‘द’ से दमन, दान और दया
बल्देव भाई शर्मा... एक बड़ी प्रेरक और रोचक कथा है. एक बार देवता, राक्षस और मानव सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के पास गये और कहा कि पितामह हमें जीवन के कल्याण का मार्ग दिखाएं और कुछ उपदेश दें. ब्रह्मा ने केवल एक शब्द का उपदेश दिया ‘द’. सब परेशान कि इसका क्या अर्थ निकालें. फिर […]
बल्देव भाई शर्मा
एक बड़ी प्रेरक और रोचक कथा है. एक बार देवता, राक्षस और मानव सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के पास गये और कहा कि पितामह हमें जीवन के कल्याण का मार्ग दिखाएं और कुछ उपदेश दें. ब्रह्मा ने केवल एक शब्द का उपदेश दिया ‘द’. सब परेशान कि इसका क्या अर्थ निकालें. फिर ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि व्याख्या तो करिये ताकि हम ठीक प्रकार से समझ सकें और उसका आचरण करें.
तब ब्रह्मा जी ने कहा ‘जयं शिक्षेतु दमं दानं दयामिति’ अर्थात देवताओं के लिए ‘द’ का उपदेश है दमन इसलिए कि वे भौतिक लालसाओं का दमन करें ताकि उनका देवत्व केवल स्वर्गिक भोग-विलास में ही न रमा रहे बल्कि वे जनकल्याण के लिए भी कुछ कर सकें. ब्रह्मा जी ने मानव के लिए ‘द’ का अर्थ बताया दान ताकि वह दूसरों के दुख दूर करने में, अभावग्रस्त लोगों की भलाई करने में सहायक बन सकें. इसी को परोपकार कहा गया है और इसी से मानव जीवन सार्थक होता है.
कई दशक पहले एक फिल्म आयी थी ‘अधिकार’ जिसमें अभिनेता प्राण कव्वाली गाते दिखते हैं- ‘जीना तो है उसी का जिसने ये राज जाना/है काम आदमी का औरों के काम आना’.
यानी आदमियत का अर्थ ही है दूसरों की फिक्र करना. इसीलिए हमारे उपनिषदों भी जीवन का मंत्र बताया गया ‘परस्परं भावयंतं’ यानी हम एक दूसरे की भाव-भावना का ख्याल कर जीएं. जब सब एक दूसरे के हृदय में स्थान पर जायेंगे तो कौन-किसको दुख देगा?
तब सब दूसरों के सुख में ही अपना सुख मानेंगे और देखेंगे. ऐसे में स्वार्थ, ईर्ष्या, क्रोध जैसे विकार रहेंगे ही नहीं. तब समाज सद्गुण-सदाचार से युक्त बनेगा यानी यह धरती ही स्वर्ग बन जायेगी. हमारे ऋषियों ने मनुष्य को यही जीवनदृष्टि दी है जो वेद, प्राण, उपनिषदों के आख्यानों में मौजूद है. इसलिए ब्रह्मा जी ने मानव जाति को दान करने का उपदेश दिया.
राक्षस की तो वृत्ति ही दुष्टतापूर्ण बतायी गयी है यानी जो दूसरों के अधिकारों का बल या छल से हनन करें. जो अपने सुखोपयोग के लिए दूसरों को दुख देने में भी न हिचके, चाहे उसे इसके लिए नृशंसतापूर्वक हिंसा ही क्यों न करनी पड़े. ऐसी प्रवृत्ति के लोगों के लिए दया ही एकमात्र उपाय है जिससे वे अपनी दुष्टता से उबर कर दूसरों के सुख और हित के लिए भी कुछ सोचें और करें. महर्षि व्यास ने जीवन के दो मुख्य सिद्धांत बताये हैं. ‘व्यासस्य वचनं द्वय परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम्’. जीवन में पुण्य प्राप्त करना है तो दूसरों की भलाई करो और पाप के भागीदार बनना है तो दूसरों को पीड़ा या दुख दो.
इसी विचार को बाद में संत तुलसीदास ने श्रीराम चरित मानस में व्यक्त करते हुए लिखा- ‘परहित सरसि धरम नहिं भाई/परपीड़ा सम नहिं अधमाई’. ये बातें कोई नयी नहीं है वास्तव में अधिकतर लोग इन्हें न केवल लगातार सुनते व जानते हैं बल्कि दूसरों को बताते भी हैं, परंतु जीवन में इन विचारों का पालन या आचरण कुछ लोग ही करते हैं.
दरअसल विचार या सोच कितना ही अच्छा हो, यदि उन पर आचरण या अमल नहीं किया जा रहा है तो वे निरर्थक हैं. ब्रह्मा जी ने राक्षसी वृत्तियों की एक ही काट बतायी ‘दया’. कहा भी गया है ‘दया धरम का मूल है, पाप मूल अभिमान.’ दूसरों के प्रति यदि दया भाव जाग्रत हो जाता है तो हमारे मन और जीवन की सारी बुराइयां धीरे-धीरे खत्म होने लगती हैं. धर्ममय जीवन बनाना है तो दया उसकी पहली सीढ़ी है.
आज जिन सामाजिक या मानवीय बुराइयों और अपराधों से मानवता त्रस्त है वे राक्षसी वृत्तियों की ही उपज हैं जो अपने सुख या स्वार्थों के लिए दूसरों को फलता-फूलता नहीं देखना चाहतीं. यदि उनके मन में दया भाव उत्पन्न हो जाये तो ये पूरी सृष्टि ही सुखमय बन जायेगी. इसी के अभाव में तो साम्राज्यवाद और नस्लवाद जैसी मानव विरोधी प्रवृत्तियां पनपती हैं. इसीलिए ब्रह्मा जी ने राक्षसों को मूलमंत्र दिया दया. जैन मत का तो सार ही है जीवों पर दया करो. सृष्टि में सब एक-दूसरे के पूरक हैं. सबका सह-अस्तित्व ही सृष्टि का संतुलन बनाये हुए है.
मानवी प्रवृत्ति के ह्रास और दानवी वृत्ति के बढ़ने से हम अपने स्वार्थ और सुख के लिए किसी की भी बलि चढ़ाने के आदी होते चले गये. यहां तक कि जल, जंगल, जीव-जंतु, पशु सब हमारी लिप्साओं के शिकार हो गये और आज मनुष्यता पर ही संकट आ खड़ा हुआ है. इसलिए इन राक्षसी वृतियों का शमन दया भाव बढ़ाने से ही संभव है. किसी पर दया दिखाने का अर्थ उसकी लाचारी पर रहम खाना नहीं है, बल्कि उसके प्रति सम भाव रख कर उसके उन्नयन में सार्थक भूमिका निभाना है.
किसी के प्रति दया दिखाना या दान देना उस पर एहसान करने जैसा नहीं है बल्कि उसके प्रति कृतज्ञ होना है कि उसकी वजह से हमें अपनी मनुष्यता को सार्थक करने का मौका मिला. इसी से हम मनुष्यता के उच्च सोपान की ओर बढ़ते हैं. रहीम जितने श्रेष्ठ कवि हुए हैं, उनके दान के चर्चे भी खूब थे. कबीर दास तक भी यह चर्चा पहुंची तो उन्होंने पूछ लिया किसी को दान देते समय आपके हाथ तो ऊपर उठते हैं लेकिन आंखें झुकी होती हैं- ‘ऐसी देनी देन जू कित सीखे हो सेन/ज्यों-ज्यों कर ऊंचो करें त्यों-त्यों नीचे नैन.’
रहीम ने बड़ी विन्रमता से इसका उत्तर दिया- ‘देनहार कोई और है भेजत जो दिन-रैन/लोग भरम हम पर करें तासों नीच नैन.’ यानी देनेवाला तो कोई और है, उसी ने मुझे इतना समर्थ बनाया है कि मैं किसी को कुछ दे सकूं. लेकिन लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूं, इसी संकोच से मेरी आंखें झुक जाती हैं.
वास्तव में किसी की सेवा का अवसर तो ईश्वर हमें देता है. वैसा करने की सामर्थ्य भी हमें ईश्वर से ही मिलती है. इसलिए दया, सेवा या दान का मौका मिलने पर हमारे मन में अहंकार नहीं, विनम्रता होनी चाहिए. आजकल तो दया-दान करते समय लोग इस बात का भी खूब ख्याल रखते हैं कि लोग जानें कि यह उसने किया है.
इसके लिए नाम पट्ट लगवाये जाते हैं, यह उनका अहंकार ही है जो दया और दान के माध्यम से अपना नाम चर्चा में लाने का भाव उनमें जगाता है. अन्यथा दान के बारे में कहा जाता है कि दायें हाथ से दें तो बायें हाथ को भी पता न चले, ऐसा गुप्त दान ही श्रेष्ठ माना जाता है.इस कथा में बताया गया है कि जीवन की सार्थकता संयम (दमन), दया और दान से ही है.
दमन का अर्थ अपनी भौतिक लालसाओं पर संयम रखना, अन्यथा उनके फन फैलाने के चलते तो मन में दया और दान जैसे उदात्त भाव आ ही नहीं सकते. हमारे शास्त्रों का यह ज्ञान कभी-कभी बड़े सहज रूप में भी हम तक पहुंचता है, बशर्ते हम उस समझ सकें और उस पर अमल कर सकें. ब्रह्मा जी के ‘द’ का उपदेश इन पंक्तियों में बखूबी समाया हुआ है. काश, हम इस तरह का जीवन जीना सीख सकें.
