अवध किसान आंदोलन का शताब्दी वर्ष

कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार kp_faizabad@yahoo.com अवध में 1919-20 में शुरू हुए ऐतिहासिक किसान आंदोलन का यह शताब्दी वर्ष है. इस अवसर पर देश को सात जनवरी, 1921 को रायबरेली जिले के मुंशीगंज में तत्कालीन अंग्रेज सरकार द्वारा अंजाम दिये गये किसानों के संहार की याद दिलाना बहुत जरूरी है, जिसे बर्बरता के लिहाज से […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 7, 2020 7:33 AM

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

अवध में 1919-20 में शुरू हुए ऐतिहासिक किसान आंदोलन का यह शताब्दी वर्ष है. इस अवसर पर देश को सात जनवरी, 1921 को रायबरेली जिले के मुंशीगंज में तत्कालीन अंग्रेज सरकार द्वारा अंजाम दिये गये किसानों के संहार की याद दिलाना बहुत जरूरी है, जिसे बर्बरता के लिहाज से ‘दूसरे जलियांवाला बाग कांड’ के रूप में जाना जाता है.

दरअसल, बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंत में अवध में अत्याचारी अंग्रेजी सत्ता, जमींदारों और तालुकेदारों के खिलाफ उग्र किसान आंदोलन भड़के, तो उनकी सबसे ज्यादा कीमत रायबरेली के किसानों ने ही चुकायी. इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में 1886 का कुख्यात अवध रेंट एक्ट था, जिसके तहत सूबे के बारह जिलों में जमींदारों व तालुकेदारों को किसानों को भूमि से बेदखल करने और मनमाना लगान बढ़ाने के अधिकार प्राप्त हो गये थे.

इसके बाद किसानों से जबरन हरी-बेगारी लेना और नजराना, हथियाना व मोटराना आदि वसूलना आम हो गया था और उनके सामने ‘न अपील, न दलील, न वकील’ की स्थिति आ खड़ी हुई थी.

इन हालात के खिलाफ आंदोलन 1919 के अंतिम माह में प्रतापगढ़ के रूरे गांव से शुरू हुआ, जिसने जल्दी ही रायबरेली मंे भी दस्तक दे दी. साल 1921 का वर्ष तो रायबरेली के किसानों के लिए जैसे नये संघर्षों का नया संदेश ही ले आया.

वे जिस भी बाजार या कस्बे में अपनी सभा करते थे, जमींदारों के गुर्गे वहां लूटपाट करने पहुंच जाते और पुलिस उसका इल्जाम किसानों पर मढ़कर उन्हें जेल भेज देती. फिर भी पांच जनवरी, 1921 को कोई तीन हजार किसानों ने चंदनिहा रियासत के बर्बर तालुकेदार त्रिभुवनबहादुर सिंह की कोठी घेर ली, तो उसने आंदोलित किसानों व उनके नेताओं को बात करने के बहाने अपने दरबार में बुलाकर डिप्टी कमिश्नर एजी शेरिफ को सूचना भिजवा दी कि वे वहां आगजनी व लूटपाट पर आमादा हैं.

शेरिफ ने वहां पहंुचकर किसान नेताओं-बाबा जानकीदास, पंडित अमोल शर्मा व चंद्रपाल सिंह- को पकड़वा लिया और आनन-फानन मंे मजिस्ट्रेट के सामने पेश करवाकर एक-एक वर्ष की कैद की सजाएं सुनवा दीं. फिर उन्हें रातोरात लखनऊ जेल भिजवा दिया.

इस सबसे उत्तेजित किसान अगले दिन फुरसतगंज में आयोजित सभा में बेसब्र होकर अपने नेता बाबा रामचंद्र की प्रतीक्षा कर रहे थे, तो एक छोटे से विवाद के बाद पुलिसबल ने इतनी जबरदस्त फायरिंग की कि अंग्रेजी अखबार ‘लीडर’ ने लिखा, ‘अनुमान लगाना कठिन है कि कितने किसान मरे और कितने घायल हो गये.’ लेकिन सरकारी रिपोर्टों के अनुसार छह किसान मारे गये और दर्जनों घायल हो गये.

इसी बीच न जाने कैसे एक बड़ी अफवाह फैल गयी कि तालुकेदार त्रिभुवन बहादुर सिंह की एक चहेती ने पुलिस से मिलकर चंदनिहा में गिरफ्तार किये गये किसान नेताओं की हत्या करा दी है. इस अफवाह का सच यह था कि प्रशासन डरा हुआ था कि उक्त नेताओं को रायबरेली जेल भेजा गया, तो किसान जेल पर धावा बोलकर उन्हें छुड़ा लेंगे. थोड़े दिनों पहले प्रतापगढ़ में वे ऐसा कर चुके थे. इसलिए उसने एहतियातन उन्हें लखनऊ जेल भेज दिया.

लेकिन, उसी दिन रायबरेली जेल से छूटे कुछ कैदियों ने किसानों को बताया कि उन नेताओं को तो वहां ले ही नहीं जाया गया, तब उनके सब्र का बांध टूट गया.

रायबरेली जेल पहुंचकर वस्तुस्थिति जानने की मुहिम के तहत सात जनवरी की सुबह उनके जत्थे सई नदी के उस पार से मुंशीगंज स्थित पुल के दक्षिणी किनारे पर पहुंचे, तो देखा कि प्रशासन ने वहां सेना तैनात कर उनका रास्ता रोक दिया है.

फिर भी वे डरे नहीं और अपने नेताओं को जिंदा या मुर्दा देखे बिना वापस न लौटने की जिद पर अड़े रहे. उनके जमावड़े से थोड़ी ही दूरी पर खुरेहटी के तालुकेदार और एमएलसी सरदार वीरपाल सिंह का महल था, जिसे अंदेशा था कि उग्र किसान जेल के साथ उसके महल पर भी धावा बोल सकते हैं.

अपराह्न तीन बजे के आस-पास किसानों के गगनभेदी नारों से भयभीत होकर उसने गोलियां चलानी शुरू कीं, तो सेना व पुलिस ने इसे अपने लिए संकेत समझकर उसका साथ देना शुरू कर दिया. जब तक उन्हें अपनी गलती मालूम होती, दस मिनट गुजर गये और अनेक किसानों की लाशें बिछ गयीं. कहते हैं कि उस दिन सई नदी की रेती व पानी किसानों के खून से लाल हो गयी थी.

किसानों का संहारक प्रशासनिक अमला जानता था कि इसकी खबर फैलेगी, तो पहले से ही भड़के हुए किसानों के गुस्से का पारावार नहीं रह जायेगा. हालात बेकाबू न हो जायें, इस डर से वह बिना देर किये अनेक किसानों की लाशें फौजी वाहनों से डलमऊ ले गया और गंगा में फेंक आया.

कारण यह कि सई नदी में उन्हें छिपाने भर को पानी ही नहीं था. जो लाशें नहीं ले जायी जा सकीं, उन्हें चार बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर वहीं दबा दिया गया. इस नरसंहार में शहीद व घायल हुए किसानों की सही संख्या का आधिकारिक तौर पर आज तक पता नहीं लग पाया है.

गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने ऐतिहासिक पत्र ‘प्रताप’ में अग्रलेख लिखकर इस किसान संहार को ‘एक और जलियांवाला’ की संज्ञा दी थी. उनके अनुसार, ‘वहां (जलियांवाला में) एक घिरा हुआ बाग था, जबकि यहां (रायबरेली में) सई नदी का किनारा, जहां क्रूरता, निर्दयता और पशुता की मात्रा में किसी प्रकार की कमी नहीं थी.’

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