डिजिटल मीडिया : किसी के लिए अवसर, किसी के लिए चुनौती

बालेंदु शर्मा दाधीच... तकनीकी विशेषज्ञ पि छले एक दशक से पारंपरिक मीडिया को एक नये मीडिया से चुनौती मिल रही है. वह इंटरनेट के जरिये पाठक और दर्शक तक पहुंचता है और प्रिंट तथा टीवी से ज्यादा सक्षम है, खास तौर पर अपनी इंटरएक्टिविटी की वजह से. इस नये मीडिया या वेब मीडिया ने अमेरिका […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 15, 2019 1:48 AM

बालेंदु शर्मा दाधीच

तकनीकी विशेषज्ञ
पि छले एक दशक से पारंपरिक मीडिया को एक नये मीडिया से चुनौती मिल रही है. वह इंटरनेट के जरिये पाठक और दर्शक तक पहुंचता है और प्रिंट तथा टीवी से ज्यादा सक्षम है, खास तौर पर अपनी इंटरएक्टिविटी की वजह से.
इस नये मीडिया या वेब मीडिया ने अमेरिका और यूरोप के पारंपरिक मीडिया में कुछ साल पहले बहुत तबाही मचायी थी. न जाने कितने अखबार इसलिए बंद हो गये, क्योंकि पाठक और विज्ञापन अखबारों से अलग हटकर सोशल मीडिया और वेबसाइटों की ओर शिफ्ट हो गये. टीवी के लिए भी स्थितियां कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं.
एक तरफ यू-ट्यूब, मेटा कैफे, यूस्ट्रीम और डेली मोशन जैसी ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग वेबसाइटें दर्शक के लिए अलग किस्म का वीडियो प्लेटफॉर्म ले आयी हैं. दूसरी तरफ नेटफ्लिक्स, अमेजॉन प्राइम और हॉटस्टार जैसे ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म भी मजबूत हो रहे हैं.
कुछ साल पहले प्रिंट और टीवी के बीच एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ हुआ करती थी. लेकिन अब वे एक-तीसरी चुनौती से जूझ रहे हैं. मेरा मानना है कि भारतीय मीडिया के चौतरफा विकास के लिए तीनों मीडिया- प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाइन का साथ-साथ आगे बढ़ना जरूरी है.
यह देश इतना बड़ा है कि यहां तीनों के लिए पर्याप्त स्पेस और संभावनाएं मौजूद हैं. दो-तीन साल पहले तक टेलीविजन की दुनिया में किसी ने डिजिटल मीडिया की चुनौती को गंभीरता से नहीं लिया था.
वास्तव में इसे एक अवसर समझा गया, जिसका प्रिंट और टीवी ने पर्याप्त दोहन भी किया है. ट्विटर इसका शानदार उदाहरण है, जो खबरों के अकाल के समय संकटमोचक बन जाता है यानी ट्विटर पर बड़ी हस्तियां अपने दिलचस्प ट्वीट के जरिये नयी खबर का सृजन कर देती हैं.
सो, पारंपरिक मीडिया डिजिटल मीडिया को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते रहा है. किसी मुद्दे पर तुरत-फुरत ऑनलाइन पोल करवा लिया और खबर बन गयी. किसी के फेसबुक अकाउंट पर कोई विवादित टिप्पणी आ गयी और खबर बन गयी. यू-ट्यूब तो खबरों का खजाना है. संभावनाएं तो अनंत हैं.
भारत में प्रिंट और टेलीविजन ने डिजिटल मीडिया को चुनौती के रूप में कम और अवसर के रूप में ज्यादा देखा है. वह काफी हद तक नये मीडिया की तरफ से पैदा होनेवाले उस संकट को टालने में सफल हो गया है, जो अमेरिका और यूरोप का मीडिया नहीं कर सका.
कुछ अखबार जैसे कि सान फ्रांसिस्को क्रॉनिकल, न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट अपने खर्चों पर जबरदस्त अंकुश लगाकर, शेयर या प्रॉपर्टी बेचकर या अमेजॉन जैसे उद्यमियों की आर्थिक मदद से उस संकट को टालने में कामयाब रहे. सन् 2009-10 के बाद वह संकट टल गया और आज पश्चिमी प्रिंट मीडिया कुछ हद तक स्थायित्व की ओर बढ़ चुका है.
भारत में इंटरनेट का ज्यादा प्रसार नहीं है और इंटरनेट बैंडविड्थ की सीमाएं हैं. तकनीकी लिहाज से हमारा पिछड़ापन प्रिंट मीडिया के लिए डूबते को तिनके का सहारा सिद्ध हुआ. जिस तरह मोबाइल का प्रसार हुआ है और इंटरनेट के आंकड़े बढ़ रहे हैं, उसमें डिजिटल मीडिया धीरे-धीरे अपने आपको मजबूत करता जायेगा.
एक बहुत महत्वपूर्ण रुझान यह है कि समाचारों के क्षेत्र में तकनीकी कंपनियों की उपस्थिति बढ़ रही है. नये मीडिया ने खबरों के क्षेत्र को सबके लिए खोल दिया है. वह डिजिटल मीडिया प्रिंट और टेलीविजन दोनों को चुनौती देगा और इन पारंपरिक माध्यमों को उस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा.
डिजिटल मीडिया पोर्टेबल भी है. चाहे वह टीवी की बड़ी स्क्रीन हो या कंप्यूटर की छोटी स्क्रीन. टैबलेट की आयताकार स्क्रीन हो या फिर मोबाइल फोन की लंबवत या वर्टिकल स्क्रीन. उसके लिए कोई सबस्क्रिप्शन प्लान जरूरी नहीं है. चाहिए तो सिर्फ इंटरनेट कनेक्शन. ऊपर से पाठक को खुद पत्रकार बनने की आजादी देने की स्वाभाविक प्रवृत्ति एक क्रांति को जन्म दे रही है.
प्रश्न है कि क्या ये नये माध्यम पारंपरिक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए खतरा बन सकते हैं? इस सवाल पर काफी चर्चा होती है. मुझे लगता है कि बात उतनी सीधी नहीं है.
यहां वीडियो कंटेंट देखनेवाले लोग यानी व्यूअर्स और देखने का समय यानी व्यूइंग ऑवर्स टीवी और इंटरनेट के बीच विभाजित हो रहे हैं. जो आदमी पहले टीवी पर समय गुजारता था, वह अब इसका एक बड़ा हिस्सा मोबाइल फोन को देता है, जिससे टेलीविजन अपने व्यूइंग ऑवर्स खो रहा है.
एक्सपेरियन मार्केटिंग सर्विसेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2010 में अमेरिका में 51 लाख लोगों ने केबल कनेक्शन छोड़ दिये थे और तीन साल बाद यह आंकड़ा 76 लाख हो गया. यानी पारंपरिक टेलीविजन को अलविदा करनेवालों की संख्या हर तीन साल में 44 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है.
डिजिटल माध्यमों की चुनौती टेलीविजन और प्रिंट दोनों के लिए समान है. वह आनेवाले दिनों में और गंभीर हो सकती है. लेकिन इसे टालना संभव है. इसका सिर्फ एक तरीका है, खुद को नये दौर के अनुरूप ढालना और इनोवेशन या नयेपन की तरफ कदम बढ़ाना. पारंपरिक मीडिया किस तरह नये मीडिया के साथ जुड़ सकता है, इसी में उसकी स्थायी कामयाबी निहित है. अमेरिका के न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबार इसके अच्छे उदाहरण हैं.