‘मेरी जिंदगी कभी आपके काम आ जाए…’, अंतिम पैगाम छोड़ गए बिहार के बाहुबली नेता काली पांडेय, पढ़िए उनकी अनकही कहानी
Kali Prasad Pandey: कभी उत्तर भारत के सबसे बड़े बाहुबली कहे जाने वाले पूर्व सांसद काली प्रसाद पांडेय का शुक्रवार देर शाम दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया. 1984 में जेल में रहते हुए भी लोकसभा चुनाव जीतने वाले काली पांडेय का राजनीतिक सफर बेहद फिल्मी अंदाज का रहा. बाहुबली छवि के साथ कई विवादों में घिरे रहे, लेकिन जनता के बीच उनका प्रभाव लंबे समय तक कायम रहा.
Kali Prasad Pandey: “क्या पता… मौत का कब पैगाम आ जाये. मेरे जिंदगी का आखिरी शाम आ जाये. मैं ढूंढता हूं ऐसा मौका, ऐ गोपालगंज के वासियों कब काली की ज़िंदगी आपके काम आ जाये…” यह पैगाम था काली प्रसाद पांडेय का. एक ऐसा नेता जो अपनी आखिरी सांस तक राजनीति और समाज के बीच याद किया जाता रहा. शुक्रवार देर शाम दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में उनका निधन हो गया. खबर फैलते ही गोपालगंज से लेकर पटना और दिल्ली तक की राजनीतिक फिजां में शोक की लहर दौड़ गई. कभी उत्तर भारत के सबसे बड़े बाहुबली कहे जाने वाले काली पांडेय का जीवन उतार-चढ़ाव, संघर्ष और विवादों से भरा रहा.
जेल से संसद तक का सफर
गोपालगंज जिले के कुचायकोट विधानसभा क्षेत्र के रमजीता गांव में 1950 के दशक में जन्मे काली पांडेय का राजनीतिक सफर किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं था. वर्ष 1980 से 1984 तक वह बिहार विधानसभा के सदस्य रहे. लेकिन उनका असली उभार 1984 के लोकसभा चुनाव में हुआ. उस समय इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में कांग्रेस लहर चल रही थी. ऐसे दौर में जेल में रहते हुए निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ना और जीतना किसी अजूबे से कम नहीं था.
“जेल का फाटक टूटेगा, काली पांडेय छूटेगा”
उनके समर्थकों का नारा- “जेल का फाटक टूटेगा, काली पांडेय छूटेगा”. सिर्फ चुनावी जुमला नहीं बल्कि उस दौर की राजनीति का प्रतीक बन गया. जनता ने उन्हें संसद भेजा और इस जीत ने काली पांडेय को सीधे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला दी.
बाहुबली छवि और फिल्मी प्रभाव
काली प्रसाद पांडेय की पहचान सिर्फ एक राजनेता की नहीं रही. 80 और 90 के दशक में वे उत्तर भारत की बाहुबली राजनीति का चेहरा बन गए. उनके प्रभाव और डर की कहानियां बिहार से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक फैलीं. इतना ही नहीं, 1987 में आई फिल्म प्रतिघात के खलनायक “काली प्रसाद” का किरदार उन्हीं से प्रेरित बताया गया. हालांकि इसे कभी आधिकारिक तौर पर साबित नहीं किया गया, लेकिन गोपालगंज और आसपास के लोग हमेशा मानते रहे कि यह किरदार असल में काली पांडेय की ही छवि से लिया गया है. उनकी बाहुबली छवि इतनी मजबूत थी कि वे सिर्फ राजनीति ही नहीं, बल्कि समाज के हर स्तर पर चर्चा का विषय बने रहे.
राजनीति में उतार-चढ़ाव
निर्दलीय जीत के बाद काली पांडेय कांग्रेस में शामिल हुए. उन्होंने कांग्रेस के मंच से राजनीति की मुख्यधारा में कदम रखा, लेकिन लंबे समय तक टिके नहीं. बाद में वे लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद से जुड़े और कुछ सालों बाद दिवंगत रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) का हिस्सा बन गए.
एलजेपी में रहते हुए उन्होंने अहम पद संभाले और संगठन में पकड़ बनाए रखी. लेकिन उनके राजनीतिक सफर की सबसे बड़ी खासियत यही रही कि वे किसी एक दल में स्थायी रूप से नहीं टिके. अंततः उन्होंने दोबारा कांग्रेस का दामन थाम लिया. 2020 का विधानसभा चुनाव उन्होंने लड़ा, लेकिन उसके बाद राजनीति से दूरी बना ली.
विवादों से गहरा रिश्ता
काली पांडेय का नाम राजनीति के साथ-साथ विवादों में भी गूंजता रहा. 1989 में पटना जंक्शन पर नगीना राय पर बम हमले का मामला सबसे बड़ा था, जिसमें उनका नाम उछला. उन पर कई गंभीर आरोप लगे, लेकिन अदालत में कोई भी साबित नहीं हो सका. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि 80 और 90 के दशक में वे तमाम बाहुबलियों के “गुरु” माने जाते थे. उनके नाम से विरोधी खौफ खाते थे और समर्थक उन्हें मसीहा मानते थे.
अधूरी ख्वाहिश और आखिरी संदेश
दिलचस्प बात यह रही कि काली पांडेय का सपना कभी राजनीति में आना नहीं था. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे शिक्षक बनना चाहते थे, बच्चों को पढ़ाना चाहते थे. लेकिन किस्मत ने उन्हें राजनीति और बाहुबली छवि के रास्ते पर ला खड़ा किया. अपनी आखिरी दिनों में उन्होंने जनता से कहा- “मैं चाहता हूं कि मेरी जिंदगी कभी आपके काम आ जाये. ” यह वाक्य उनकी अधूरी ख्वाहिश और भीतर छिपे समाजसेवी के मन को बयां करता है.
काली पांडेय को कहा जाता था उत्तर भारत के सबसे बड़े बाहुबली नेता
काफी समय से बीमार चल रहे काली पांडेय दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में इलाजरत थे. शुक्रवार को उनके निधन की खबर आई तो राजनीतिक गलियारों में गहरा शोक छा गया. उनको कभी उत्तर भारत के सबसे बड़े बाहुबली नेता कहा जाता था. उनकी छवि, उनकी कहानियां और उनका राजनीतिक सफर आने वाले समय में बिहार की राजनीति के इतिहास का अहम हिस्सा बने रहेंगे. उनका निधन सिर्फ गोपालगंज या बिहार के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए एक युग के अंत जैसा है.
