर पूर्व में हिंसा फैलाने के लिए किया था. त्रिपुरा आधारित एनएलएफटी और एटीटीएफ जैसे संगठनों के साथ इस्लामी उग्रवादी संगठन हिज्ब-उत-तहरीर और जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश जैसी ताकतें सीमापार गतिविधियों में सक्रिय थीं. शेख हसीना के 2009 में सत्ता में लौटने के बाद बांग्लादेश ने इन संगठनों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की थी, जिससे भारत-बांग्लादेश सुरक्षा सहयोग नये स्तर पर पहुंचा. लेकिन वह विरासत आज गंभीर खतरे में दिख रही है.
अवामी लीग की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बीएनपी, जिसे जुलाई, 2024 के बाद उभरी प्रमुख राजनीतिक शक्ति माना जा रहा था, अब जमात-ए-इस्लामी के बढ़ते असर से असहज महसूस कर रही है. जनमत सर्वेक्षणों में दोनों के बीच अंतर लगातार कम हो रहा है, जिससे बीएनपी के भीतर चिंता बढ़ी है. यही नहीं, उसकी सर्वोच्च नेता खालिदा जिया जीवन रक्षक प्रणाली पर हैं और उनके पुत्र व कार्यकारी अध्यक्ष तारिक रहमान अब तक देश लौटे नहीं हैं. इस अस्थिर वातावरण में निर्दलीय उम्मीदवार शरीफ उस्मान हादी पर हुआ हमला एक और खतरनाक मोड़ साबित हुआ.
भारत विरोधी और अवामी लीग विरोधी बयानबाजी के लिए पहचाने जाने वाले हादी पर चुनाव कार्यक्रम घोषित होने के ठीक एक दिन बाद हमला होना अंतरिम सरकार की कानून-व्यवस्था बनाये रखने की क्षमता पर सवाल खड़े करता है. हमले के बाद बिना ठोस प्रमाण के हमलावरों के भारत भागने के आरोप लगाये गये, जिसे भारत ने सख्ती से खारिज किया. भारत ने स्पष्ट कर दिया कि वह बांग्लादेश में स्वतंत्र, निष्पक्ष और समावेशी चुनावों का समर्थन करता है और कभी भी अपनी भूमि का उपयोग बांग्लादेश विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा. हादी पर हमले के बाद आयोजित रैलियों में भारत और अवामी लीग को निशाना बनाकर जैसी आक्रामक भाषा का इस्तेमाल किया गया, उसने स्थिति को और विषाक्त बना दिया है.
शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग, भारतीय नागरिकों के वर्क परमिट रद्द करने की धमकी और भारत को हर राजनीतिक समस्या के लिए जिम्मेदार ठहराने की प्रवृत्ति इस बात का संकेत है कि चुनावी राजनीति अब राष्ट्रवादी उन्माद की दिशा में बढ़ रही है.
यह पूरी स्थिति ऐसे समय में सामने आयी, जब भारत विजय दिवस मना रहा था-1971 के युद्ध में मिली निर्णायक जीत की स्मृति में, जिसने बांग्लादेश के जन्म का मार्ग प्रशस्त किया था. एक ओर उस साझा इतिहास की विरासत है, तो दूसरी ओर आज उसी इतिहास को नकारने और विकृत करने की कोशिशें हो रही हैं. भारत के लिए यह केवल चिंता का विषय नहीं है, उसकी उत्तर-पूर्वी सुरक्षा, सीमा प्रबंधन, आतंकवाद विरोधी सहयोग और क्षेत्रीय संपर्क परियोजनाओं से सीधे जुड़ा रणनीतिक प्रश्न है.
बांग्लादेश की मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल आंतरिक सत्ता संघर्ष से कहीं अधिक है. यह पहचान, इतिहास और क्षेत्रीय दिशा को लेकर चल रही लड़ाई है. यदि भारत विरोधी और मुक्ति विरोधी शक्तियां इस संक्रमण काल में निर्णायक बढ़त हासिल कर लेती हैं, तो इसका असर सीमाओं से परे महसूस किया जायेगा. भारत को सार्वजनिक रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों और गैर-हस्तक्षेप की नीति पर कायम रहते हुए भी रणनीतिक सतर्कता बरतनी होगी.
दक्षिण एशिया की स्थिरता इस पर निर्भर करेगी कि बांग्लादेश इस नाजुक मोड़ को किस दिशा में पार करता है और मुक्ति संग्राम की अपनी आत्मा को बचाये रख पाता है या नहीं. जाहिर है, बांग्लादेश में मौजूदा भारत विरोधी माहौल जितना चिंताजनक है, उतना ही चिंताजनक यह है कि चुनाव के बाद वहां की स्थिति क्या होगी, क्योंकि पड़ोस में अस्थिरता भारत के लिए अच्छी नहीं हो सकती.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
