”धौनी” फिल्‍म के बाद लोग जानने लगे हैं : आलोक पांडेय

ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जो कामयाबी के मुंडेर पर पहुंच कर भी पांव जमीं पर ही टिकाये रखते हैं. सफलता की घड़ी में भी जड़ों से जुड़े रहना अपने आप में ही एक बड़ी उपलब्धि है. कुछ ऐसी ही शख्सियत है अभिनेता अलोक पांडेय की. बहुत कम वक़्त में ही फिल्म इंडस्ट्री के […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 24, 2018 5:16 PM

ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जो कामयाबी के मुंडेर पर पहुंच कर भी पांव जमीं पर ही टिकाये रखते हैं. सफलता की घड़ी में भी जड़ों से जुड़े रहना अपने आप में ही एक बड़ी उपलब्धि है. कुछ ऐसी ही शख्सियत है अभिनेता अलोक पांडेय की. बहुत कम वक़्त में ही फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े निर्देशकों का सानिध्य हासिल होने के बावजूद अपने सफर को मेहनत और समर्पण के साथ सवांरते आलोक आज भी सफलता का श्रेय परिवारवालों और दोस्तों के त्याग को ही देते हैं. भूमिका भले छोटी हो, पर खाते में अग्रिम पंक्ति के निर्देशकों की फिल्में जमा हैं.

फिर बात चाहे अनुराग कश्यप की शार्ट फिल्म दैट डे आफ्टर एवरी डे की हो, नीरज पांडेय की एम एस धौनी की, राजकुमार हिरानी की पीके की, सूरज बड़जात्या की प्रेम रतन धन पायो की या फिर निखिल आडवाणी और फरहान अख्तर की फिल्म लखनऊ सेंट्रल की हो, हर जगह आलोक की धमक उनके सुनहरे भविष्य का इशारा करती है. अपने अबतक के सफर, उपलब्धियों और भविष्य की उमीदों के बारे में बात करते ही आलोक के चेहरे पर एक अलग किस्म की चमक तैर जाते है.

यूपी के छोटे से शहर शाहजहांपुर के छोटे से गांव के लड़के की आँखों में अभिनेता बनने का सपना कब और कैसे तैर गया?

(हंसते हुए), ठीक-ठीक तो कह नहीं सकता, पर ये ख्वाब शायद होश सँभालने के पहले जन्म ले चूका था. मां बताती है कि छुटपन से ही मुझे आईने से प्यार था. घंटो आईने के सामने बैठ तरह-तरह की वेशभूषायें बनाना और नक़ल करना मेरी आदत थी. फिर स्कूल के हर फंक्शन्स में भाग लेने लगा. दर्शकों की तालियां मेरे अंदर रोमांच भर देती थी. कॉलेज के दिनों में दोस्तों के साथ थियेटर का जो चस्का लगा, उसने आख़िरकार मुझे सिनेमा की दहलीज़ तक पहुंचा दिया.

शाहजहांपुर से शुरू हुआ सफर एनएसडी में मिली असफलता के बावजूद मुंबई पहुँचने तक नहीं थमा. इस सफर के पीछे की मुख्य ताकत क्या रही?

अपनी ताकत की बात करूँ तो मेरी फैमिली मेरी सबसे बड़ी सपोर्ट सिस्टम है. बचपन से आज तक मेरी हर कोशिशों में घरवालों का पूरा सहयोग रहा. एनएसडी की असफलता के बावजूद थिएटर जारी रख पाना, गाँव से कोलकाता अभिनय प्रशिक्षण के लिए जा पाना, और फिर मुंबई जैसे शहर में भविष्य की तलाश के लिए आना, ये उनके बगैर संभव ही नहीं था. कॉलेज और थिएटर के दोस्तों की भूमिका से भी इनकार नहीं कर सकता.

इस सफर को थोड़ा विस्तार से बताएं?

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान कुछ दोस्त बने जो थिएटर से जुड़े थे. उनके साथ पहली बार जब एक प्ले देखने का मौका लगा वही से मेरी दुनिया बदल गयी. पहला प्ले देखकर ही लगा यही तो है जो मैं करना चाहता हूं. फिर मैंने भी शाहजहांपुर में एक थिएटर ग्रुप ज्वाइन कर लिया. पर महीना पूरा होते होते गाँव शहर का चक्कर लगाना मुश्किल लगने लगा. शहर में किराये का घर भी लिया, पर जल्द ही सब छोड़कर वापस गाँव चला गया. पर होनी को कुछ और ही मंजूर था. दो ही महीने बाद अखबार के जरिये पता लगा की जिस थिएटर ग्रुप में मैं काम करता था वो कहीं बाहर शो करने गया है और उसमें मेरे दो दोस्त भी हैं. मुझे लगा अगर मैंने ग्रुप छोड़ा नहीं होता तो आज मेरा भी अख़बार में नाम होता. अंदर के कीड़े ने उबाल मारा और मैं एक बार फिर जा पहुंचा उसी संस्कृति ग्रुप के पास. एक साल तक आलोक सक्सेना जी से अभिनय की एबीसीडी सीखी. आगे चलकर एनएसडी में प्रारंभिक सिलेक्शन के बावजूद आखिरी चरण में चुनाव नहीं हो सका. तब बीएनए लखनऊ में एडमिशन ले लिया. दो साल की पढ़ाई के दौरान कई प्लेज किये. फिर वहां से 45 दिनों के फिल्म अप्रेसिएशन कोर्स के लिए कोलकाता सत्यजीत रे फिल्म इंस्टिट्यूट जाने का मौका मिला. कुछ दिनों बाद छह महीने का एक और कोर्स किया और दिसंबर 2012 में फाइनली मुंबई आ गया.

मुंबई पहुँचने और काम मिलने के बीच का वक़्त कैसा रहा?

देखिये, मेरी जर्नी बाकियों की तरह ज्यादा मुश्किल भरी नहीं रही. इस मामले में मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूँ. थिएटर के दोस्त पहले से मुंबई में थे, उन्होंने ही पनाह दी. फिर कुछ महीनों में सीआईडी सीरियल में छोटा सा काम मिला जो दिख भी नहीं पाया. पर जल्द ही मुझे रवि खेमू जी की सीरियल में अच्छी भूमिका मिली जो वो दूरदर्शन के लिए बना रहे थे. चूँकि खेमू सर मुझे लखनऊ के दिनों से ही जानते थे तो भरोसा कर उन्होंने ये किरदार मुझे सौंपा. इसी दौरान अनुराग कश्यप की शार्ट फिल्म भी मिल गयी थी, जिसमे मैंने राधिका आप्टे के साथ काम किया.

सीरियल से बड़े परदे तक का सफर कैसे तय हुआ?

खेमू सर की सीरियल के बाद लगभग एक साल का गैप रहा. काम की तलाश जारी रही. इस बीच राजश्री प्रोडक्शन में प्रेम रतन धन पायो के लिए अप्लाई किया, और संयोग ऐसा बना की वहां मेरा सिलेक्शन हो गया. सूरज बड़जात्या जी ने खुद मेरे ऑडिशन की तारीफ़ की. इस फिल्म के दौरान कास्टिंग डायरेक्टर विक्की सिदाना जी के संपर्क में आया, जिनकी वजह से आगे चलकर मुझे धोनी और लखनऊ सेंट्रल जैसी फिल्मों में काम मिला.

धौनी से मिली सफलता ने लाइफ में क्या कुछ बदलाव लाया?

बदलाव तो बस इतना है कि लोग जानने लगे हैं. गाँव में लोग चर्चाएं करने लगे हैं, जाने पर मिलने आ जाते हैं. मेरे काम को नोटिस किया जाने लगा है. पर इस फिल्म के बाद सबसे बड़ा बदलाव मेरे अंदर आया. नीरज पांडेय जी के साथ काम करने के अनुभव और उनके भरोसे ने अंदर और जिम्मेदारियों का एहसास भर दिया है. अभी राजश्री की ही एक और फिल्म हम चार कर रहा हूं, जहाँ पिछले अनुभव काफी काम आ रहे हैं.

प्रोफेशनल लाइफ से थोड़ा पर्सनल लाइफ की और रुख करते हैं, कुछ फैमिली बैकग्राउंड की बात बताईये?

जैसा पहले भी बता चूका हूं मेरी फैमिली ही मेरी पिलर है. माँ-पिताजी के अलावे घर के चार भाईयों में मैं सबसे छोटा हूं. घर से बाहर निकलने से लेकर आज तक उन लोगों ने मेरा ख्याल रखा है. अब तो मेरी पत्नी के रूप में मुझे एक और सपोर्ट मिल गया है. खुशकिस्मत हूँ की आज के वक़्त में भी एक बड़ी जॉइंट फैमिली का हिस्सा हूँ.

थिएटर से फिल्मों का रुख करने की चाहत रखने वालों के लिए क्या कहेंगे?

बस इतना कि मुंबई आओ, पर आने से पहले थिएटर में खुद को इतना मांज लो कि आगे जाकर हताश ना होना पड़े. भीड़ में जगह बनाने और टिके रहने के लिए खुद पर मेहनत और समर्पण बहुत जरूरी है.

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