Cloud Seeding : क्या है क्लाउड सीडिंग, कैसे होती है इससे बारिश ?
Cloud Seeding : क्लाउड सीडिंग इन दिनों बहुत चर्चा में है.गंभीर वायु प्रदूषण से ग्रस्त देश की राजधानी दिल्ली में बीते दिनों कृत्रिम बारिश यानी क्लाउड सीडिंग की कोशिश की गयी, जो कारगर नहीं हुई. इसकी विफलता का कारण बादलों में नमी की कमी को बताया जा रहा है. जानें क्या है क्लाउड सीडिंग तकनीक और इसका पहला प्रयोग कब हुआ था...
Cloud Seeding : क्लाउड सीडिंग के माध्यम से कम बारिश या सूखे की स्थिति में कृत्रिम बारिश कराई जाती है. यह आर्टिफिशियल तरीके से बारिश कराने की एक वैज्ञानिक तकनीक है, जिसमें हवा में कुछ रासायनिक पदार्थों का छिड़काव करके बारिश की स्थितियां उत्पन्न की जाती हैं. दुनिया के कई देशों में क्लाउड सीडिंग का उपयोग शीतकालीन बर्फबारी और पर्वतीय हिमखंड को बढ़ाने के लिए किया जाता है, जिससे आसपास के क्षेत्र के समुदायों को प्राकृतिक जल आपूर्ति सुचारू रूप से हो सके.
क्लाउड सीडिंग है बारिश का वैज्ञानिक तरीका
क्लाउड सीडिंग एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. इसमें बादलों की प्राकृतिक वर्षा की प्रक्रिया को तेज करने के लिए उनमें रासायनिक पदार्थों का छिड़काव किया जाता है. इसके लिए सिल्वर आयोडाइड, पोटैशियम आयोडाइड और नमक जैसे पदार्थों के बेहद सूक्ष्म कण वातावरण में छोड़े जाते हैं. यह प्रक्रिया मुख्य रूप से तीन चरणों में पूरी होती है-
बादलों की पहचान (Identification of Clouds) : वैज्ञानिक सबसे पहले ऐसे उपयुक्त बादलों की पहचान करते हैं, जिनमें पर्याप्त नमी हो. सभी बादल कृत्रिम बारिश के लिए सही नहीं होते. क्लाउड सीडिंग के लिए ऐसे बादल चाहिए, जिनका तापमान लगभग शून्य डिग्री सेल्सियस के आस-पास हो.
रासायनिक छिड़काव (Chemical Spraying) : जिन बादलों की पहचान की जाती है, उन पर विमान या ड्रोन की सहायता से खास रासायनिक पदार्थ का छिड़काव किया जाता है. इन पदार्थों को ‘सीडिंग एजेंट’ कहा जाता है. सिल्वर आयोडाइड, सोडियम क्लोराइड, ड्राई आइस प्रमुख सीडिंग एजेंट हैं.सिल्वर आयोडाइड सबसे आम और प्रभावी एजेंट है. यह बादलों में बर्फ के क्रिस्टल जैसी संरचना बनाता है. सोडियम क्लोराइड का उपयोग अक्सर गर्म बादलों में किया जाता है. ड्राई आइस का उपयोग बहुत ठंडे बादलों में किया जाता है.
ऐसे होती है कृत्रिम बारिश
तीसरा चरण है बारिश का. छिड़के गये रासायनिक कण जब बादलों में पहुंचते हैं, तो वे नमी (पानी की नन्हीं बूंदों या वाष्प) को अपने चारों ओर जमा करके संघनित होने की प्रक्रिया को तेज कर देते हैं. सिल्वर आयोडाइड जैसे कण केंद्रक का काम करते हैं, जिसके चारों ओर पानी की बूंदें तेजी से इकट्ठा होती हैं. धीरे-धीरे ये बूंदें बड़ी और भारी होती जाती हैं. इन बूंदों का वजन जब इतना अधिक हो जाता है कि बादल उन्हें संभाल नहीं पाते, तो वे गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे गिरने लगती हैं और यही कृत्रिम वर्षा कहलाती है. यह तकनीक उन क्षेत्रों में अपनाई जाती है, जहां बारिश कम होती है, सूखा पड़ता है या वायु प्रदूषण को कम करने के लिए बारिश के माध्यम से धूल और प्रदूषक तत्वों को जमीन पर बिठाना होता है.
क्लाउड सीडिंग के सिद्धांत की खोज
अमेरिकी वैज्ञानिक विंसेंट जे शेफर ने जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी की प्रयोगशाला में काम करते हुए 1946 में क्लाउड सीडिंग के सिद्धांत की खोज की थी. शेफर विमानों पर बर्फ जमने की समस्या पर शोध कर रहे थे. एक डीप-फ्रीज यूनिट में, उन्होंने गलती से सूखी बर्फ (ठोस कार्बन डाइऑक्साइड या ड्राई आइस) के टुकड़े को सांस से बने कृत्रिम बादल में मिला दिया, जिससे लाखों बर्फ के क्रिस्टल बन गये. बाद में शेफर के सहयोगी बर्नार्ड वॉनेगुट ने पाया कि सिल्वर आयोडाइड बर्फ के क्रिस्टल बनाने में और भी अधिक प्रभावी है और इस तरह आधुनिक क्लाउड सीडिंग की तकनीक की खोज हुई.
भारत में क्लाउड सीडिंग की शुरुआत
भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) की रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली में पहली बार वर्ष 1957 में मानसून के दौरान इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया था. नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी कैंपस में 1971-72 की सर्दियों में दूसरा परीक्षण किया गया था, जिसमें जमीन पर लगे जनरेटरों से सिल्वर आयोडाइड के कणों को छोड़ा गया था. भारत में महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी सूखे और जल आपूर्ति को बढ़ाने के लिए क्लाउड सीडिंग का प्रयोग किया गया है.
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