संसद तो चलनी ही चाहिए

राजनीतिक मतांतरों से बंटे इस देश में कम-से-कम एक मुद्दा तो अवश्य ही ऐसा है, जिस पर सभी भारतीय एकमत हैं और वह मुद्दा यह है कि संसद चलनी चाहिए. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के इस सर्वोच्च मंच की कार्रवाई बाधित होने की रोज-रोज की घटनाएं आम भारतीयों के मन में लोकतंत्र से ही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 7, 2016 2:06 AM

राजनीतिक मतांतरों से बंटे इस देश में कम-से-कम एक मुद्दा तो अवश्य ही ऐसा है, जिस पर सभी भारतीय एकमत हैं और वह मुद्दा यह है कि संसद चलनी चाहिए. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के इस सर्वोच्च मंच की कार्रवाई बाधित होने की रोज-रोज की घटनाएं आम भारतीयों के मन में लोकतंत्र से ही एक अलगाव सा पैदा किये दे रही हैं. सवाल अब यह नहीं रहा कि सत्तापक्ष तथा विपक्ष में जिम्मेवार कौन है. लोग तो अब बस यही पूछ रहे हैं कि इस अशोभनीय गतिरोध का क्या कोई समाधान नहीं निकल सकता?

यह सच है कि संसद का चलना सुनिश्चित करने की प्राथमिक जिम्मेवारी सत्तापक्ष की होती है. जब भाजपा विपक्ष में थी, तो वह यही बात दोहराते नहीं थकती थी. यह भी सही है कि जब संप्रग सरकार सत्ता में थी, तो भाजपा ने संसदीय गतिरोध पैदा करने का एक कीर्तिमान ही रच डाला था. तब दोनों सदनों में उसके नेताओं ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि संसद न चलने देना लोकतांत्रिक व्यवहार का एक वैध रूप है.

मेरी समझ से, वर्तमान गतिरोध भाजपा की एक शुरुआती गलती का ही नतीजा है, जो यह थी कि चालू सत्र के पहले ही दिन जब संसद ने नोटबंदी का ज्वलंत मुद्दा उठाया, तो प्रधानमंत्री वहां अनुपस्थित थे. राज्यसभा में यह बहस इस उम्मीद में आरंभ हुई कि इसमें प्रधानमंत्री भी हिस्सा लेंगे, जो अनुचित नहीं थी. प्रधानमंत्री ने स्वयं ही यह दूरगामी फैसला लेने की जिम्मेवारी स्वीकारी थी और 8 नवंबर को इसे खुद ही राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन पर घोषित भी किया था. इसलिए खासकर, जब संपूर्ण विपक्ष एक मत से सदन में उनकी उपस्थिति चाह रहा हो, तो यह अपेक्षा कोई अनुचित तो नहीं थी कि प्रधानमंत्री स्वयं इस बहस में भागीदारी करें. मगर, जब भोजनावकाश तक भी प्रधानमंत्री के दीदार न हुए, न ही सत्तापक्ष उनकी सहभागिता का कोई आश्वासन ही दे सका, तो स्वभावतः विपक्ष आक्रोशित हो उठा और उसने सदन की कार्रवाई ठप कर दी.

हालांकि, उसके बाद यह गतिरोध कई दिनों तक जारी रहा, पर ऐसा लगा, मानो विपक्ष की मांग न मानने को प्रधानमंत्री ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. अन्य किसी भी परिपक्व लोकतंत्र में एक ऐसे मुद्दे पर संसद में हो रही बहस में प्रधानमंत्री स्वयं ही उपस्थित रहना चाहेंगे, जिसने पूरे राष्ट्र पर एक गहरा असर डाला हो, खासकर तब, जब यह तथ्य उन्होंने विज्ञापित किया हो कि वह निर्णय उनका था. मसलन, ब्रिटेन में क्या कोई कल्पना भी कर सकता है कि ‘ब्रेक्जिट’ जैसी अहम बहस में प्रधानमंत्री स्वयं सत्तापक्ष की अगुआई नहीं करेंगे?

जहां तक मेरी जानकारी है, ऐसा कोई औपचारिक नियम नहीं, जो किसी बहस के दौरान प्रधानमंत्री की मौजूदगी बाध्यकारी बनाता हो, पर लोकतंत्र के आदर्श व्यवहारों का यह तकाजा है कि प्रधानमंत्री स्वयं ही इसके इच्छुक हों. मुझे पूरा यकीन है कि अटल बिहारी वाजपेयी समेत हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों ने विपक्ष द्वारा ऐसी मांग की प्रतीक्षा भी न की होती और उन्होंने बहस में आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप कर और अंत में उसका जवाब देकर अपनी मौजूदगी का एहसास कराया होता.

दूसरी ओर, मैं यह भी कहना चाहूंगा कि अंततः जब प्रधानमंत्री सदन में आये, तब यह विपक्ष के अपने ही हित में था कि वह सदन को चलने देता. तथ्य यह है कि बहस शुरू भी हुई, पर भोजनावकाश के बाद जब सदन में प्रधानमंत्री नहीं दिखे, तो विपक्ष ने आसन के समक्ष पहुंच कर एक बार फिर कार्रवाई बाधित कर दी. जब कई दिनों के गतिरोध के बाद प्रधानमंत्री आखिर फिर पहुंचे, तो विपक्ष अड़ गया कि पहले वे सदन के बाहर यह कहने के लिए माफी मांगें कि नोटबंदी के विरोधी उस फैसले का विरोध इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें उसके लिए ‘तैयार’ होने का मौका नहीं दिया गया. जैसी अपेक्षा थी, न प्रधानमंत्री ने माफी मांगी और न ही फिर से बहस शुरू हो सकी. लोकसभा में भी ऐसी ही स्थिति है, जहां विपक्ष एक ऐसे नियम के तहत बहस करने की मांग कर रहा है, जिसमें मतविभाजन जरूरी है और भाजपा वहां अपने विशाल बहुमत के बावजूद नहीं मालूम किस वजह से कतरा रही है.

वर्तमान गतिरोध दोनों ही पक्षों से परिपक्वता दिखाने की अपेक्षा करता है. पहली गलती प्रधानमंत्री तथा भाजपा की थी, पर जब मौका आया, तब विपक्ष को भी संयम बरतना चाहिए था, जो उसके ही हित में होता. स्वयं विपक्ष में रहने के वक्त संसद की कार्रवाई बाधित करने के अपने इतिहास को देखते हुए कम-से-कम भाजपा तो विपक्ष को उपदेश देने की स्थिति में नहीं है. लेकिन, कहीं-न-कहीं विपक्ष द्वारा भी यह महसूस करने की दरकार है कि जैसे को तैसा का यह खेल अब खत्म होना चाहिए; और नहीं तो इस एक वजह से कि भारतवासी अब संसद ही के लिए अपना सम्मान तथा विश्वास तेजी से खो रहे हैं. (अनुवाद : विजय नंदन)

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

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