छठ अर्थात मां की देहरी

यह लोक महापर्व छठ का सामाजिक स्वरूप ही तो है, जो वर्गों, जातियों व समुदायों के भेद को एक झटके में मिटा देता है. घाटों की सफाई और फिर प्रसाद के वितरण तक में हर हाथ दूसरे की मदद के लिए बढ़ते हैं. तभी तो यह लोक आस्था का पर्व है. पढ़िए कथाकार शैबाल का […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 4, 2016 12:21 PM

यह लोक महापर्व छठ का सामाजिक स्वरूप ही तो है, जो वर्गों, जातियों व समुदायों के भेद को एक झटके में मिटा देता है. घाटों की सफाई और फिर प्रसाद के वितरण तक में हर हाथ दूसरे की मदद के लिए बढ़ते हैं. तभी तो यह लोक आस्था का पर्व है. पढ़िए कथाकार शैबाल का यह आलेख, जो छठ का अलग नजरिया प्रस्तुत करता है.

आध्यात्म के रहस्यलोक से समुदायबोध के यथार्थ तक पसरी है एक समयावधि. इसमें समावेशित है एक पर्व. पर्व जिसे छठ कहते हैं. पर्व या उत्सव वस्तुतः लोकजीवन में संस्कृति की भावयात्रा है.

सच है कि लोकजीवन के रंग अलग होते हैं. अलग -अलग विचारधारा की आग में तर्क का अलग रंग भी तपता है. पर लेखक के लिए ग्रहण योग्य वही है जो जीवन में बजता हो लोकराग की तरह. इस राग का अपना सुर है,अपनी आस्था है. वह हृदय से गाता है, ‘मारवऊ रे सुगवा धनुष से ,सुग्गा गिरे मुरझाय..’

छठ के दौरान फलों को कुतर-कुतर कर भूशायी करनेवाला यह उत्पाती सुआ संयमित हो उठता है. सड़क बुहारता है,जल से स्वच्छ करता है ताकि परवैतियों को सुविधा हो. अपराधी मनोवृति का सुआ जाने किस कंदरा में छिप जाता है (जबकि दीवाली में सगुन के तौर पर चोरी करता है ससुर!). स्पष्ट है कि अपराध का ग्राफ नीचे रहता है इनदिनों. नजरमार सुआ घर के कोनों से बाहर नहीं आते . ख्यात-कुख्यात गुंडे समाजसेवी हो उठते हैं. समुदायबोध का विचित्र ज्वार उठता है इनदिनों !

बचपन से जब तक बाढ़ नामधारी कस्बे में रहना हुआ,दौरा ढोया . मां का हुक्म टालता कैसे . एक हुड़क रहती थी मन में. परिचित ,पर बिछड़ गए दोस्तों से मिलने का. ईर घाट से बीर घाट तक सारे दोस्त छठ में आते ही आते. संवाद करने का मौका मिलता. ढेलवा गोसाईं हमारे मोहल्ले का नाम था . गोसाईं निराले देवता थे जिनपर ढेला चढ़ाया जाता था . विभिन्न जातियों का रहवास था यहां. दीवाली के दूसरे दिन से मोहल्ले की औरतें जुटने लगतीं. एकसाथ छत पर सात आठ घरों का गेंहू सूखता,झोपडीवाली चनेसर मां का भी, प्रोफेसर सिन्हा की घरवाली का भी,और सेकंड ऑफिसर की पत्नी मिश्राइन का भी. एक दूसरे की जरूरत पूरी की जाती. बाकी वक्त में औकात की बात होती ,पर इस वक्त जबरदस्त एका कायम हो जाता. पूरा मोहल्ला एक घाट पर जाता . घाट वहां से दो तीन मील की दूरी पर था. पर सब पैदल जाते. अब रवायत बदली है. मुस्तफाबाद के दलित भी ट्रक पर लद कर जाते हैं. समूह बनाने का चलन छठ के दौरान और बढ़ा है.

बड़ा होने पर किसी ने पूछा अंदर की दुनिया में, क्या यह धर्म से जुड़ा प्रसंग है ? जवाब ‘अरण्य गाथा ‘के नायक ने दिया. उससे कामरेड घोष ने पिंडदान को लेकर सवाल किया था तो उसने कहा था, ‘दादी नौ बच्छर सती थान अगोरती रहीं कि हम जन्म ले लें,हम क्या पंद्रह दिन भी इच्छा नहीं रख सकते कि दादी हमारे बीच फिर आ जाये ?और घोष बाबू ,हम पटना में बजरंग बली के आगे भी झुकते हैं तो इसलिए कि उस वक्त लगता है बाबू आगे आकर खड़ा हो गया है! ‘ प्रकृति से जुड़ाव का अवसर भी कहां मिल पाता है.

जीवन में अब. सब कुछ मशीनी हो गया है. लोग अलग-अलग खानों में बंट गए हैं. जड़ों से अलहदा हो रहे हैं लोग. कम से कम छठ में जुड़ते तो हैं. आभार तो प्रकट करते हैं. प्रकाश देनेवाले के प्रति. यहां तो जन्म देनेवाले को भी नकार रहे हैं लोग. दूसरी बात, घाट पर अगर बहरा गोसाईं की मां ने प्रसाद दे दिया तो लोचन सिंह के पिता श्री प्रेम से खा लेते हैं, नाक भौं नहीं सिकोड़ते. और कब दिखता है ऐसा. नहीं, यह विलक्षण समयावधि है. प्रसाद के बहाने वर्गों और जातियों के बीच की खाई पाटने का वक्त ! अबूझ है यह पर्व. मेरी मां हर साल छठ करने बाढ़वाले घर पर चली जाती थी. अंतिम दिनों में गयी तो कहीं गिर गयी ,हाथ टूट गया, असमर्थ हो गयी. पर्व करना संभव नहीं रहा. पहले अर्घ के दिन देहरी पर बैठकर परवैतियों को आते -जाते देख रही थी करूणाद्र नयनों से. देखते -देखते लुढ़क गयी. घोसी से भाग कर घर पहुंचा तो सबसे पहले मैंने झुककर उस देहरी को प्रणाम किया.

तब से मेरे लिए छठ वही देहरी है-मां की देहरी. जीवन और मृत्यु के बीच की देहरी,जहां अब भी मां रहती है.

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