हिंदोस्तां हमारा, सारे जहां से अच्छा?
गणतंत्र दिवस करीब है. यह माकूल वक्त है गणतंत्र भारत के 64 साल के सफर पर एक नजर डालने का. पिछले 64 वर्षो में बदले भारत की अनेक उपलिब्धयों पर हम फा कर सकते हैं. हालांकि देश के आम आदमी के जीवन में पेश आनेवाली भूख, गरीबी, बेकारी, असुरक्षा, भ्रष्टाचार जैसी अनेकानेक समस्याएं इन उपलब्धियों […]
गणतंत्र दिवस करीब है. यह माकूल वक्त है गणतंत्र भारत के 64 साल के सफर पर एक नजर डालने का. पिछले 64 वर्षो में बदले भारत की अनेक उपलिब्धयों पर हम फा कर सकते हैं. हालांकि देश के आम आदमी के जीवन में पेश आनेवाली भूख, गरीबी, बेकारी, असुरक्षा, भ्रष्टाचार जैसी अनेकानेक समस्याएं इन उपलब्धियों को मुंह भी चिढ़ा रही हैं. बावजूद इसके लोकतंत्र में हमारी आस्था लगातार मजबूत हुई है. संविधान लागू होने के 64 साल बाद कुल मिला कर कैसी है बदलते भारत की तसवीर, देश के कुछ जाने-माने बुद्धिजीवियों से बात कर यही जानने की कोशिश की है वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ला ने.
अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी
–मार्क टुली-
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक)
तमाम विसंगतियों के बावजूद भारत दुनिया का बेजोड़ देश है. यहां का समाज, इतिहास, परंपराएं आदि तो बेमिसाल हैं. एक बार आप भारत से जुड़ते हैं, तो यह देश आपको गले लगा लेता है. मेरे साथ यही हुआ. यहां की विविधता भी बेजोड़ है. सबसे बड़ी बात यह है कि लोकतंत्र की जड़ें यहां गहरा रही हैं. मैं मानता हूं कि मुझे भारत ने अपना बनाया. मैं इसे विधि का विधान ही मानता हूं. बीबीसी ने मुझे भारत क्या भेजा, मैं यहां का ही हो गया. बीबीसी से 1994 में रिटायर होने के बाद मैंने यहीं रहने का निर्णय लिया. तब तक मुझ पर भारत का रंग इतना चढ़ गया था कि मेरे लिए इसे छोड़ना नामुमकिन था. दोस्तों के प्यार के चलते मेरे लिए वापस जाने का कोई मतलब ही नहीं था. अगर मैं चला भी जाता तो इनकी याद मुङो वापस यहां बुला लेती. हां, भारत में ब्यूरोक्रेसी और ज्यूडीशियरी कमोबेश उसी तरह से चल रही है, जैसे अंगरेज छोड़ कर गये थे. यह अहम पहलू थे ब्रिटिश राज के.
कई बार लोग पूछते हैं कि बीते सालों में कितना बदला भारत? मेरा जवाब होता है अब मौसम का मिजाज बदल गया है. अगर आप दिल्ली की बात करें तो यहां का जाड़ा अब पहले की तरह से रूमानी नहीं रहा. गरमी बहुत तीखी हो गयी है. हर जगह भीड़ दिखती है. हां, नौकरी के अवसर बढ़े हैं. पिछड़े वर्गो को भी अवसर मिलने लगे हैं. लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. नौकरियों से लेकर स्कूल-कालेजों में दलितों-पिछड़ों को आरक्षण मिलना इस बात का प्रमाण है कि सरकारें वंचितों, दबे-कुचलों को लेकर अपनी जिम्मेवारी को समझती हैं. इसका श्रेय संविधान निर्माताओं को भी जाता है.
आप भारत और पाकिस्तान के संसदों को देख लीजिये. दोनों के सांसदों के चेहरों को देख कर समझ आ जायेगा कि यहां पर समावेशी विकास हो रहा है. पाकिस्तान में सिर्फ एलीट और धनी ही संसद में पहुंच रहे हैं. भारत में पिछड़ों, गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों को भी संसद में जाने का मौका मिल रहा है. मैं इसे बड़े बदलाव के तौर पर देखता हूं. मैं यह भी मानता हूं कि ब्रिटिश राज के चलते हिंदुस्तानी अंगरेजी को बेहतर तरीके से जान सके. हालांकि, यह भी सच है कि इस वजह से भारतीयों ने अपनी भाषाओं की अनदेखी की. मेरा यह भी मानना है कि आम तौर पर भारतीयों में विभिन्न भाषाओं को जानने की जबरदस्त क्षमता है. सामान्य भारतीय दो-तीन भाषाएं जानता है. यह कोई छोटी बात नहीं है.
भारतीयों ने मुझे जिस प्रकार से अपने दिल में बिठाया-बसाया, उससे मुझे लगता है कि मैं कोई खास इनसान हूं. इसीलिए मैंने कभी वापस ब्रिटेन लौटने के बारे में सोचा ही नहीं. वैसे, मेरी एक बहू और दामाद हिंदुस्तानी ही हैं. इसलिए अब मुङो ब्रिटेन लौटने के लिए कौन कहेगा? हां, बीच-बीच में ब्रिटेन चला जाता हूं. आप जैसे लोगों की वजह से मुझे ध्यान आ जाता है कि ब्रिटेन से भी मेरा रिश्ता है.
बढ़ रहा मध्य वर्ग, पर गांवों की हो रही अनदेखी
-रामचंद्र गुहा-
(जाने-माने इतिहासकार)
गांधी के बाद के भारत पर नहीं, मैं मौजूदा भारत के गांव पर फोकस करना चाहूंगा. गांधी दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत आते ही गांवों की सामाजिक व आर्थिक हालातों से प्रत्यक्ष तौर पर रूबरू होने में लग गये. बिहार के चंपारण से गुजरात के खेड़ा तक अपनी यात्रओं के जरिये गांधीजी ने भारतीय गांवों में 1917 और 1918 में देशवासियों के हालात को नजदीक से देखा. किसानों द्वारा प्रारंभिक सत्याग्रहों के दौरान गांधी ने उपनिवेशवाद को एक आर्थिक शोषण और जातीय विभेद की व्यवस्था के रूप में देखा. पर अफसोस कि देश के आजाद और गणतंत्र होने के बाद भी नीति-निर्माताओं के फोकस में नहीं रहा गांव और ग्रामीण समाज. जरा बताइये कि कितने नेता गांवों की खाक छानते हैं. मैं मानता हूं कि आर्थिक उदारीकरण से जहां देश में मिडिल क्लास का विकास व विस्तार हुआ, वहीं गांव अपनी जगह पर बना रहा. यह स्थिति दुखद है. मैं मानता हूं कि वक्त का तकाजा है कि सरकारें देश के गांवों को अपनी नीतियों में जगह दें. केवल बातें करने से बात बननेवाली नहीं है.
गांधी ने गांवों के बारे में कहा था- ‘ग्रामीण रक्त ही वह सीमेंट है, जिससे शहरों की इमारतें बनती है.’ (हरिजन, 23 जून, 1946). चूंकि सभी दल गांधी को अपना आदर्श मानते हैं, तो यह जरूरी है कि वे उनकी गांवों को लेकर सोच को समङों. आजकल बड़े उद्योगों की स्थापना के रास्ते में पर्यावरण मंत्रलय से मिलनेवाली हरी झंडी के विलंब को लेकर तगड़ी बहस चल रही है. एक पक्ष पर्यावरण के अंधाधुंध विनाश का विरोध करता है, तो दूसरा विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने की भी दबी जुबान से वकालत करने से परहेज नहीं करता. इस संदर्भ में गांधी से प्रभावित भारत के पर्यावरणीय आंदोलन को देखने की जरूरत है. यह आंदोलन 1973 में चिपको आंदोलन के साथ शुरू हुआ. मैं मानता हूं कि गांधी के असर ने हिमालय के वृक्षों को बचाया गया है. तब से महात्मा गांधी पर्यावरणीय आंदोलन के संरक्षक संत की भांति माने जाते हैं. चिपको आंदोलन से नर्मदा बचाओ आंदोलन तक पर्यावरण कार्यकर्ता अहिंसक प्रतिरोध की गांधीवादी तकनीकों पर बहुत अधिक निर्भर हैं और भारी औद्योगिकरण के खिलाफ गांधी के विचारों से इन्होंने काफी कुछ लिया है. यह कहना उचित प्रतीत होता है कि पर्यावरण आंदोलन पर सर्वाधिक एकमात्र महत्वपूर्ण प्रभाव गांधी के जीवन और व्यवहार का है.
मेरा मानना है कि संविधान लागू होने के छह दशक बीत जाने के बाद भी हम अपने ग्रामीण भारत को लेकर नहीं जागे तो फिर कब जागेंगे. मैं देश के चिंताशील नहीं होने के चलते निराश हूं. मैं मानता हूं कि नेताओं में सोच की कमी से देश बीमार हुआ. भारतीय राजनीति आज जिस दिशा में चल रही है, वह क्यों? मैं मानता हूं कि हमारे यहां सोचने की क्षमता रखनेवाले राजनेताओं की कमी है. सुभाष चंद्र बोस और सरदार वल्लभ भाई पटेल भले ही ज्यादा चिंतनशील नहीं थे, लेकिन उन्होंने जो काम किये, वे देश के निर्माण में काम आये. इंदिरा गांधी अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू से पूरी तरह इतर थीं. उनके भाषण और लेख कतई अच्छे नहीं होते थे. वहीं दयानंद सरस्वती, दादाभाई नौरोजी, स्वामी विवेकानंद तथा एस राधाकृष्णन ने कई पीढ़ियों तक अपना प्रभाव छोड़ा. देश को इस वक्त इस तरह के नेता चाहिए जो मूलभूत तरीके से सोच सकें व लिख सकें. या फिर एकदम अलग तरीके से भारतीय समाज का मार्गदर्शन कर सकें.
लोगों में पढ़ने की ललक बढ़ी है
-रस्किन बॉन्ड-
(कहानीकार व लेखक)
आर्थिक सुधारों की तीव्र गति ने भारत को दुनिया के सामने एक ऐसे देश के रूप में स्थापित कर दिया है, जहां चौतरफा विकास की भारी संभावनाएं देखी जा रही हैं. बाजारवाद के हो-हल्ले के बावजूद आम भारतीय की शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं. ये परिवर्तन आज भले ही मध्यवर्ग तक सीमित दिखते हों, इनका लाभ आनेवाले समय में नीचे तक पहुंचेगा. भारत से अपने संबंधों को मैं संक्षिप्त में रेखांकित करूंगा. मैंने कभी माना ही नहीं कि मैं हिंदुस्तानी नहीं हूं. आजादी के समय भारत में रहनेवाले यूरोप के नागरिकों ने यहां से जाना शुरू कर दिया. मेरी उस वक्त उम्र 12 साल थी. मैं भी अपनी मां के साथ इंगलैंड लौट गया. वहां पहुंचते ही मुङो देहरादून और मसूरी याद आने लगा. जिसे मुङो मेरा देश बताया जा रहा था, वहां एक दिन रहना भी मुश्किल हो रहा था. कुछ सालों बाद मेरी एक किताब के छपने की एवज में मुङो 50 पाउंड मिले. इतना पैसा काफी था वापस भारत आने के लिए. मैं भारत लौट आया. लोग मुझसे पूछते हैं कि पिछले बीस सालों में भारत में किस तरह के बदलाव महसूस हुए? मैं मानता हूं कि बड़े स्तर पर बदलाव देखने में आ रहे हैं. साक्षरता बढ़ी है. लोगों में साक्षर होने की प्यास ज्यादा हो गयी है. एक सवाल अकसर मुझसे लोग पूछते हैं कि भारतीय जीवन की कौन सी बातें आपको भारत से जाने से रोकती हैं? आपसी रिश्तों और स्नेह व सम्मान का जो माहौल भातर में है, वह कहीं अन्यत्र नहीं देखा जा सकता. हिंदुस्तानी आपके मेजबान और मेहमान बनने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. यह सब आपको पश्चिमी देशों में देखने को नहीं मिलेगा. उन देशों में यारी-दोस्ती और गप्पबाजी के लिए जगह नहीं है. इसलिए मैं भारत को छोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचता हूं.
मुसलमान पीछे नहीं छूटने चाहिए
।। अबू सालेह शरीफ।।
(प्रसिद्ध अर्थशास्त्री)
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि बीते दशकों में देश में तरक्की हुई है और उसका लाभ मुसलमानों को भी मिला है. सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए कई नीतियां बनायीं. इस दिशा में और ठोस प्रयासों की जरूरत है. सच्चर आयोग की रिपोर्ट का निष्कर्ष रहा कि मुसलमानों की आर्थिक हालत दलितों से भी बदतर है. जहां 27 फीसदी हिंदू गरीबी रेखा से नीचे हैं, वहीं 45 फीसदी मुसलमान गरीबी की रेखा से नीचे हैं. मुल्क की 500 बड़ी कंपनियों में सिर्फ नौ फीसदी मुसलमानों की हैं. मुल्क की पार्लियामेंट में इनकी आबादी के हिसाब से 74 सांसद होने चाहिए और हैं महज 29. आजादी के वक्त जिस कौम की सरकारी नौकरियों समेत पुलिस में 35 से भी ज्यादा हिस्सेदारी थी, आज वह घट कर तीन फीसद से भी कम हो गयी है. ये आंकड़े बहुत कुछ बताते हैं. मुङो अफसोस है कि मुसलमानों को वोट बैंक समझने का सिलसिला खत्म नहीं हो रहा है. मेरा मानना है कि भारत की विकास यात्र में कोई छूटना नहीं चाहिए. बॉलीवुड के कुछ बड़े सितारों की कामयाबी से देश के मुसलमानों की स्थिति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. नेताओं से एक शेर के जरिये सवाल करना चाहता हूं- ‘तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कारवां क्यों लुटा, मुङो रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है.’ भारत के संविधान निर्माताओं ने देश को इस तरह का संविधान दिया, जो देश को समावेशी विकास की तरफ लेकर जाता है. मेरे जैसे गरीब मुसलमानों को इस देश ने तमाम अवसर दिये आगे बढ़ने के. मैं यह कतई नहीं कहूंगा कि मुसलमानों के साथ इंसाफ नहीं हो रहा. मैं चाहता हूं कि इनकी स्थिति को देखते हुए इन पर फोकस होना चाहिए. हां, इन्हें भी खुद को नये भारत के लिए तैयार करना होगा. ये हमेशा आरक्षण की मांग नहीं कर सकते.
आम आदमी की बढ़ती भागीदारी
।। आशीष नंदी।।
(प्रसिद्ध समाजशास्त्री)
दिल्ली में आम आदमी पार्टी का सत्ता पर काबिज होना बहुत कुछ कहता है. इसका संदेश साफ तौर पर पढ़ा जा सकता है कि भारतीय अवाम की सत्ता में भागीदारी बढ़ रही है. जनता का अपने मताधिकार का प्रयोग करने में बढ़ा उत्साह बहुत कुछ कहता है. यानी देश में लोकतंत्र की जड़ें तेजी से गहरी हो रही हैं. मैं मानता हूं कि लोग बदलाव चाहते थे. अब मैं बात करूंगा सेक्युलरिज्म की. इस शब्द का हमारे सार्वजनिक जीवन में प्रयोग बढ़ा है. सभी राजनीतिक दल इस शब्द का अपने-अपने लाभ के हिसाब से इस्तेमाल करते हैं. हालांकि, हमारे यहां सेक्युलरिज्म पर विमर्श खासा होता है, पर इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि फिर भारत में हिंदू राष्ट्रवाद और इसलामिक व अन्य धर्मो के भीतर कट्टरता क्यों अपने पैर जमा रही है. देश के गांवों में सहिष्णुता का पाठ सेक्युलरिज्म का चश्मा पहन कर पढ़ाना गलत है. अशोक, अकबर, कबीर, गांधी को सहिष्णुता पर बात करने के लिए सेक्युलरिज्म की बैसाखी की जरूरत नहीं पड़ी. ये यूरोपीय विचार हैं और हमें इससे बहुत प्रभावित होने की जरूरत नहीं. मेरी चिंता इस बात को लेकर भी है कि हम वैकल्पिक राय व विचारों को पसंद नहीं करते. लोकतंत्र में बहस, चर्चा, मंथन को स्पेस मिलना चाहिए. हमें उन विचारों को भी सुनना चाहिए, जिनसे हम सहमत नहीं हैं. बीते साल जयपुर साहित्य महोत्सव में मेरी एक टिप्पणी पर हंगामा हुआ. मैंने अपनी बात जिस परिप्रेक्ष्य में रखी थी, उसे उस तरह से नहीं देखा गया. हमें अलग राय को तवज्जो देनी चाहिए. संविधान सबको अभिव्यक्ति की इजाजत देता है. हमारा संविधान एक प्राणवान दस्तावेज है. उसकी रचना में सैकड़ों देशभक्तों और बुद्धिजीवियों के दिल धड़कते हैं. इसका अनादर करना गलत है. पूरी दुनिया बदल रही है, तो भारत क्यों नहीं बदलता.
