हितों के टकराव और नैतिकता

वरुण गांधी सांसद, भाजपा साल 1990 की बात है. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के प्रमुख सचिव रहे बीजी देशमुख ने प्रधानमंत्री से पूछा था कि क्या वह सेवानिवृत्ति के बाद एक बड़ी निजी कंपनी में नौकरी कर सकते हैं- उन्होंने दशकों सरकारी नौकरी की थी और चाहते थे कि इजाजत मिल जाये, तो अब बाहर निकलकर […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 19, 2018 12:47 AM
वरुण गांधी
सांसद, भाजपा
साल 1990 की बात है. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के प्रमुख सचिव रहे बीजी देशमुख ने प्रधानमंत्री से पूछा था कि क्या वह सेवानिवृत्ति के बाद एक बड़ी निजी कंपनी में नौकरी कर सकते हैं- उन्होंने दशकों सरकारी नौकरी की थी और चाहते थे कि इजाजत मिल जाये, तो अब बाहर निकलकर कॉरपोरेट भूमिका निभाएं. दरअसल, हितों के टकराव के मुद्दे को स्वाभाविक रूप से भ्रष्टाचार से जोड़कर देखा जाना चाहिए. पश्चिमी देशों में हितों के टकराव का मतलब सरकारी अधिकारियों द्वारा निजी लोगों के पक्ष में अधिकारों का दुरुपयोग करना है (टिम लंकास्टर, ओईसीडी, 2007). ब्रिटेन के इतिहास में लंबे समय से शासक और उसके अधिकारियों में हितों का टकराव व्यापक स्तर पर फैला था- हर कोई मानकर चलता था कि नेता अपनी स्थिति का लाभ उठायेगा.
साल 1660 में महान वृत्तांतकार और सुधारवादी रॉयल नेवी के लिए काम करनेवाले सैमुअल पेपीज पर भी आरोप लगा कि वह तस्करी में शामिल थे. हालांकि समय के साथ हालात में बदलाव आया.
स्वतंत्र न्यायपालिका की मौजूदगी में प्रभावशाली मीडिया ने कार्यपालिका की शक्ति और इसके संभावित दुरुपयोग पर लगाम लगायी. शिक्षा के प्रसार ने लोगों को उनके अधिकारों को लेकर ज्यादा जागरूक किया और राष्ट्रीय ऑडिटर दफ्तर की स्थापना ने सरकार में भ्रष्टाचार पर रोक लगायी है. बीसवीं सदी आने तक भ्रष्टाचार में काफी कमी आयी.
दूसरी तरफ पूर्वी गोलार्ध के देश जापान में ‘अमाकुदारी’ सिस्टम है, जिसमें सिविल सेवा से वरिष्ठ अधिकारी की सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें उनके कार्यकाल में की गयी ‘कड़ी मेहनत’ के एवज में निजी सेक्टर में आरामदायक पदों पर बिठा दिया जाता है.
अमेरिका में निर्वाचित राष्ट्रपति को (मौजूदा राष्ट्रपति के हितों के टकराव का मामला फिलहाल छोड़ दें) सैद्धांतिक रूप से अपना निवेश अज्ञात ट्रस्ट में रखना होता है. इसमें उनकी जीवनभर की कमाई एक ट्रस्ट में रहती है और राष्ट्रपति के पद छोड़ने तक एक अजनबी द्वारा इसका प्रबंधन किया जाता है.
हमारे यहां पता नहीं कहां से यह परंपरा बन गयी है कि कुछ नौकरशाह नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने में कारोबारियों का पक्ष लेते हैं और फिर सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हीं कंपनियों में नौकरी कर लेते हैं. और जब व्हिसल ब्लोअर सवाल पूछते हैं, तो ‘विकास-विरोधी’ और ‘निवेश-विरोधी’ कहकर उनको निशाना बनाया जाता है.
भारत में किसी नौकरशाह का नियामक के तौर पर काम करना और फिर उसका उसी क्षेत्र की कंपनियों के बोर्ड में शामिल हो जाना एक सामान्य बात है.
हमारे पास कार्मिक मंत्रालय द्वारा नियंत्रित एक आधिकारिक नीति है, जिसके अनुसार वरिष्ठ नौकरशाहों को सेवानिवृत्ति के बाद व्यावसायिक नौकरी करने से पहले अनुमति लेनी होती है- हालांकि कूलिंग-ऑफ पीरियड में ऐसी अनुमति किसी संहिताबद्ध व्यवस्था के अभाव में मुख्यतः सरकार के विवेकाधिकार पर निर्भर करती है. पूर्व में सरकार ने ऐसे आवेदनों पर उदार रवैया अपनाया है.
उदाहरण के लिए एक पूर्व राजस्व सचिव को, एक नहीं बल्कि पांच-पांच कंपनियों में अलग हैसियत से पद संभालने की अनुमति दी गयी. एक पूर्व ट्राई (टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया) प्रमुख को सेवानिवृत्ति के चंद महीनों के भीतर ही एक कुख्यात कॉरपोरेट लॉबीइस्ट द्वारा शुरू की गयी फर्म ज्वाॅइन करने की अनुमति दी गयी. एक केंद्रीय वित्त सचिव ने जब एक भारी-भरकम पैकेज पर ऑटोमोबाइल कंपनी ज्वाॅइन की, तो इससे शक पैदा हुआ कि यह भुगतान उनकी योग्यता से ज्यादा उनके प्रभाव के चलते दिया गया.
यह गलत नहीं है अगर तजुर्बेकार नौकरशाहों की महारत को निजी क्षेत्र में इस्तेमाल करने दिया जाता है. दरअसल, एक तरफ राजनेताओं को चुनावी टेस्ट से गुजरना होता है, उनको निजी क्षेत्र में नौकरी की अनुमति दिये जाने पर जनता इनको खारिज कर सकती है, लेकिन दूसरी तरफ नौकरशाहों पर ऐसा कोई दबाव नहीं है.
ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिसमें हितों के टकराव के बारे में नहीं बताया जाना दंडनीय अपराध हो. ईएमएस नचिप्पन का प्राइवेट मेंबर बिल (2012) कहता है, कानून के दायरे में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका समेत प्रशासन की सभी शाखाएं शामिल की जानी चाहिए. कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग परस्थायी संसदीय समिति (रिपोर्ट संख्या-60, 3 मई, 2013) की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि किसी पर सेवानिवृत्ति के बाद हितों के टकराव का आरोप साबित हो जाये, तो उसे नौकरी से हटा दिया जाये. इस सुझाव को लागू करना जरूरी है.
अनिवार्य कूलिंग-ऑफ पीरियड को पांच साल किया जाना जरूरी है, ताकि सेवानिवृत्त नौकरशाह द्वारा अनुचित असर न डाला जा सके. निजी कंपनी से जुड़ने के आवेदन को खारिज किये जाने पर कारण भी स्पष्ट बताये जाने चाहिए. सरकार द्वारा निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को नौकरशाही में लिए जाने के मामले में भी यही नियम पालन किया जाना चाहिए. ऐसा न करने पर अमेरिका जैसा हाल होगा, जहां हर काम के लिए लॉबीइस्ट रखनेवाली कंपनियों के काम को, उनकी तुलना में जो लॉबीइस्ट नहीं रखते, जल्दी मंजूरी मिल जाती है.
इन सबके साथ पारदर्शिता की परंपरा भी स्थापित करनी होगी. सिर्फ संसदीय प्रतिनिधियों के लिए, जनता की पहुंच से दूर, एक रजिस्टर बना देना ही काफी नहीं है. नौकरशाह- सेवा में हों या सेवानिवृत्त- को अपनी सेवानिवृत्ति के बाद की योजनाओं के बारे में सार्वजनिक रूप से बताना होगा.
उनके द्वारा अपने हित की सार्वजनिक घोषणा किये जाने से स्थिति साफ होगी, जिससे उनके नजरिये को ठीक से समझा जा सकेगा. सबके लिए खुला, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डाटा प्लेटफॉर्म पर सिविल सेवा के बाद किये जानेवाले काम का ब्योरा उपलब्ध होने से पारदर्शिता बढ़ेगी. अगर हम कॉरपोरेट जगत पर हितों के टकराव, उपभोक्ता निगरानी व्यवस्था, क्रेडिट रेटिंग एजेंसी के मार्फत निगरानी रखते हैं, तो यही चीज प्रशासन में भी लागू हो.
हमें व्यावसायिक हितों में स्वच्छता लानी होगी, अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी और ऐसे हितों के टकराव पर नैतिकता को प्राथमिकता देनी होगी. सोच में ऐसे बदलाव के बिना भारत के समाज, प्रशासन और निजी क्षेत्र को भीतरघात से कभी आजादी नहीं मिल सकेगी.

Next Article

Exit mobile version