न्यू मीडिया की विश्वसनीयता

महताब आलमसंपादक, द वायर (उर्दू)... हर नये बदलाव की तरह, न्यू मीडिया भी आसानियों के साथ कई चुनौतियां लेकर आया है. न्यू मीडिया ने खबरों, तथ्यों और विचारों के पेश करने का तरीका ही बदल दिया है. जिसकी वजह से समाचार और विचार के बीच का अंतर मिटता जा रहा है और वैसी स्टोरीज ज्यादा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 15, 2019 1:41 AM

महताब आलम
संपादक, द वायर (उर्दू)

हर नये बदलाव की तरह, न्यू मीडिया भी आसानियों के साथ कई चुनौतियां लेकर आया है. न्यू मीडिया ने खबरों, तथ्यों और विचारों के पेश करने का तरीका ही बदल दिया है. जिसकी वजह से समाचार और विचार के बीच का अंतर मिटता जा रहा है और वैसी स्टोरीज ज्यादा ‘पसंद’ की जाने लगी है, जिसमे मुद्दे की तह में जाने के बजाय एक किस्म का निर्णय दिखता हो. न्यू मीडिया ने पाठक के ध्यानावधि पर भी असर डाला है. इस प्रक्रिया में किसी खबर की तथ्यता से ज्यादा इस पर जोर दिया जाने लगा है कि किसने खबर या स्टोरी पहले चलायी.
पाठक अब दर्शक में तब्दील होने लगा है. छपी खबरों से ज्यादा वीडियो और ऑडियो का फॉर्मेट पॉपुलर हो रहा है. इन सब चीजों के पीछे एक वजह ये बतायी जाती है कि लोगों के पास पहले जितना वक्त नहीं है. इसीलिए उनको समाचार या उसका विश्लेषण नहीं, बल्कि न्यूज और व्यूज का कैप्सूल चाहिए.
ये चुनौतियां नयी नहीं हैं. पहले किसी चीज के छपने से पहले उसकी सत्यता को जांचने के लिए समय होता था, लोग और नेटवर्क होते थे. जो लगातार कम होता जा रहा है. क्योंकि उसके लिए समय और साधन का अभाव है.
क्योंकि ज्यादातर न्यू मीडिया फोरम्स पर स्टोरीज बिना पैसा दिये पढ़ी जा सकती हैं, इसीलिए संस्थानों के पास इन खबरें जुटाने और पेश करने के लिए सीमित संसाधन होते हैं. इतने पॉपुलर होने के बावजूद अभी भी ज्यादातर न्यू मीडिया फोरम्स के लिए विज्ञापन जुटाना और इसे एक लाभकारी तो दूर स्वावलंबी बना पाना एक बहुत बड़ी चुनौती है.
सवाल है कि क्या समस्या न्यू मीडिया के साथ ही है? लोग कहते हैं, ‘मीडियम इज द बीस्ट’, इसीलिए इसका कुछ नहीं हो सकता! इस मामले में मेरी राय थोड़ी अलग है और मुझे लगता है कि इन चुनौतियों का सामना करने के लिए नये और पुराने का सामंजस्य जरूरी है और उसी से हल निकलेगा.
जैसे इस चीज को सुनिश्चित करना की स्टोरी भले ही देर छपे या प्रसारित हो उसमें किसी तरह तथ्यात्मक गलती न जाये. समाचार के नाम पर विचार और विचार के नाम पर वैमनष्य न परोसा जाये. संक्षिप्त खबरों के साथ उसके तथ्यात्मक विश्लेषण को भी उचित जगह मिले.
जिस खबर के स्रोत के बारे में पता न हो उसे प्रसारित करने से गुरेज किया जाये. और इन चीजों का ध्यान प्रिंट स्टोरीज से ज्यादा वीडियो और ऑडियो में दिया जाये. क्योंकि अव्वल तो उसकी पहुंच ज्यादा होती है और दूसरे यह कि वीडियो में इन बुनियादी चीजों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है. लेकिन यह काम सिर्फ संपादकीय विभाग या मीडिया संस्थान के अपने रवैये में बदलाव लाने से नहीं होगा. इसमें पाठकों और दर्शकों को बराबर की हिस्सेदारी निभानी पड़ेगा.
पाठक-दर्शक ऐसे स्टोरीज को अहमियत देना शुरू करें, जो मुद्दे की तह तक जाता हो. जिसमें रिपोर्टर ने अपना खून-पसीना और संस्थान ने अपना संसाधन लगाया है. इससे यह होगा कि समाचारों और विचारों के गुणवत्ता में बढ़ोतरी आयेगी. रिपोर्टर-लेखक और संस्थान भी ऐसे स्टोरीज को अहमियत देना शुरू करेंगे. इसके साथ ही इन संस्थानों की आर्थिक मदद करनी होगी.
जैसे हम अखबार-मैगजीन खरीदकर पढ़ते हैं, टीवी सब्सक्राइब करके देखते हैं, ठीक उसी तरह हमको डिजिटल-न्यू मीडिया प्लेटफॉर्म्स को सब्सक्राइब करके पढ़ने और देखने की आदत डालनी होगी. ऐसा करना न्यू मीडिया को विश्वसनीय और आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ इसे और ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने में मदद करेगा.