नयी नीति और किसानों के सवाल

योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com बच्चा अभी हुआ नहीं, लेकिन लड्डू तीन बार खा लिये. किसानों को फसल का सही भाव देने के बारे में मोदी सरकार ने यही किया है. अभी तक एक भी किसान को बढ़ा हुआ रेट मिला नहीं है. लगता नहीं है कि ज्यादातर किसानों को मिलेगा, लेकिन तालियां तीन […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 21, 2018 12:56 AM
योगेंद्र यादव
अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
yyopinion@gmail.com
बच्चा अभी हुआ नहीं, लेकिन लड्डू तीन बार खा लिये. किसानों को फसल का सही भाव देने के बारे में मोदी सरकार ने यही किया है. अभी तक एक भी किसान को बढ़ा हुआ रेट मिला नहीं है. लगता नहीं है कि ज्यादातर किसानों को मिलेगा, लेकिन तालियां तीन बार पिट गयीं, बधाई के पोस्टर होर्डिंग लग गये, लड्डू खा लिये. पहली बार लड्डू एक फरवरी को खाये, जब अरुण जेटली ने सरकार के इस ‘ऐतिहासिक’ फैसले की घोषणा की. लड्डू की मिठास में यह कड़वा सच छुप गया कि वित्त मंत्री ने लागत की परिभाषा ही बदल दी थी और अपने मूल वायदे से मुकर गये थे.
दूसरी बार लड्डू चार जुलाई को खाये, जब सरकार ने इस साल खरीफ की फसल के रेट में ‘ऐतिहासिक’ बढ़ोतरी की घोषणा की. फिर लड्डू के बोझ में यह सच दब गया कि इससे ज्यादा चुनावी रेवड़ी तो पिछली सरकार 2009 में बांट चुकी थी. तीसरी बार लड्डू पिछले हफ्ते बांटे गये, जब कैबिनेट ने सरकारी खरीद की वार्षिक नीति की घोषणा की. बेचारे मंत्रियों ने मोदीजी को बधाई दी. फिर भक्तों ने मीडिया में गुणगान किया. किसान फिर टकटकी लगाये देखता रहा कि कब उसे अपनी मेहनत का फल मिलेगा!
दरअसल, सरकारी खरीद की नयी व्यवस्था का वायदा वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी को अपने बजट भाषण में ही किया था. तभी उन्होंने नीति आयोग को जिम्मेदारी दी थी कि वह जल्द ऐसी व्यवस्था सुझाए, जिससे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ मिल सके. उसके बाद रबी की फसल बिक गयी और खरीफ की बिक्री की शुरुआत हो गयी.
तब जाकर सरकार ने नयी नीति की घोषणा की. कायदे से सरकार को माफी मांगनी चाहिए थी कि जो काम सात हफ्ते में हो सकता था, उसमें सात महीने लगा दिये. जब तक सरकारी फाइल दिल्ली से स्थानीय मंडी तक पहुंचेगी, तब तक अधिकांश किसानों की फसल बिक चुकी होगी.
इतनी देर बाद आयी नीति में एक ही नयी बात है. पहली बार सरकार ने यह माना है कि फसलों का एमएसपी घोषित करनेभर से किसान को कुछ मिल नहीं जायेगा. यह भी माना है कि अब तक सरकार भले ही 24 फसलों का दाम घोषित करती थी, लेकिन खरीद सिर्फ दो-तीन फसलों की होती थी, लेकिन गलती मानने से तो किसान का पेट भरेगा नहीं! सवाल है कि ऐसी व्यवस्था कैसे बने, जिससे किसान अपनी पूरी फसल सरकारी एमएसपी पर तो बेच सकें?
प्रधानमंत्री मोदी ने इस नीति को नाम दिया है ‘प्रधानमंत्री आशा’, लेकिन अगर इसे गौर से देखें, तो इस ‘आशा’ में केवल निराशा ही हाथ लगेगी. अब सरकारी खरीद तीन में से किसी एक तरीके से होगी. पहला तो पुराना सरकारी खरीद का तरीका है. इसके तहत सरकार राशन की दुकान में बांटने के लिए अनाज खरीदती है या फिर मूल्य समर्थन योजना के तहत, जहां भी किसी फसल का बाजार भाव एमएसपी से नीचे गिरता है, तो सरकार उसकी खरीद शुरू करती है.
सात महीने के बाद सरकार ने तय किया कि इस साल भी यही तरीका इस्तेमाल किया जायेगा. बदलाव सिर्फ यह है कि सरकार ने अपने बजट में किये मजाक का सुधार करते हुए इस खरीद के लिए 200 करोड़ रुपये की बजाय अब लगभग 16,000 करोड़ रुपये देने का फैसला किया है. यह घोषणा भी की है कि सरकारी खरीद करनेवाली एजेंसियां अब बैंकों से 45,000 करोड़ रुपये लोन ले सकेंगी, लेकिन इसमें सरकार ने सिर्फ गारंटी दी है, अपनी जेब से कुछ नहीं दिया.
वास्तव में यह राशि भी ऊंट के मुंह में जीरा है, क्योंकि अगर सरकार सभी फसलों का एमएसपी पर खरीद के बारे में गंभीर है, तो उसे कम-से-कम डेढ़ से दो लाख करोड़ रुपये का इंतजाम करना चाहिए. इस बार भी यह सच छुपा लिया गया कि केंद्र सरकार किसी भी फसल के कुल उत्पाद का सिर्फ 25 प्रतिशत खरीदने में ही राज्य सरकार का सहयोग करेगी. बाकी 75 प्रतिशत खरीदना राज्य सरकार का सर-दर्द बना रहेगा. जाहिर है, न राज्य सरकारों के पास पैसे होंगे न किसान की फसलों की पूरी खरीद की जायेगी.
केंद्र सरकार ने प्रयोग के तौर पर दो अलग तरीकों की घोषणा भी की है, लेकिन इनसे भी किसान को फायदा नहीं होगा. पहली, मध्य प्रदेश की बुरी तरह फेल हो चुकी भावांतर योजना है. योजना यह थी की किसान बाजार भाव पर फसल को बेचे, और अगर बाजार भाव एमएसपी से कम हो, तो उस अंतर की भरपाई सरकार करेगी.
लेकिन भावांतर योजना में किसान को उसको स्वयं मिले दाम की बजाय उसकी मंडी और आस-पड़ोस की मंडियों के औसत दाम और एमएसपी में अंतर के हिसाब से पेमेंट किया गया. इससे किसान को भारी नुकसान हुआ. उधर इस योजना का फायदा उठाने के लिए व्यापारियों ने रातोंरात फसलों के दाम गिरा दिये और बाद में जमकर मुनाफा कमाया.
दूसरा, सरकार की तरफ से एमएसपी पर खरीद का काम निजी व्यापारी करेंगे. खरीद, ढुलाई, भंडारण, बिक्री सब उनकी जिम्मेदारी होगी. सरकार इसके बदले उन्हें 15 प्रतिशत तक शुल्क देगी. सवाल है कि अगर फसल का बाजार भाव एमएसपी से काफी कम होगा, तो कोई व्यापारी उसे क्यों खरीदेगा? किसान आंदोलनों ने मांग की थी कि इसके बदले सरकार यह नियम बना दे कि किसी भी व्यापारी के लिए एमएसपी से नीचे खरीदना अपराध माना जायेगा. इस पर केंद्र सरकार चुप है. कई किसान संगठनों को आशंका है कि पिछले दरवाजे से सरकार फसलों की खरीद के काम का भी निजीकरण कर रही है.
इस नयी नीति से सबसे बड़ी निराशा यह है कि इसमें सरकारी खरीद के सबसे बुनियादी सवालों को छूआ तक नहीं गया है. कुछ हिस्सों को छोड़कर देश के अधिकांश इलाकों में जब सरकारी खरीद की सुचारु व्यवस्था ही नहीं है, तो किसान अपनी फसल किसे बेचेगा? नीति में इसका कोई उपाय नहीं सुझाया गया. ठेके और बटाई पर खेती करनेवाले बहुसंख्यक किसानों के लिए अपनी फसल एमएसपी पर बेचने की कोई व्यवस्था नहीं सोची गयी है.
लगता यही है कि एक बार फिर कुर्सियां लड्डू खा जायेंगी और किसान मुंह ताकता रह जायेगा. जिस दिन सरकार इस ‘ऐतिहासिक’ निर्णय की घोषणा कर अपनी पीठ थपथपा रही थी, उस दिन महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की मंडियों में मूंग की फसल आ चुकी थी. मूंग का एमएसपी है ₹6,975 रुपये, लेकिन सरकारी वेबसाइट के मुताबिक यह मंडी में 3,900 से 4,400 के बीच बिक रही थी. मूंग के लड्डू तो कड़वे हो गये, क्या बाकी लड्डुओं की मिठास किसान के घर पहुंच पायेगी?

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