ना युवा, ना भटके.. मात्र भ्रष्ट!
।। पी जोसफ।।... तबादले, प्रमोशन और पोस्टिंग के नाम पर झारखंड में खेल चल रहा है. यहां की प्रशासनिक व्यवस्था को अंदर और गहराई से समझनेवाले एक व्यक्ति ने इसी संदर्भ में प्रभात खबर को एक टिप्पणी भेजी है. यह झारखंड की हकीकत को बताता है. पढ़िए. कुछ दिन पूर्व ‘ प्रभात खबर ’ में […]
।। पी जोसफ।।
तबादले, प्रमोशन और पोस्टिंग के नाम पर झारखंड में खेल चल रहा है. यहां की प्रशासनिक व्यवस्था को अंदर और गहराई से समझनेवाले एक व्यक्ति ने इसी संदर्भ में प्रभात खबर को एक टिप्पणी भेजी है. यह झारखंड की हकीकत को बताता है. पढ़िए.
कुछ दिन पूर्व ‘ प्रभात खबर ’ में एक समाचार प्रकाशित हुआ था. शीर्षक था ‘ राह भटकते युवा आइएएस एवं आइपीएस. यह लेख / रिपोर्ट झारखंड के भटकते युवा आइएएस-आइपीएस से संबंधित था. उक्त समाचार में झारखंड के कुछ युवा भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं भारतीय पुलिस सेवा के पदाधिकारियों के कारनामों को उल्लेखित किया गया था. पढ़ कर मन खिन्न हुआ तथा उद्वेलित भी. सरदार पटेल द्वारा जिन सेवाओं को भारत की अखंडता को मजबूत करनेवाली ‘स्टील फ्रेम’ कहा गया था, उसकी ऐसी दुर्दशा. इतने कठिन परिश्रम से यूपीएससी की परीक्षा पास करने के बाद इन सेवाओं में प्रवेश मिलता है. क्या यह परिश्रम इस प्रकार की आलोचना ङोलने के लिए किया गया था? आखिर हम इस मुकाम तक क्यों पहुंचे? इस बिंदु पर गहन चिंतन की आवश्यकता है.
झारखंड में तो कुछ अधिकारियों द्वारा सारी सीमाएं लांघी जा रही है. आज स्थिति यह है, कि एक-दो को छोड़ कर किसी जिले के उपायुक्त के संबंध में वहां के नागरिकों में आदर, सम्मान अथवा भय नहीं देखा जाता. पांच साल पहले तक ऐसी स्थिति नहीं थी. कुछ उपायुक्त तो ऐसे थे, जिनका लोग अत्यधिक सम्मान करते थे. उनकी कही बात को मानते थे.आज भी जिलों में उन्हीं पदाधिकारियों को लोग याद भी करते हैं. जिलों अथवा अनुमंडलों में सीधे नियुक्तिवाले भाप्रसे अथवा भापुसे पदाधिकारी के पदस्थापन से लोगों में एक विश्वास जगता था. वे निर्भीक होकर अपनी समस्याएं प्रशासन के समक्ष रखते थे. आज स्थिति एकदम उलटा है. युवा पदाधिकारी मात्र उम्र से युवा हैं, विचारों से नहीं. दरअसल ‘युवा’ एक मानसिक अवस्था है. मात्र सफेद बालों अथवा चेहरे की झुर्रियों से कोई बूढ़ा नहीं होता. ठीक उसी तरह, केवल कम उम्र से कोई युवा नहीं हो सकता. आज के पदाधिकारी जनता से, नागरिकों से तो मिलना भी नहीं चाहते. दरअसल उन्हें उसी जनता से भय लगता है, जिनकी कथित रूप से ‘सेवा’ करने के लिए ये अधिकारी बनते हैं. आज कोई उपायुक्त/पुलिस अधीक्षक अथवा अनुमंडल पदाधिकारी को जनता का सामना करते नहीं देखा जाता. घटनास्थल पर जाना नहीं चाहता. पहले कनीय पदाधिकारियों को आगे करते हुए, पुलिस की सहायता से ये लोग घटनास्थल पर पहुंचते हैं. कुछ अधिकारी तो इससे भी आगे हैं. उनसे मोबाइल पर भी बात नहीं की जा सकती. जबकि यह मोबाइल सरकारी है. इनके मासिक विपत्र करदाताओं के पैसे से दिये जाते हैं.
अखिल भारतीय सेवाओं में प्रवेश के साथ, सभी पदाधिकारी एक शपथ लेते हैं. देशनिष्ठा, सत्यनिष्ठा एवं जनसेवा की शपथ. किंतु अकादमी से बाहर आते ही, जनसेवा की दुहाई देनेवाले युवा अधिकारी अपनी पोस्टिंग को लेकर चिंतित हो जाते हैं. आजकल तो प्रोबेशन के दौरान प्रशिक्षण के लिए जिलों के चयन में भी पैरवी होने लगी है. सभी को मात्र धनबाद, बोकारो, जमशेदपुर जैसे स्थानों पर जाना है. प्रथम पोस्टिंग से ही अपने वरीय पदाधिकारी को ‘मैनेज’ करने की कला तुरंत सीख लेते हैं. जनता को भूल कर जन-प्रतिनिधि की सेवा में ज्यादा रुचि ली जाती है. कोई भी निर्णय लेने के पूर्व स्थानीय विधायक अन्य नेताओं के विचारों का पूर्ण ध्यान रखते हुए कार्य करते हैं. पूछने पर अत्यंत बेशर्मी से कहते भी हैं कि ‘ स्थानीय नेताओं का दबाव था! क्या करें.’ किसी काम के लिए कहो तो तुरंत जवाब मिलता है, ‘‘देखते हैं! ‘‘कुछ तो सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से भी कतराते हैं. वहीं कुछ फेसबुक पर अपने कार्यो का स्वयं ही गुणगान करते रहते हैं. उनके कुछ उपकृत व्यक्ति तुरंत इन पोस्ट को ‘छ्री’ करके, उन पर कमेंट करके अपनी निष्ठा का प्रदर्शन भी करते हैं. कुछ खाली घोषणाएं करने में व्यस्त रहते हैं. सामान्य प्रशासनिक कार्यो के तरफ इनका ध्यान नहीं है. अधीनस्थ कार्यालयों का निरीक्षण तो लगभग बंद ही हो चुका है. नियमित योजनाओं की समीक्षा, निरीक्षण भी कुछ ही जिलों में देखा जाता है. नतीजा यह है कि जाति/जन्म/आय प्रमाण पत्र जैसे सामान्य कार्यो के लिए भी जनता को कठिनाई का सामना करना पड़ता है.
अभी हाल ही में एक युवा अधिकारी ने अवैध खनन में संलिप्त कुछ ट्रकों को पकड़ लिया. तुरंत उनके युवा उपायुक्त अवैध खनन करनेवालों के पक्ष में कूद पड़े. प्राथमिकी दर्ज करने से रोका गया. इस पदाधिकारी द्वारा तो पहले भी पदस्थापन में ‘संग्रहण’ जैसे अभियान चलाया गया है. भू-अजर्न के सभी मामलों में भुगतान को रोकते हुए, रैयतों को खोज रहे हैं; ताकि इनके ‘वार्षिक लक्ष्य’ को आसानी से प्राप्त हो सकें. अभी यह पदाधिकारी एक कोयला क्षेत्र में जाने के लिए काफी प्रयासरत हैं. वे कहते भी हैं कि दिल्ली में फ्लैट बुक किया है, राशि चाहिए. दो वर्ष पूर्व एक दूरस्थ जिले में उपायुक्त आवास से चार लाख रुपये नकद के साथ एक कर्मचारी चंपत हो गया. अब शिकायत कैसे करें, किससे करें! काफी खोजबीन के बाद भी वह कर्मी नहीं मिला. जिला पुलिस ने अंतत: उसे खोजा, पर पैसा नहीं मिला. कुछ दिनों के बाद वह कर्मी संदेहास्पद तरीके से मृत भी हो गया. उपायुक्त एक अन्य जिले में पहुंचे. वहां भी किसी तरह से कोई कसर नहीं छोड़ी. निजी कंपनियों की भरपूर सेवा की. मामला ज्यादा बढ़ने पर, जिले से हटाये गये. अभी वे भी धनबाद एवं जमशेदपुर पर दावं लगा दिये हैं. पांच करोड़ तक देने के लिए तैयार हैं. पर किसी बड़े जिले के बिना नहीं मानेंगे.
पुलिस के एक पदाधिकारी तो बाकायदा जमीनों के सौदे कराते हैं. इनके द्वारा अपने ही कनीय पदाधिकारी से पदस्थापन के लिए राशि वसूलने की भी सूचना है. हद तो तब हुई, जब अफसरों द्वारा बनायी गयी सोसाइटी के लिए भूमि खरीदने के मामले पर भी इनके द्वारा अपना हिस्सा तय कर दिया गया. महिला पदाधिकारियों से जनता ज्यादा उम्मीद रखती है. यहां तो महिला अधिकारी भी पुरुषों से कहीं कम नहीं. एकदम बेखौफ होकर, निर्भीकता से अपने कार्यो में ये सभी युवा अधिकारी रत हैं. उन्हें यह विश्वास है कि वे पैसे से, पैरवी के बल पर सभी को ‘ मैनेज कर सकते हैं. सरकार चाहे जो भी हों. विधानसभा में जितनी चर्चा हो, कार्रवाई कुछ नहीं. सभी युवा अधिकारी अपने आकाओं की ‘छत्रछाया’ में अपना कार्य तत्परता से कर रहे हैं. इनका एकमात्र धर्म है, पद व सुविधाएं. जनता के कार्यो से कोई सरोकार नहीं है. जैसे सभी गांधीजी के बंदर बन बैठे हैं. आंख, कान एवं मुंह को बंद कर! पहले तो राज्य के मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव समीक्षा बैठक करते थे, तो अफसर थरथर कांपते थे. बैठक में अपने जिलों के प्रशासन पर टिप्पणी नहीं हो, इस पर सतर्क रहते थे. अभी तो ऐसी समीक्षा बैठकों एक सम्मेलन जैसे होती है. अधिकारी समीक्षा की जगह तर्क-वितर्क करते देखे जाते हैं. काम नहीं करने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं. यही नहीं, उलटे सरकार को ही सुधार के लिए ‘सलाह’ भी देते हैं. और सभी आला-अधिकारी मात्र ‘गरदन’ हिलाते रहते हैं. आखिर वे भी क्या करें! जब हमारी पदस्थापना पैरवी पर हो रही हैं. तो किसी पर कार्रवाई करने का प्रश्न ही कहां है? तभी तो नेतागण अधिकारियों के नाम पर लिख कर, उनके पदस्थापन के लिए पैरवियां लिखते हैं और यह पूर्णत: जायज माना जाता है.
अत: सभी अपने भविष्य को सुरक्षित करने में मग्न हैं. कुछ पदाधिकरियों पर जांच भी हुई, रिपोर्ट भी आयी, पर कार्रवाई के नाम पर मात्र खानापूर्ति की गयी. किसी भी अन्य राज्य में ऐसे मामलों में निश्चित कार्रवाई होती. किंतु झारखंड में ऐसी कोई तत्परता महसूस नहीं की जाती. कोई इन अधिकारियों पर कार्रवाई के लिए प्रयास भी नहीं करता.
स्पष्ट है कि ऐसे में इन युवाओं का मनोबल बढ़ते जाता है. वे और बेखौफ होकर अपने हितों को साधने में लग जाते हैं. स्थिति हो गयी है कि यदि कोई अफसर अपने नियमित कार्यो को करता रहे, सामान्य कार्यो में पैसे नहीं ले, तो नागरिक उसे उत्कृष्ट पदाधिकारी कहते हैं. क्योंकि कुछ तो पैसे लेने के पश्चात भी काम नहीं करते! एक प्रश्न यह भी है कि अधिकारी इन पैसों का करते क्या हैं, क्योंकि सरकार में रह कर कुछ हद तक ही दिखावा हो सकता है. चमकती कारें, आलीशन बंगले तो न खरीदे जा सकते न उसमें ये लोग रह सकेंगे. क्योंकि यह सब तुरंत लोगों की नजर में आयेंगे. फिर मात्र अपने भावी पीढ़ियों के लिए ये इतनी जिल्लत क्यों उठा रहे हैं? जिस मेहनत से गलत तरीके से पैसा कमा रहे हैं, उसका उपभोग तो कर सकते नहीं, फिर क्यों जनता के हिस्से में सेंधमारी कर उनकी हाय ले रहे हैं. कहां गये वे उत्साही, युवा अधिकारी जो जनता के हितों के लिए निडर होकर खड़े रहते हैं.
जो स्वार्थी नेताओं से नहीं डरते थे. पदों की चिंता छोड़ कर कार्यो में विश्वास रखते थे. लगता है, अब ऐसे अधिकारी बचे ही नहीं, जो अपने अधिकारों का उपयोग करना चाहते हो, या कर रहे हों. मात्र कम उम्र के होने से इन्हें युवा कहना, युवावस्था का अपमान है. ये तो अत्यंत अनुभवी खिलाड़ी हैं, जो पहले पदस्थापन से ही अपना रास्ता पकड़ लेते हैं. इन्हें भटके हुए कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि इन्हें तो अपने रास्ते, मंजिलें पूर्व से ही पता है. यह रास्ता उन्होंने सोच-समझ कर चुना है. दुख इसी बात का है कि यह ऊर्जा, उत्साह, कर्मठता जनता के हितों की रक्षा के लिए यहीं दिखाते. उस समय नियम, प्रक्रिया आदेशों का हवाला देते हैं. इन कार्यो से प्रशासन को दोहरा नुकसान हो रहा है, एक तरफ लोगों का प्रशासन पर विश्वास समाप्त हो रहा है और दूसरी तरफ नागरिकों को भी भ्रष्ट होने पर मजबूर किया जा रहा है. जब सामान्य कार्यो के लिए जनता को नेताओं से पैरवी करनी पड़ती है. दलालों से संपर्क करना पड़ता है, तब आम जनता क्या करे. किसकी तरफ देखे. सरकार के आकाओं को तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता. आखिर झारखंड के इन ‘भटके हुए युवा’ अधिकारियों को कान पकड़ कर सही रास्ता कौन दिखाएगा? हमारे राज्य की व्यवस्था, राज्य का गवर्नेस इतना कमजोर क्यों है कि अधिकारी यहां आते ही सबकुछ भूल कर ‘अपने स्वहितधारी’ बन जाते हैं. समाज के प्रबुद्धों को मीडिया को, राज्य के वरीय पदाधिकारियों को इस विषय पर गहन मंथन एवं एक्शन की आवश्यकता है. तब तक नागरिक मात्र यही कह सकते हैं .. ‘वो कुछ कभी तो आयेगी ..’
