””भारतीय राजनीति का नया कारपोरेट अध्याय””
– हरिवंश – हर दिल्ली यात्रा एक नया लेशन (पाठ) है. दिल्ली सज रही है. संवर रही है. सुंदर हो रही है. फ्लाईओवर की संख्या बढ़ रही है. यूरोप, अमेरिका की तर्ज पर नये कंस्ट्रक्शन हो रहे हैं. भौतिक कलेवर (फीजिकल एपियरेंस) निखर रहा है. बदल रहा है. पूंजी बोलती दिखाई देती है. महंगे पांच […]
– हरिवंश –
हर दिल्ली यात्रा एक नया लेशन (पाठ) है. दिल्ली सज रही है. संवर रही है. सुंदर हो रही है. फ्लाईओवर की संख्या बढ़ रही है. यूरोप, अमेरिका की तर्ज पर नये कंस्ट्रक्शन हो रहे हैं. भौतिक कलेवर (फीजिकल एपियरेंस) निखर रहा है. बदल रहा है. पूंजी बोलती दिखाई देती है.
महंगे पांच सितारा होटलों की बढ़ती तादाद, एक से एक महंगी गाड़ियों की लंबी होती कतारें, दुकानें, बाजार, मॉल, बिल्डिंगों के नये आर्किटेक्ट, रंग-रोगन, लुक (दृश्य), भारतीय नहीं, पश्चिमी है. एशिया के अन्य देशों में भी ऐसा हो रहा है. दिल्ली की निरंतर बनती चौड़ी सड़कों, सुंदर फ्लाईओवर्स और मेट्रो रेल वगैरह देखता हूं, तो चंद्रशेखर जी का सुनाया एक प्रसंग याद आता है.
1973-74 की बात है. सांसदों की एक टीम पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर गयी थी. ‘गरीबी हटाओ’ के रथ पर इंदिरा जी को भारी विजयश्री मिल चुका था. तब मिजोरम-मणिपुर के युवकों ने चंद्रशेखर जी से पूछा, आप बतायें ब्रह्मपुत्र नद (ब्रह्मपुत्र नदी नहीं, एकमात्र नद माना-कहा गया है) पर कितने पुल बने हैं?
उत्तर-पूर्व के राज्यों में आवागमन के लिए कितने पुल हैं? करोड़ों-करोड़ जनता के लिए एक पुल. पर दिल्ली के शासकों के लिए रोज सुविधाएं? दिल्ली का यह बदलाव? रोज दिल्ली में हम छात्र नये फ्लाईओवर्स बनते देखते हैं? दिल्ली और देश में यह दूरी क्यों? यह सवाल अकसर चंद्रशेखर जी सभाओं में सुनाया-उठाया करते थे. चंद्रशेखर जी ने कहा, यह सवाल सुन कर हम सांसद खामोश हो गये.
क्योंकि यह महज एक सवाल नहीं था. देश की दृष्टि, पूरी राजनीति के चिंतन, एटीट्यूड और हम पर (जो देश का दिल्ली में रह कर प्रतिनिधित्व करते हैं) बड़ा प्रश्न था? उन्होंने लौट कर इंदिरा जी को यह प्रसंग सुनाया. इसकी गहराई बतायी. तब दिल्ली कम से कम ऐसे सवाल सुनती थी. 1995 के बाद उन्होंने इस बढ़ती क्षेत्रीय विषमता पर काफी काम कराया. खुद एक लंबा अध्ययन पत्र लिखा. लोकसभा में उठाया. पर 91 के बाद तेज रफ्तार से जमीनी सवाल दिल्ली की राजनीति से गायब हो गये हैं.
बहरहाल, दिल्ली प्रतिबिंब है, देश की. मुल्क की ‘मेनस्ट्रीम’ राजनीतिक धारा की. सत्ता राजनीति के चाल, चलन और चिंतन की. 91 के पहले (उदारीकरण) दिल्ली (यानी राजनीति), मुंबई को नियंत्रित करती थी. अब मुंबई (यानी पूंजी), दिल्ली (राजनीति) को नियंत्रित कर रही है. पूंजी (मुंबई) के अनेक रूप हैं. पूंजी विशेषज्ञ या मार्क्सवादी या संघ के स्वदेशीवादी, इसे अलग-अलग फिकरों और मुहावरों में परिभाषित करते हैं. भारतीय राजनीति में देशज मुहावरा विकसित करने या गढ़ने का काम तो समाजवादियों ने किया.
अब यह पूंजी अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, आवारा, पालतू, थैली वगैरह नामों से परिभाषित होती है. पर कुल मिला कर ‘कारपोरेट कल्चर’ इसकी उपज है. और इस कल्चर का राज चलेगा, तो कानून का राज नहीं रहेगा. बड़ी कंपनियों, बड़े कारपोरेट हाउसों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एमएनसीज) का बोलबाला होगा.
और दिल्ली की इस बदली व नयी राजनीति की झलक इस बार की दिल्ली यात्रा में मिली. ‘द इकॉनामिक टाइम्स’ (11 जुलाई 08, दिल्ली) की छह कॉलम की लीड खबर का शीर्षक था.
‘पीएम में ब्रोकर पीस डील बिट्विन अंबानीज’ (प्रधानमंत्री, अंबानी बंधुओं के बीच शांति मध्यस्थता कर सकते हैं). खबर का उप शीर्षक था. ‘गर्वमेंट टाप गंस ट्राइंग टू वर्क आउट एट लीस्ट ए टेंपररी ट्रूस बिटविन द बैरिंग ब्रदर्स’ (सरकार के आला लोग झगड़ते अंबानी बंधुओं के बीच अस्थायी युद्ध विराम की रणनीति बना रहे हैं).
बार-बार यह खबर पढ़ता-गुनता रहा. प्रधानमंत्री का यह काम है? इसके पहले कभी किसी प्रधानमंत्री ने (भारत में) यह काम किया है? क्या दो झगड़ती कंपनियों को नियंत्रित करने के लिए देश के कानून पर्याप्त नहीं हैं? कानून भी हैं और इंस्टीट्यूशंस (नौकरशाही, न्यायपालिका, प्रशासन वगैरह) भी हैं. पर असल बात है कि राजनीति बंधक है, गिरवी है, कारपोरेट हाउसों के हाथ. यही राजनीति स्वतंत्र ढंग से संस्थाओं को काम नहीं करने देती.
देश में महंगाई की भयावह स्थिति है. हर रोज महंगाई सुरसा की तरह बढ़ रही है. प्रधानमंत्री खुद अर्थशास्त्री हैं. चिदंबरम कुशल आर्थिक प्रबंधक. अहलूवालिया विदेश पलट अर्थशास्त्री हैं. कमलनाथ जैसे माहिर उद्योगपति हैं.
ये देश के नीति-नियंता हैं. पर, महंगाई लोगों को मार रही है. पर सरकार के आला लोग महंगाई नियंत्रण के हल में नहीं लगे हैं, अंबानी बंधुओं का झगड़ा उनके लिए अहम सवाल है. यह ताजा नेशनल एजेंडा है. इन वामपंथियों से भी लोगों को पूछना चाहिए, जब महंगाई बढ़ रही थी, तब तो आप सरकार के साथ थे? सुख भोग रहे थे. आरोप है कि चीन की राजनीति कर रहे थे. लेकिन हैवनाट्स (गरीबों) की राजनीति करनेवालों ने महंगाई मुद्दे पर सरकार नहीं गिरायी? जिस क्यूक्लीयर मुद्दे से सीधे जनता का सरोकार नहीं, उस पर सरकार गिरा रहे हैं? यही नया प्रोपीपुल चरित्र है? यह नया जनवाद है?
दरअसल यह राजनीति का नया रूप है. भारतीय राजनीति का ‘नया कारपोरेट अध्याय’. 91 के बाद जो बदलाव शुरू हुए, अब वे ‘पीक’ (शीर्ष) पर हैं. इस नयी राजनीति में विचार, इश्यू (मुद्दे), विचारधारा, अब राजनीति के उद्गम स्थल या जड़ नहीं हैं. पूंजी, कारपोरेट हाउसों के आपसी द्वंद्व, अराजनीतिक विचारधारा, जड़हीन दलाल- जैसे तत्व इस राजनीति की दिशा तय कर रहे हैं. और इस नयी राजनीति के ‘राष्ट्रीय सिंबल’ हैं, अमर सिंह.
अब अमर सिंह, एक व्यक्ति नहीं, विशेषण हैं. धारा हैं. हर शहर, गांव, जिला, राजधानी से देश की राजधानी तक अमर सिंह मिलेंगे. हर पेशे में. राजनीति (हर दल में) में तो ‘अमर सिंह’ बनने की ही होड़ है. चाहे दल कोई भी हो. अमर सिंह ‘आइकॉन’ हैं. पत्रकारिता (मीडिया) में भी, दिल्ली से राज्य की राजधानियों, जिलों तक ‘अमर संस्कृति’ जवानी पर है. इस संस्कृति के नायकों के पास अनीति से आयी (दलाली) बेशुमार दौलत है.
इनका जनता से सीधे सरोकार नहीं है. ये पिछले दरवाजे से राजनीति ‘मैनेज’ करते हैं. पहले (91 के पहले) राजनीति के पीछे ये चलते थे. अब राजनीति इनके पीछे चलती है. ये मूल्यहीन हैं. इसलिए हरसंभव अनीति से कामयाब होने की फितरत इनमें है. ये कानून को नचाते हैं. सरकार की नीतियों से खेलते हैं.
बात-बात में वित्तीय, उद्योग या अन्य महत्वपूर्ण नीतियां बनवाते-बिगाड़ते हैं.
लगभग तीन वर्ष पहले एचडी शौरी ने तीन किस्तों में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लंबा लेख लिखा था. यह लेख ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट पर आधारित था. रिपोर्ट का एक तथ्य था कि भारतीय कंपनियों (कारपोरेट हाउसों) ने सरकार की नीतियों को बदलवाने-बनाने वगैरह में ऊपर से नीचे तक लगभग 22000 करोड़ रुपये घूस (या कमीशन) में खर्च किये. दरअसल यह नया ताकतवर राजनीतिक दलाल वर्ग, अनीति की इसी पूंजी के गर्भ से जन्मा है. इसलिए जनता से, देश की मिट्टी से इसका संपर्क, सीधा संवाद या सरोकार नहीं है.
यह वर्ग पूंजी के लिए, पूंजी द्वारा (जन्मा) और पूंजी से है. और यह राजनीति आज भारत की नियति से मुठभेड़ कर रही है. माफ करिएगा, पंडित जी! (जवाहरलाल नेहरू जी), उन्होंने भारत की आजादी पर ‘नियति से मुठभेड़’ ऐतिहासिक भाषण दिया था. आज इस नियति का चरित्र बदल गया है.
और भारत की इस नयी नियति से मुठभेड़ करनेवाली संस्कृति के नायक अमर सिंह हैं. आजादी की रात ‘नियति से मुठभेड़’ की पुरानी संस्कृति के नायक ‘नेहरू’ थे. नेहरू जी प्रतीक हैं.
उस राजनीति के, जिसकी जड़ें भारत की जमीन में थीं. जो विदेश में पढ़ कर, पल-बढ़ कर भी ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (भारत की खोज) से प्रेरित था. याद करिए, अरविंद, सुभाष, गांधी, नेहरू वगैरह से अधिक पश्चिमी मूल्यों में कौन पगा, पढ़ा, पला और बढ़ा था? पर सचमुच ये ‘भारतीयता’ के प्रतीक बने. अब ‘अमर संस्कृति’ के नायक खांटी देशज मिट्टी में ही जन्मे हैं. पले, बढ़े हैं.
गांवों से आते हैं. अंगरेजी भी नहीं बोलते. पर पांच सितारा जीवन जीते हैं. बिना श्रम अपार संपत्ति के जनक हो जाते हैं. कोई लोक, लाज नहीं.
पश्चिमी संस्कृति के सबसे बड़े पोषक. आजादी मिलते ही नियति से मुठभेड़ आधी रात को हुई थी. तब नेताओं के तप, त्याग, बलिदान, विचारों की दृढ़ता, चरित्र की ऊंचाई और नैतिक आभा से उस आधी रात में भी भारतीय आजादी का उजास, यश और रोशनी दुनिया ने देखा. आर्नाल्ड टायनबी को तो पश्चिम की संकटग्रस्त दुनिया के लिए यह नयी रोशनी लगी. पर, आज यह नयी नियति से मुठभेड़, दोपहर में हो रही है. दिन में. खुलेआम. क्या यही ‘डार्कनेस एट नून’ (दोपहर में अंधेरा) नहीं है?
और यह धारा समझनी हो, तो अमर सिंह को समझना होगा. यूपीए सरकार या सोनिया सरकार के नये ‘संकट मोचक’ कौन हैं? अमर सिंह. प्रधानमंत्री कार्यालय से राष्ट्रपति भवन तक उनका चेहरा, बयान और उपस्थिति, देश देख रहा है. भारतीय लोकतंत्र के तीन सबसे ताकतवर केंद्र कौन हैं? संसद, प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन. अमर सिंह सांसद हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन में उनकी उपस्थिति, चेहरा, अखबारों या मीडिया की सुर्खियां हैं.
भारत की राजनीतिक दुनिया और कारपोरेट दुनिया को एक कर देनेवाले. राजनीतिक टीकाकार राजदीप सरदेसाई के अनुसार पत्रकारिता के मुहावरे में कहें, तो पेज वन (राजनीति के गंभीर मुद्दों से आशय) और पेज तीन (फिल्मी शोपीस, प्लेवाय या बड़ी महंगी पार्टियों की तसवीरें) की दूरी पाटनेवाले. एक तरफ अमिताभ, अनिल अंबानी के मित्र, फिल्मों में रोल करनेवाले. शिल्पा शेट्टी के साथ होली खेलनेवाले. और संकट में मनमोहन सरकार को उबारनेवाले भी. कल तक कांग्रेस और सोनिया गांधी को पानी पी-पी कर आलोचना करनेवाले. बिना रंग बदले अब रातोंरात कांग्रेस के पैरोकार भी. और यह सब देशहित में.
और जब से वे ‘देशहित’ या ‘केंद्र सरकार’ बचाओ की भूमिका में हैं, क्या-क्या चीजें हो रही हैं? मुकेश अंबानी, कल तक कांग्रेस के प्रिय थे. पर अचानक कस्टम विभाग ने उनके दो निजी जहाजों को सीज कर (पकड़) लिया. क्यों? आरोप था कि ये जहाज मंगाये गये, यात्री विमान के रूप में इस्तेमाल करने के लिए, पर हो रहा है, इनका निजी इस्तेमाल? ये विमान वर्षों पहले मंगाये गये थे.
पर जब अमर सिंह, कांग्रेस या केंद्र सरकार के नजदीक हुए , तभी अचानक कार्रवाई क्यों? यह गणित समझ से परे है? मुकेश अंबानी समूह ने विमान मंगाने का लाइसेंस इसी यूपीए सरकार से लिया. उस वक्त यूपीए सरकार ने यह ‘फेवर’ क्यों दिया? इतने दिनों तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई? देश के लिए इसका मैसेज (संदेश) क्या है?
अगर आप सत्ता के प्रिय हैं, तो सौ खून माफ. सत्ता खुद खतरे में होगी, तो कानून लागू होगा? सत्ता अपनी जान के लिए निर्दोष को भी बलि देगी? दूसरा संदेश, मुकेश अंबानी समूह ने अगर यह गलती की, तो उस पर कार्रवाई तब हुई, जब यूपीए ने अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए सौदेबाजी की. जनता के लिए इसका अर्थ? अगर आप ताकतवर हैं, कानून तोड़ हैं, अपराध कर रहे हैं और सत्ता के प्रिय पात्र हैं, तो कुछ नहीं होगा. आपको तभी सजा होगी, जब सत्ता गंठजोड़ में शामिल राजनीतिक दल मुद्दा बनायेगा.
कांग्रेस से सटते ही अमर सिंह (या समाजवादी पार्टी) का चार्टर अॅाफ डिमांड क्या था? वह सूची पढ़ें, तो साफ हो जायेगा कि मुकेश अंबानी समूह के खिलाफ यह मांग पत्र था. सूचना है कि पेट्रोलियम मंत्रालय, कामर्स मिनिस्ट्री और वित्त मंत्रालय वगैरह इन मुद्दों पर गंभीरता से गौर कर रहे हैं. इन्हें पढ़ने से लगता है कि केंद्र सरकार ने नीतिगत स्तर पर अनेक बड़े फेवर मुकेश अंबानी ग्रुप को दे रखा है. अब उनका विरोधी ग्रुप अनिल अंबानी समूह के दबाव पर यह वापस हो रहा है.
क्या सरकार कोई गेंद है, जिसे कारपोरेट हाउसों के इशारे पर खेला जायेगा? यानी सरकार अपनी ताकत एक समूह के खिलाफ तब लगायेगी, जब दूसरे समूह के समर्थक राजनीतिक दल से सौदेबाजी होगी? सरकारें, जब व्यक्ति या संस्था के खिलाफ निजी आग्रह- दुराग्रह से कार्रवाई करने लगे, तो वे अपनी साख खो बैठती है. यह सवाल उठेगा कि मुकेश अंबानी समूह अगर गलत था, तो किन कारणों से उसे अब तक संरक्षण मिलता रहा? क्या सरकारें, सुविधानुसार किसी को सजा देंगी या माफ करेंगी? क्या सरकारों का काम यही रह गया है? क्या कानून, संविधान, सार्वजनिक जीवन में मर्यादा वगैरह है या खुला खेल फर्रूखाबादी है?
दरअसल राजनीतिक दल परिवारों की कंपनी बन गये हैं. कांग्रेस परिवार कंपनी और समाजवादी परिवार कंपनी में यह गंठजोड़ करवा रहे हैं माननीय अमर सिंह. इस कारपोरेट राजनीति के नायक भी हैं अमर सिंह. यह भारतीय राजनीति का नया अध्याय है. यह राजनीति ‘मेगा फंड रेजिंग’ (अरबों की संपत्ति) की है. बड़े डीलों की है. बड़ी पूंजी की है. देश-विदेश में पूंजी जमा करने की है.
पहले राजनीति यह नहीं थी. राजदीप सरदेसाई को फिर कोट (उद्धृत) करें, तो यह आइडियाज (विचारों) की थी. मुद्दों (इश्यू) की थी. पैशन (आवेश ) की थी. यह मिशन था, व्यापार नहीं. गांधीजी बिड़ला हाउस में रहते थे, पर उनका जीवन-धड़कन गरीबों या गांवों में था. देश के साथ था. वह राजनीति सेवा की थी. त्याग उसमें था. देश, समाज उसके मुख्य एजेंडा में थे. वह निजी या व्यक्तिपरक नहीं थी. दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर की भूमिका में वह राजनीति नहीं थी.
इस नयी कारपोरेट राजनीति की जड़ें, बाजार में है. चंद्रशेखर कहा करते थे, बाजार और करुणा में रिश्ता नहीं होता. दोनों प्रतिद्वंद्वी हैं. बाजार की उपज है, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा. अपने जीने के लिए दूसरे का सफाया. राजनीति (सत्ता) में जब सपने न हों, मिशन न हों, सिर्फ मनी पावर (पूंजी) मकसद हो, तबसमाज या देश को जंगल राज बनने से कौन रोक पायेगा? क्या भारत इसी रास्ते पर है?
(दिल्ली-रांची यात्रा में लिखा गया.)
दिनांक : 14-07-08
