हमारी सांस्कृतिक सद्भावना का पर्व दीपावली

सत्य व्यास लेखक अंधकार पर विजय का उत्सव उत्सवधर्मिता मनुष्य की सबसे आदिम प्रवृत्तियों में से एक है. कालिदास ने भी कहा है- ‘उत्सव प्रियः मानवाः’. यह उत्सवधर्मिता मनुष्य को नकारात्मक विचारों से हटाकर गुणात्मक सोच व विचार से भरती है. दीपावली भी ऐसा ही पावन त्योहार है. दीपावली बुराई पर अच्छाई की जीत का […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 7, 2018 5:53 AM
सत्य व्यास
लेखक
अंधकार पर विजय का उत्सव
उत्सवधर्मिता मनुष्य की सबसे आदिम प्रवृत्तियों में से एक है. कालिदास ने भी कहा है- ‘उत्सव प्रियः मानवाः’. यह उत्सवधर्मिता मनुष्य को नकारात्मक विचारों से हटाकर गुणात्मक सोच व विचार से भरती है. दीपावली भी ऐसा ही पावन त्योहार है. दीपावली बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है और अंधकार में प्रकाश भरने का आह्वान. दीपावली भारतीय संस्कृति की सर्वधर्मिता और सामूहिक सद्भावना का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए इस प्रकाश पर्व का विशेष महत्व है…
नयी पीढ़ी को दीपावली के दीयों से परिचित कराना जरूरी
देश के औद्योगीकरण का सबसे बड़ा असर यह हुआ कि देश का हृदय अव गांवों से निकलकर शहरों की ओर पलायन करने लगा. इस पलायन ने न सिर्फ रहन-सहन मे परिवर्तन किये, बल्कि तीज-त्योहारों का ढब भी बदला.
परिवेश अब ग्रामीण न था तो त्योहार भी शहरी चोला ओढ़ने लगे. रोशनी का पर्याय दीप न होकर इलेक्ट्रॉनिक लाइट्स हो गये. प्रकाश पर्व मे बाजार जब शामिल हुआ, तो पटाखे रोशनी और हर्ष-उल्लास का नाम हो गये.
एक पूरी पीढ़ी, जिसे आज मिलेनियल्स कहते हैं, अर्थात जिसका जन्म अस्सी के दशक के बाद हुआ हो, उसने पटाखो, झालरों, मोमबत्तियों, दीयों वाली दीपावली देखी और सीखी है. तब जबकि प्रदूषण महज एक शब्द था, वह भी अनसुना.
तब जबकि यह जानकारी न थी कि पटाखों से और शोर से जानवरों पर भी बुरा असर पड़ सकता है, हम खुद भी ऊंची और तीव्र आवाज के पटाखे चलाते थे और दिन में डरे-सहमे जानवरों को देखकर समझ भी नहीं पाते थे.
तब जबकि जितनी लंबी पटाखे की लड़ी हो वह उतना बड़ा सूरमा माना जाता था. इसके लिए हम दो महीने पहले से ही पैसे जमा करते थे और एेन दीपावली के दिन से दो दिन पहले उन्हें खोलकर धूप में इस सोच से सुखाते थे कि उसकी आवाज ज्यादा होगी. सूरज के डूबने का इंतजार साल के किसी दिन उतना नहीं होता था, जितना दीपावली की शाम होता था. शाम हुई और पटाखे शुरू. जिसकी रात पटाखों के साथ लंबी हुई, वह विजेता. मिर्ची बम, अनार, सुतली बम, चरखी, एटम बम, आलू बम, हाइड्रो बम और जाने क्या-क्या और िकतने नाम के पटाखे हुआ करते थे.
मगर आज की तारीख में जब प्रदूषण एक समस्या है, यह सोचना भी लाजिम हो जाता है कि क्या हम स्वस्थ दीपावली नहीं मना सकते. यदि हां तो इसके क्या पर्याय हो सकते हैं.
सोचना यह भी है कि हम अपने बच्चों और अपनी आनेवाली पीढ़ी को किस तरह शिक्षित कर रहे हैं. क्या महज रोशनी और कम धुएं वाले पटाखों से वह आनंद नहीं आ सकता! क्या हम अगली पीढ़ी को इस प्रदूषण से, इस स्मॉग से, इस घुटन से बचाने का यत्न नहीं कर सकते? जरूर कर सकते हैं. बस जरूरत है एक सार्थक कदम की. एक सोच की और आनेवाली पीढ़ी को अपने साथ लेने की.
उन्हें दीपावली की महत्ता से परिचित कराया जाये. उसके पीछे की सोच से जागरूक किया जाये. उसके पीछे की नीति को बताया जाये. कच्ची मिट्टी के इन घड़ों को हम आज जैसे बनायेंगे, वे वैसे ही बनेंगे और यह योगदान उनके लिए ही नहीं, बल्कि हमारे लिए भी उतना ही फायदेमंद होगा. आइए इस वर्ष मिलकर खुशियां मनाएं. बच्चों को साथ लेकर दीये जलाएं.

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