‘हमारा राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला आमि तोमाय भालोबाशी’
– तेरहघरिया गांव की हालत में नहीं आया है कोई परिवर्तन... भूगोल बदला, राजनीति बदली, लेकिन लोगों की दशा-दिशा में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ. हम बात रहे हैं बांग्लादेश की. देश का अधिकांश हिस्सा आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. भारत-बांग्लादेश सीमा की स्थिति तो और भी विकट है. सीमा से हाल ही में […]
– तेरहघरिया गांव की हालत में नहीं आया है कोई परिवर्तन
भूगोल बदला, राजनीति बदली, लेकिन लोगों की दशा-दिशा में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ. हम बात रहे हैं बांग्लादेश की. देश का अधिकांश हिस्सा आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. भारत-बांग्लादेश सीमा की स्थिति तो और भी विकट है. सीमा से हाल ही में लौट कर आये वरिष्ठ पत्रकार कृपाशंकर चौबे वहां की ताजा स्थिति से हमें रू-ब-रू करवा रहे हैं. पेश है पहली कड़ी.
बंगाल की सत्ता में ढाई साल से ज्यादा समय से परिवर्तन आया है, किंतु बनगांव के पास तेरहघरिया गांव की हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया है. इस गांव में न सड़क है, न स्कूल, न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र. यह गांव इस पार इच्छामती नदी और उस पार बांग्लादेश से घिरा है.
इस गांव की रहनेवाली पृथा हाल्दार को पढ़ाई करने के लिए प्रतिदिन सुबह पांच बजे पहले नाव से और फिर सड़क से तीन किलोमीटर की दूरी तय कर वनगांव स्कूल जाना पड़ता है. पृथा छठवीं कक्षा में पढ़ती है. गांव के दूसरे बच्चों को भी पढ़ने के लिए इतनी ही मेहनत करनी पड़ती है. पृथा की मां गीता हाल्दार बताती हैं कि सबसे मुश्किल तब होती है, जब गांव का कोई आदमी बीमार पड़ता है.
उसे यहां से नाव से सड़क और फिर सड़क से वनगांव अस्पताल ले जाने के लिए ‘नाकों चने चबाने’ पड़ते हैं. गांव में करीब पचास लोग रहते हैं और उनकी जीविका का मुख्य साधन मछली पकड़ना है.
तेरहघरिया गांव की 70 वर्षीया वृद्धा मिलन हाल्दार कहती हैं-इस जीवन से तो मौत बेहतर है. गांव के बाशिंदे विश्वनाथ हाल्दार, शुभजीत हाल्दार और अलका हाल्दार बताते हैं कि आजादी के बाद आज तक न तो बंगाल सरकार न ही केंद्र सरकार ने उनकी कोई सुधि ली. गांव के लोग जब भी मुश्किल में होते हैं, तो सीमा पर तैनात सीमा सुरक्षा बल के जवान ही मदद पहुंचाते हैं.
तेरहघरिया के पास ही स्थित दोघरिया के लोग भी भारत की स्वतंत्रता के छियासठ वर्षो बाद भी न्यूनतम नागरिक सुविधाओं से वंचित हैं और इसका उन्हें बहुत मलाल है.
यही दृश्य बांग्लादेश की सीमा पर स्थित बंगाल के दूसरे गांवों का भी है. जो तसवीर वनगांव के दोघरिया या तेरहघरिया गांवों की है, उससे भिन्न तसवीर बांग्लादेश की सीमा पर स्थित दक्षिण दिनाजपुर के हिली ब्लॉक के निचले गोविंदपुर गांव की नहीं है.
निचले गोविंदपुर गांव में प्राथमिक स्कूल नहीं होने से वहां की रहनेवाली वृष्टि खातून, ब्यूटी खातून अथवा पापी खातून समेत गांव के तीसेक विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए सीमा पर लगे कंटीले तार पार कर बांग्लादेश स्थित दक्षिण दाउदपुर प्राथमिक विद्यालय जाना पड़ता है.
वैसे निचले गोविंदपुर गांव में स्कूल की पक्की इमारत है. किंतु वहां ताला लटका हुआ है. स्कूल के भीतर धान रखा हुआ है. वर्ष 2006 में केंद्र सरकार की शिक्षा गारंटी योजना के तहत निचले गोविंदपुर गांव में एक मकान के बरामदे में पढ़ाई शुरू हुई. स्कूल की इमारत बनाने के लिए गांव के ही बाशिंदे एजाज मोल्ला ने अपनी जमीन दान की और पिछले साल इमारत बन भी गयी, किंतु पिछले साल ही 31 मार्च को उक्त केंद्रीय परियोजना बंद हो गयी.
गांव में बगैर वेतन लिए काफी दिनों तक दो शिक्षकों मजीद अली मंडल तथा परिमल मंडल ने पढ़ाया, किंतु परियोजना बंद होने के बाद उनका दिल भी बैठ गया. स्कूल बंद हो जाने के बाद इस गांव के बच्चों के पास निकटवर्ती बांग्लादेश के स्कूल में पढ़ाई करने के अलावा कोई चारा न बचा. गांव के करीब तीस बच्चों के पास 15 मिनट पैदल चलकर बांग्लादेश के स्कूल में पढ़ने जाने के अलावा कोई चारा न बचा, क्योंकि इस पार आस-पास कोई स्कूल नहीं है.
निचले गोविंदपुर गांव के बच्चे दिन के बारह बजे से शाम चार बजे तक स्कूल में रहते हैं. उस पार के सुरक्षा जवान भी बच्चों के भविष्य को देखते हुए उन्हें सीमा पार कर पढ़ाई करने आने से नहीं रोकते. ये बच्चे वहां पढ़ते हैं कि उनका राष्ट्रगान है-’’आमार सोनार बांग्ला. आमि तोमाय भालोबाशी.’’ चौथी कक्षा में पढ़नेलाली भारत की बेटियां-ब्यूटी खातून अथवा पापी खातून कहती हैं, ‘‘हमारा राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला है और शेख हसीना हमारी प्रधानमंत्री हैं.’’
(अगले अंक में जारी)
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर तथा कोलकाता केंद्र के प्रभारी हैं)
