वह एक कमरे की जिंदगी

नाजमा खान पत्रकार nazmakhan786@gmail.com उस गली से गुजरते हुए मेरी नजर चोर बन जाती थीं और बचते-बचाते उस एक कमरे के भीतर जहां तक देख सकती थी, उसके जुगाड़ में लग जाती. मैं अपनी सुबह की कैब उस कोने के घर से गुजरनेवाली गली के आखिर से लेती थी. पर जाने क्यों वह कमरा मुझे […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 13, 2019 6:12 AM
नाजमा खान
पत्रकार
nazmakhan786@gmail.com
उस गली से गुजरते हुए मेरी नजर चोर बन जाती थीं और बचते-बचाते उस एक कमरे के भीतर जहां तक देख सकती थी, उसके जुगाड़ में लग जाती. मैं अपनी सुबह की कैब उस कोने के घर से गुजरनेवाली गली के आखिर से लेती थी. पर जाने क्यों वह कमरा मुझे अपनी तरफ खींचता था.
मैं गली और कमरे के दरम्यान उन चार सीढ़ियों को लांघ कर उस घर में दाखिल होना चाहती थी, पर क्यों इसका जवाब तो मेरे पास नहीं था, बस यूं ही शायद मैं उस एक कमरे की जिंदगी को देखना चाहती थी, जानना चाहती थी कि कैसे कोई कुछ गज जमीन में अपनी दुनिया बसा लेता है? और बगैर शिकायत के उसमें अपनी पूरी जिंदगी काट देता है? मैं महल में नहीं रहती हूं, पर जाने क्यों उस बेनूर सी जिंदगी में एक कशिश थी.
सुबह जब मैं वहां से गुजरती, तो कोई चार-छह बरतन लिए कमरे के बाहर बने चबूतरे पर घिस रहा होता था और जब शाम के वक्त मैं वापस आती, तो उसी चबूतरे को कोई अपना हमाम बनाये दिखता. वह भले ही एक बाल्टी पानी से नहाता था, पर जिस बेधड़क अंदाज में खड़े होकर अपने सिर पर पानी डालता, वह उस गली से गुजरनेवालों के लिए शॉवर जरूर बन जाता. झल्ला कर भला-बुरा भी कहता, पर वह अनसुना करके गुटखे से लाल-पीले अपने दांतों को चमका कर हंसता रहता. वह ऐसा शायद जान-बूझकर करता था.
छुट्टी के दिन मैनें कई बार देखा कि सुबह बरतन घिसनेवाली एक महिला एक ऐसे शख्स का हाथ पकड़ कर उसे चबूतरे पर बिठा रही होती, जो देख नहीं सकता था. उन आंखों का भावशून्य मुझे झकझोर देता था, वह इस दुनिया में होकर भी इस दुनिया से दूर लगता था, जाने उसकी वह दुनिया कैसी थी? सच कहूं, उसका एकटक एक ही दिशा में देखते रहना मुझे बहुत असहज कर देता था.
वह एक कमरे की जिंदगी कैसी थी? न दुनिया का होश न बाकी कोई खबर कि वे लोग इंसान कम, किसी उपन्यास के पात्र ज्यादा लगते थे.
वे एक ऐसे कमरे में रहते थे, जो बाहर से जितना दिखायी देता था, शायद उतना ही अंदर से भी था. कहते हैं कि यह दुनिया बहुत बड़ी है, पर इस दुनिया में उस एक कमरे की जिंदगी सोचने पर मजबूर करती है कि क्या कुछ लोग ऐसी जिंदगी जीते-जीते ही इस दुनिया से रुखसत हो जायेंगे?
एक कमरे की जिंदगी जीनेवाले वह इकलौता परिवार नहीं है, दुनिया भरी पड़ी है ऐसी जिंदगियों से, जो एक कमरे से फैलकर चबूतरे तक जाती है और फिर दरवाजे पर लगे पर्दे के गिरने पर कमरे के अंदर ही सिमट जाती है.
उस कमरे की जिंदगी को मैं अंदर से देखना चाहती थी, पर मैं कतराने लगी. कोशिश करती हूं कि किसी दूसरी गली से घूमकर अपनी कैब तक जाऊं. मुझे उस वक्त दहश्त होती है, जब उस न देख पानेवाले आदमी के चेहरे पर मुस्कुराहट होती है. आखिर उसके हंसने का सबब क्या है? क्या वह किसी खुशी की बात पर हंसता है या फिर बैठे-बैठे उसके चेहरे पर आयी मुस्कुराहट उस एक कमरे की जिंदगी को न देखने की तसल्ली होती है?

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