वीर कुंवर सिंह ने आजादी की पहली गाथा लिखने में अंग्रेजी सत्ता को दी गंभीर चुनौती, खौफ खाते थे अंग्रेज
मुरली मनोहर श्रीवास्तव बाबू साहेब तेगवा बहादूर…जैसी लोकपरंपरा के गीतों के साथ अगर किसी को याद करते हैं तो उस योद्धा का नाम है रणबांकुड़े वीर कुंवर सिंह. आजादी की पहली गाथा लिखने में उन्होंने अंग्रेजों की सत्ता को गंभीर चुनौती दी. भोजपुर (आरा) जिले के जगदीशपुर के इस योद्धा ने जाति-धर्म से परे होकर […]
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
बाबू साहेब तेगवा बहादूर…जैसी लोकपरंपरा के गीतों के साथ अगर किसी को याद करते हैं तो उस योद्धा का नाम है रणबांकुड़े वीर कुंवर सिंह. आजादी की पहली गाथा लिखने में उन्होंने अंग्रेजों की सत्ता को गंभीर चुनौती दी.
भोजपुर (आरा) जिले के जगदीशपुर के इस योद्धा ने जाति-धर्म से परे होकर देश सेवा के लिए अपनी जमींदारी को ही दांव पर लगा दिया था. उनके जीवन की सबसे खास बात थी कि वह अपने लोगों से बहुत प्यार करते थे. जाति और धर्म को अपने बीच दीवार नहीं बनने दिया. कहा जाता है कि उस समय उनकी उम्र 80 साल न होती, तो 1857 में ही अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागने पर विवश होना पड़ता. बाबू कुंवर सिंह चाहते तो अपनी जमींदारी को बचा सकते थे.
मगर उन्होंने कभी अपनी रियासत और अपने लोगों को लेकर चिंता नहीं जतायी, बल्कि देश के लिए उम्र के आखिरी पड़ाव पर कुछ सैनिक टुकड़ियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लेने निकल पड़े. नौ माह तक लंबी लड़ाई लड़ने वाले इस योद्धा के पास न तो कोई हथियार था, न ही कोई माकूल संसाधन. थी तो बस हिम्मत और गुलामी से छुटाकारा पाने की छटपटाहट. देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था. अंग्रेजों के तानाशाही रवैये से सभी परेशान थे.
मगर कोई आगे आने का नाम नहीं ले रहा था. उस दौर में धरमन बीवी की ललकार भरी गायकी ने उनके अंदर जलती देशभक्ति के लौ को हवा दे दी. फिर क्या, बाबू कुंवर सिंह ने युद्ध का एलान कर दिया और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि उनके रणनीतिकारों में उनके साथ धरमन बीवी और उनका 12 साल का पोता रिपुभंजन सिंह शामिल हुए. आरा से युद्ध की हुंकार भरने वाले इस योद्धा ने अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर ऐसी रार मचायी कि देश में अंग्रेजों के बीच दहशत का माहौल बन गया. इस योद्धा के साथ एक जो सबसे बड़ी बात है, वह यह कि बाबू साहब बिना थके-हारे नौ माह तक लगातार युद्ध लड़ते रहे. जिस इलाके में गये, उस रियासत के राजाओं को सहयोग किया और उनका सहयोग लिया भी. इनमें झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहेब जैसे कई बड़े राजाओं के साथ होकर अंग्रेजों से युद्ध लड़ते हुए आगे बढ़ते रहे.
दूर-दूर तक इनके नाम से अंग्रेजों में दहशत फैल गयी. मैदानी इलाके में पहली बार अंग्रजों को ‘गुरिल्ला युद्ध’ का सामना करना पड़ रहा था. कई अंग्रेज ऑफिसर बदले गये, हजारों अंग्रेज सैनिक मारे गये. लेकिन इस योद्धा की हिम्मत उस वक्त तार-तार हो गयी, जब युद्ध लड़ते-लड़ते धरमन और उनका पोता बांदा में वीरगति को प्राप्त हुए.
जख्मी हाथ को काट डाला, फिर भी फतह कर ली जमींदारी
23 अप्रैल, 1858 को युद्ध के मैदान से लौटने लगे उसी क्रम में गंगा पार करते हुए अंग्रेजों ने उन पर तोप का गोला दाग दिया, जिसमें उनका हाथ जख्मी हो गया. उन्होंने पल भर भी देर नहीं की. अपनी तलवार निकालकर अपने शरीर से हाथ को अलग कर गंगा मइया को सुपुर्द कर दिया.
कटे हुए हाथ के बूते ही उन्होंने पुनः अंग्रेजों से अपनी जमींदारी फिर से फतह कर ली. एक तरफ जीत की खुशी तो दूसरी तरफ बाबू कुंवर सिंह के जख्मी हाथ में जहर इतना फैल गया था कि 26 अप्रैल, 1858 का दिन उनके लिए आखिरी साबित हुआ. गुरिल्ला युद्ध का माहिर खिलाड़ी आखिरकार जिंदगी की जंग हार गया.