श्रीलंका से तालमेल जरूरी

डॉ गुलबिन सुल्ताना श्रीलंका मामले की विशेषज्ञ, आईडीएसए delhi@prabhatkhabar.in भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में गोताबाया राजपक्षे राष्ट्रपति बन गये हैं. गोताबाया भी उसी राजपक्षे परिवार से हैं, जिससे पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे आते हैं. ये महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई हें. गोताबाया राजपक्षे श्रीलंका के आठवें राष्ट्रपति हैं. श्रीलंका पोडुजना […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 20, 2019 8:19 AM
डॉ गुलबिन सुल्ताना
श्रीलंका मामले की विशेषज्ञ, आईडीएसए
delhi@prabhatkhabar.in
भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में गोताबाया राजपक्षे राष्ट्रपति बन गये हैं. गोताबाया भी उसी राजपक्षे परिवार से हैं, जिससे पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे आते हैं. ये महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई हें.
गोताबाया राजपक्षे श्रीलंका के आठवें राष्ट्रपति हैं. श्रीलंका पोडुजना पेरमुना (एसएलपीपी) पार्टी के गोताबाया राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनावों में जीत के बाद कहा कि अब हम श्रीलंका के लिए एक नयी यात्रा शुरू करते हैं, और हमें यह याद रखना चाहिए कि श्रीलंका के सारे नागरिक इस यात्रा का प्रमुख हिस्सा हैं. यह एक राजनीतिक बयान है. अब इनका कार्यकाल कैसा होगा, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा, लेकिन इतना जरूर है कि श्रीलंका की पिछली सरकारों की नीतियां और गतिविधियां भारत के नजरिये से सकारात्मक नहीं रही हैं.
बहुत से लोगों को लगता है कि श्रीलंका से लिट्टे के खत्म होने के बाद वहां आतंकवाद पूरी तरह से खत्म हो गया, लेकिन इसी साल अप्रैल में हुए सीरियल बम धमाकों ने इस बात को नकार दिया. दरअसल, श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय में रक्षा सचिव के पद पर रहते हुए गोताबाया ने कुछ अच्छे काम किये थे, जिससे श्रीलंका में आतंकवाद उभरने नहीं पाया.
इसमें दो राय नहीं कि साल 2005 में रक्षा सचिव बनने के बाद लिट्टे के खात्मे में गोताबाया की अहम भूमिका थी. उस समय गोताबाया के बड़े भाई महिंदा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति थे. उस दौरान गोताबाया ने सुरक्षा की व्यवस्था को चाकचौबंद किया और श्रीलंका में कोई आतंकवादी गतिविधि न होने पाये, इसका भी इंतजाम किया था.
लेकिन, उस दौरान उन्होंने कुछ ऐसी नीतियां भी बनायी थीं, जो मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन करती थीं. इसके लिए गोताबाया की काफी आलोचना भी हुई थी और उन्हें इस उल्लंघन का आरोपी तक माना गया था. साल 2015 तक वे रक्षा सचिव रहे. लेकिन उसके बाद श्रीलंका में सुरक्षा के साथ समझौते हुए और वहां स्थितियां ऐसी बन गयीं कि आतंकवादी हमले तक हो गये. गोताबाया की जीत में यह भी एक बड़ा फैक्टर रहा है.
एसएलपीपी के गोताबाया राजपक्षे की सोच एक तरह से अमेरिका विरोधी रही है. वहीं एसएलपीपी एक राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में भी जानी जाती है.
यही वजह है कि चुनावों के दौरान गोताबाया की पार्टी ने आतंकवाद को भुनाया, जिसका उन्हें फायदा भी मिला है. गोताबाया के पहले श्रीलंका में संप्रभुता के साथ खूब खिलवाड़ किया गया, जिसमें अमेरिकी संस्थाओं का दखल बढ़ गया था. इसके खिलाफ भी गोताबाया की पार्टी खड़ी हुई और उसने संप्रभुता के मुद्दे को उछाला.
इस साल अप्रैल में हुए हमले के पहले श्रीलंका सरकार और अमेरिका के बीच एक सैन्य समझौता होनेवाला था और एक आर्म डील साइन होनेवाली थी, जिसके बाद श्रीलंका को सामरिक संसाधन उपलब्ध होता. उस समय राष्ट्रवादी पार्टियां उस डील का विरोध कर रही थीं. हालांकि उससे पहले हमला हो गया और वह डील नहीं हो पाया. गोताबाया राजपक्षे ने इस मसले को चुनाव में उठाया था और श्रीलंका के लोगों को संप्रभुता से समझौता न होने देने का वादा किया.
जाहिर है, किसी भी पड़ोसी देश की संप्रभुता के कमजोर या मजबूत होने का असर उसके पड़ोसी देशों पर भी पड़ता है. इसलिए भारत को गोताबाया को बधाई देने के साथ ही अपने द्विपक्षीय संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए नये सिरे से सोचना होगा. गोताबाया की जीत में भले ही वहां के आंतरिक फैक्टर काम आये हैं, लेकिन इसमें एक और फैक्टर चीन का भी है, जिसकी ओर ध्यान देना बहुत जरूरी है.
साल 2005 से 2015 के बीच गोताबाया के श्रीलंका का रक्षा सचिव रहने के दौरान श्रीलंका का रुख चीन के तरफ झुकने लगा था. श्रीलंका एक संप्रभु राष्ट्र है, वह अपने लिए कोई भी नीति बना सकता है.
एक संप्रभु राष्ट्र को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसकी नीतियों का उसके पड़ोसी देशों पर नकारात्मक असर न पड़े. इस बात का श्रीलंका ने ध्यान नहीं दिया और पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे पूरी तरह से चीन की तरफ हो गये थे. इस दौरान श्रीलंका ने अपने पड़ोसी भारत की खूब अनदेखी की.
यही वजह है कि अब गोताबाया के राष्ट्रपति बनने के बाद यह आशंका बलवती हो गयी है कि भारत-श्रीलंका संबंधों में क्या कुछ होगा. लेकिन, बीते समय के अनुभव यही बताते हैं कि अब फिर से श्रीलंका की विदेश नीति में चीन की तरफ झुकाव देखने को जरूर मिलेगा. यही वह बात है, जो भारत के नजरिये से ठीक नहीं है. क्योंकि भारत उसका बड़ा पड़ोसी देश है और भारत-श्रीलंका रिश्तों के अपने वृहद आयाम भी रहे हैं, जिसमें कुछ साल पहले चीन ने सेंध लगाकर श्रीलंका को अपनी ओर खींच लिया था.
चुनावों के पहले महिंदा राजपक्षे जब भी भारत आकर यहां के नेताओं से मिले और उस समय उन्होंने इस बात को माना कि भारत के संबंध में उन्होंने कुछ गलतियां की हैं, जिससे दोनों देशों के रिश्ते पर असर पड़ा. फिर आश्वासन भी दिया कि अगर वे सत्ता में आते हैं, तो आगे ऐसी गलतियां नहीं होंगी और भारत एवं चीन को लेकर एक बैलेंस पॉलिसी को लेकर श्रीलंका आगे बढ़ेगा. लेकिन, इन बातों में कितना भरोसा है, यह इस बात से भी देखा जाना चाहिए कि अब श्रीलंका किस नीति पर चलता है.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि राजपक्षे परिवार तमिल िवरोधी है, और गोताबाया राजपक्षे की नीति कभी श्रीलंका के अल्पसंख्यकों (तमिल और मुस्लिम) के पक्ष में नहीं रही है. हो सकता है कि यह श्रीलंका का अंदरूनी मामला हो, लेकिन भारत और श्रीलंका के द्विपक्षीय संबंधों के आयाम को देखते हैं, तो इसमें भारत पर असर होता दिखता है. दोनों देश पड़ोसी हैं, इसलिए अगर वहां तमिलों को लेकर कोई नकारात्मक गतिविधि उत्पन्न होती है, तो जाहिर है इसका सीधा असर भारत में बसनेवाले तमिलों पर भी पड़ेगा. यह स्थिति श्रीलंका और भारत के आर्थिक, सामाजिक और कूटनीतिक संबंधों पर असर लायेगी ही.
फिलहाल, भारत की यह कोशिश होनी चाहिए कि गोताबाया राजपक्षे और श्रीलंका सरकार के साथ हमेशा एक तालमेल हो, ताकि श्रीलंका का जो चीन की तरफ झुकाव है, उसको अपनी तरफ मोड़ा जा सके. क्योंकि चीन की यह कोशिश है कि सभी देशों को अपने साथ करके दक्षिण एशिया में अपनी ताकत मजबूत करे. भारत के नजरिये से इस स्थिति पर नजर बनाये रखने के लिए भी श्रीलंका से तालमेल बिठाना होगा और द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाना होगा.

Next Article

Exit mobile version