पत्रकारिता के मायने

उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने पत्रकारिता के एक सम्मान समारोह में अपने बीज-वक्तव्य में याद दिलाया है कि बहस-मुबाहिसा, चर्चा और संवाद तथा मतभेदों के बीच सहमति बनाना संसदीय लोकतंत्र को जीवंत बनाये रखने के लिहाज से बड़ा अहम है. लोकतंत्र संख्या बल को सत्ता बल में बदलने की युक्ति नहीं, बल्कि एक-दूसरे के मत […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 22, 2017 6:00 AM
उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने पत्रकारिता के एक सम्मान समारोह में अपने बीज-वक्तव्य में याद दिलाया है कि बहस-मुबाहिसा, चर्चा और संवाद तथा मतभेदों के बीच सहमति बनाना संसदीय लोकतंत्र को जीवंत बनाये रखने के लिहाज से बड़ा अहम है.
लोकतंत्र संख्या बल को सत्ता बल में बदलने की युक्ति नहीं, बल्कि एक-दूसरे के मत और मन को समझते और सराहते हुए आपसी भेदों के बीच राष्ट्र-निर्माण की इच्छा से साथ चलने की प्रतिज्ञा का भी नाम है.
चूंकि सार्वजनिक हित के मसलों पर चर्चा, बहस और विचार के आदान-प्रदान की मुख्य भूमिका मीडिया निभाता है, इसलिए उपराष्ट्रपति ने पत्रकारिता के निष्पक्ष और तटस्थ होने पर जोर दिया है. एक ऐसे समय में, जब पत्रकारिता विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रही है, उपराष्ट्रपति की सीख एक सामयिक चेतावनी की तरह ली जानी चाहिए. पुराने समय से यह समझ चली आ रही है कि ‘सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस/ राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास’.
अर्थ बड़ा स्पष्ट है कि मंत्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से, हित की बात न कहकर, प्रिय बोलते हैं, तो राज्य, शरीर एवं धर्म- तीनों का शीघ्र नाश हो जाता है. मानस की इस सीख में आये ‘गुरु’ शब्द का अर्थ-विस्तार करते हुए अगर उसके दायरे में शिक्षा, पत्रकारिता जैसे बौद्धिक कर्म को शामिल मान लें, तो कहा जा सकता है कि पत्रकारिता को लोभ या भय को परे रखते हुए लोकतंत्र में सत्ता के आगे सच कहने की अपनी समयसिद्ध भूमिका निभानी होगी.
यह सिर्फ नैतिकता और मर्यादा के अनुरूप होने के साथ व्यावहारिक भी है. राजसत्ता को सुचारू रूप से चलाने के लिए सूचनाओं का स्वतंत्र प्रवाह आवश्यक है. इस तरफ ध्यान दिलाते हुए अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा है कि जिन व्यवस्थाओं में मीडिया स्वतंत्र नहीं है, वहां नीतियों की सामयिक समीक्षा और आलोचना नहीं हो पाती. ऐसे में जनता का अहित करनेवाली नीतियां जारी रहती हैं और इसका खामियाजा सभी को भुगतना पड़ सकता है.
प्रोफेसर सेन ने चीन के 1959-61 के अकाल का उदाहरण दिया है, जिसमें तकरीबन तीन करोड़ लोग मौत के शिकार हुए. चीन में उस वक्त सिर्फ खाद्यान्न के उत्पादन में गिरावट के कारण ही अकाल की हालत पैदा नहीं हुई थी, बल्कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में राशनिंग के तहत खाद्यान्न वितरण के लिए जो तरीका अपनाया गया, वह भी ग्रामीणों के प्रति भेदभाव भरा था.
समय रहते ऐसी नीति की समीक्षा और आलोचना न होने की कीमत चीन के लोगों ने जान देकर चुकायी. उम्मीद की जानी चाहिए कि उपराष्ट्रपति की बातों के नैतिक आग्रह और व्यावहारिक तकाजों को सामने रखते हुए मीडिया जगत सत्ता के सामने सच कहने की अपनी भूमिका पहले की तुलना में ज्यादा कारगर तरीके से निभायेगा.

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