प्रथम विश्व युद्ध के 100 वर्ष

प्रथम विश्व युद्ध जुलाई, 1914 के आखिरी सप्ताह में शुरू हुआ था. इस सप्ताह इतिहास के इस क्रूरतम युद्ध के सौ साल पूरे हो गये हैं.कब और क्यों लड़ा गया प्रथम विश्व युद्ध, क्या हुआ इसका नतीजा, इसी दौरान रूस में क्यों हुई बोल्शेविक क्रांति, युद्ध के बाद जर्मनी में हिटलर का कैसे हुआ उदय, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 30, 2014 4:58 AM

प्रथम विश्व युद्ध जुलाई, 1914 के आखिरी सप्ताह में शुरू हुआ था. इस सप्ताह इतिहास के इस क्रूरतम युद्ध के सौ साल पूरे हो गये हैं.कब और क्यों लड़ा गया प्रथम विश्व युद्ध, क्या हुआ इसका नतीजा, इसी दौरान रूस में क्यों हुई बोल्शेविक क्रांति, युद्ध के बाद जर्मनी में हिटलर का कैसे हुआ उदय, भारत और अमेरिका की इस युद्ध में क्या रही थी भूमिका, ऐसे ही महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी दे रहा है आज का नॉलेज..

नयी दिल्ली : ब्रिटेन की सरकार ने वहां के निवासियों से गुजारिश की है कि 4 अगस्त, 2014 को वे रात को 10 बजे से 11 बजे तक अपने घरों में बिजली बंद रखें और पूरी तरह से अंधेरे में रहें. पूरे ब्रिटेन में सोशल मीडिया में भी यह खबर छायी हुई है, जिसमें इस दौरान घरों में मोमबत्ती जलाने के बारे में आग्रह किया गया है.

आप सोच रहे होंगे कि बिजली बंद करना ‘अर्थ ऑवर’ मनाने का हिस्सा हो या फिर बिजली बचत का कोई नया फामरूला. मगर ऐसा बिलकुल नहीं है.

दरअसल, प्रथम विश्व युद्ध को इस माह सौ साल पूरे हो चुके हैं. इसी उपलक्ष्य में समूचे ब्रिटेन में निर्धारित समय पर बत्तियां बंद रखी जायेंगी. ब्रिटेन की संस्कृति मंत्री मारिया मिलर की ओर से हाल में यह घोषणा की गयी है.

ब्रिटेन के विदेश सचिव सर एडवर्ड ग्रे ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा, ‘उस समय समूचे यूरोप में बिजली बंद होनी चाहिए. हम कभी भी ऐसा युद्ध नहीं देखना चाहते.’

क्या रहा कारण प्रथम विश्व युद्ध का

हालांकि, यह सवाल अब भी उलझा हुआ है कि प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत किसने की. सामान्य इतिहास में यह माना जाता है कि सरायेवो में ऑस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या होना प्रथम विश्व युद्ध का तात्कालिक कारण रहा.

डीडब्ल्यू डॉट डीइ के मुताबिक, 28 जुलाई, 1914 को युद्ध के ऐलान वाली एक चिट्ठी वियना से बेलग्रेड भेजी गयी. यह चिट्ठी वक्त से पहले ही लीक हो गयी और विश्व युद्ध के शुरू होने से पहले ही इसकी भनक फैल गयी. फिर आगाज हुआ इतिहास के सबसे भीषण युद्ध का. महीनेभर पहले ही सर्बियाई युवक गावरिलो प्रिंसिप ने आर्चड्यूक फर्डिनांड की बोस्नियाई राजधानी सारायेवो में हत्या कर दी थी.

इसके बाद ही ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया. तब तक सर्बिया की सेना 230 किलोमीटर दक्षिण नीस तक पहुंच चुकी थी. उसे इस बात का अंदेशा हो चुका था कि ऑस्ट्रिया हमला कर सकता है.

तमाम एहतियात के बावजूद इस खत का मजमून लीक हो गया था और पोलिटिका अखबार ने इसे देखते हुए एक इमरजेंसी एडिशन छाप दिया, जिसमें कहा गया कि अब युद्ध को रोका नहीं जा सकता है.

ऑस्ट्रिया के प्रधानमंत्री को आशंका थी कि राजधानी को हमले से बचाया नहीं जा सकेगा, लिहाजा उन्होंने अपनी सेना नीस तक पहुंचा दी थी. उसी रात सर्बियाई सेना ने ऑस्ट्रियाई नाव के खेवैया को मार गिराया. इसके बाद ऑस्ट्रिया ने अपने सैनिक बेड़े भेजने शुरू कर दिये, जो बेलग्रेड पर बम बरसाने लगे. सर्बिया की सरकार ने सावा नदी पर बने रेलवे पुल को गिरा देने का आदेश दिया.

योजना थी कि ऑस्ट्रिया की सेना को उस पार ही रोका जा सके. लेकिन विस्फोट बहुत तगड़ा नहीं था. पुल को क्षति तो हुई, लेकिन पैदल उसे पार किया जा सकता था. दूसरी ओर नदी में युद्धपोतों को उतारा जा चुका था.

ऑस्ट्रिया और सर्बिया दोनों मानते हैं कि युद्ध में बेलग्रेड के 45 लाख लोगों में से 11 लाख की मौत हो गयी. हजारों लोग बीमारी, भुखमरी और ठंड से मर गये. करीब 60,000 लोगों को फांसी दे दी गयी. इतिहास ने अपना क्रूरतम युद्ध देखा, जिसे प्रथम विश्व युद्ध के तौर पर जाना गया.

अजीब संयोग यह रहा कि 1914 को युद्ध शुरू होने पर ऑस्ट्रिया ने ऐलान किया था कि सर्बिया खत्म हो जाना चाहिए, लेकिन 1918 में जब युद्ध खत्म हुआ, तो सर्बिया एक शक्तिशाली राष्ट्र बन कर उभरा, जिसने संयुक्त यूगोस्लाविया की अगुवाई की.

एक करोड़ 80 लाख लोग मारे गये

दुनिया के इस सबसे रक्तरंजित युद्ध में करीब एक करोड़ 80 लाख लोग मारे गये थे. प्रथम विश्वयुद्ध एक साथ कुछ देशों के साम्राज्य विस्तार, दूसरे देशों की प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की होड़ तथा इस कारण बनाये गये गुटीय समीकरण का नतीजा था. पहले ब्रिटेन और फ्रांस ही साम्राज्यवादी देश थे.

जर्मनी, जापान और इटली नये साम्राज्यवादी देश बन गये और इनके बीच की घातक प्रतिस्पर्धा ने इतना तनाव पैदा कर दिया कि विश्व युद्ध का विस्फोट हो गया. यह घटना आज भी विश्व समुदाय के लिए एक बड़ा सबक है.

इस यद्ध ने चार साम्राज्यों का अंत कर दिया-जर्मन साम्राज्य, ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य, रूसी साम्राज्य और ऑटोमन साम्राज्य. पश्चिम एशिया में आज जो समस्याएं हैं, उनकी जड़ उसी युद्ध में पड़ गयी थी. जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजीवाद का उदय इसी युद्ध का परिणाम था, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध की आधारशीला रख दी. उस दौर में कई तानाशाह पैदा हुए, जिनके कारण प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों में निहित थे. रूस में 1917 की कम्युनिस्ट क्रांति का एक बड़ा कारण इसे ही माना जाता है.

खात्मे की ओर उपनिवेशवाद

प्रथम विश्वयुद्ध ने दुनिया की राजनीति, भूगोल और इतिहास को बदल दिया. यूरोप के वर्चस्व के अंत की शुरुआत और अमेरिका के विश्व पटल पर उभरने की शुरुआत यहीं से हुई. उपनिवेशवाद का खात्मा भी यहीं से शुरू हुआ. युद्ध के कारण इसमें शामिल देशों की आर्थिक हालत इतनी खस्ता हो गयी कि उनके लिए उपनिवेशों को संभालना मुश्किल हो गया और उपनिवेशों में लोगों में जागरूकता आयी.

रूस की बोल्शेविक क्रांति

वर्ष 1914 में रूस युद्ध में जाने को तैयार नहीं था, क्योंकि महज नौ वर्ष पूर्व उसे जापान के हाथों पराजय ङोलनी पड़ी थी. उस समय रूस में जार राजशाही का शासन था. बीबीसी की एक रिपोर्ट में मॉडर्न यूरोपियन हिस्ट्री के विशेषज्ञ डॉ जोनाथन स्मेल ने लिखा है कि उस समय रूस की भौगोलिक सीमा केंद्रीय यूरोप से लेकर प्रशांत महासागर और आर्कटिक से लेकर अफगानिस्तान तक थी.

दुनिया के तकरीबन 17 फीसदी भूभाग पर रूस का कब्जा था. जार निकोलस द्वितीय की मृत्यु के बाद रूस में बोल्शेविकों ने कई कारणों से आंदोलन की शुरुआत की. प्रथम विश्व युद्ध के दो सालों में करीब 1,70,000 रूसी सैनिकों की मौत हो गयी और करीब पांच लाख से भी ज्यादा घायल हो चुके थे.

साथ ही देश में अन्न का अभाव हो गया और रूस अशांति के दौर से गुजर रहा था. तत्कालीन शासक ट्रॉटस्की लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने में कामयाब नहीं रहे. व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने रूसी नागरिकों से सभी को ‘शांति, भोजन और जमीन’ मुहैया कराने का वादा किया. लोगों को लेनिन में उम्मीद दिखी और उन्होंने इस क्रांति का समर्थन किया.

द्वितीय विश्व युद्ध की पड़ी नींव

प्रथम विश्व युद्ध खत्म होने के बाद 1919 में वर्साय की संधि में जर्मनी को युद्ध का जिम्मेदार ठहराया गया और इसके लिए जर्मनी पर अनेक तरह की पाबंदियां लगायी गयीं. साथ ही, उसे अगले कई वर्षो तक इसका हर्जाना भरने को भी कहा गया. हिटलर की अगुवाई में जर्मनी में सरकार बनी तो उसने इस तरह की नीतियों का विरोध किया.

कई अन्य देशों को भी यह महसूस हुआ कि उनके साथ अन्याय किया गया है. इन देशों में दूसरे युद्ध की भूमिका तैयार होने लगी. शायद इसीलिए कहा जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही दूसरे विश्व युद्ध की नींव पड़ चुकी थी.

शुरुआती दौर में न्यूट्रल भूमिका में था अमेरिका

प्रथम विश्व युद्ध के समय अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन थे. उस समय अमेरिका खुद को आर्थिक रूप से मजबूत करने में जुटा हुआ था. यूरोप की विस्तारवादी नीतियों से इतर अमेरिका दुनिया के सभी देशों के साथ व्यापारिक संबंधों को सुदृढ़ करने की ओर प्रयासरत था.

इन्हीं कारणों से इस युद्ध के शुरुआती दौर में अमेरिका ने इससे दूरी बनाये रखी थी. साथ ही, वुड्रो विल्सन बतौर आधुनिक इतिहास के छात्र युद्ध के संभावित परिणामों को जानते थे. 4 अगस्त, 1914 को जब तमाम देश इस युद्ध में कूद पड़े थे, अमेरिकी रुख उदासीन (न्यूट्रल) रहा था.

यूएस हिस्ट्री डॉट ओआरजी के एक लेख में बताया गया है कि ब्रिटेन की ओर से जर्मनी के साथ अधिकांश देशों द्वारा व्यापारिक संबंधों पर पाबंदी लगाने के बाद अमेरिकी हित प्रभावित हुए.

धुरी राष्ट्रों ने अमेरिकी व्यापार को प्रतिबंधित कर दिया. इससे अमेरिका के बहुत नुकसान हुआ. वर्ष 1914-16 के बीच जहां इंगलैंड और फ्रांस के बीच उसका कारोबार तीन गुना बढ़ा, वहीं जर्मनी के साथ होने वाले कारोबार में करीब 90 फीसदी की कमी आयी.

हालांकि, अमेरिका अब इस युद्ध में शामिल होने के बारे में विचार कर ही रहा था कि इसी बीच मार्च, 1916 में जर्मनी के एक सेनारहित लड़ाकू बोट ने इंगलिश चैनल में ब्रिटेन के लुसितानिया नामक एक जहाज को डुबो दिया, जिसमें 128 अमेरिकी नागरिक भी सवार थे. आखिरकार न चाहते हुए भी 6 अप्रैल, 1917 को जर्मनी के खिलाफ अमेरिका भी इस युद्ध में शामिल हो गया.

दरअसल, नवंबर, 1916 में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों में वुड्रो विल्सन को वहां के नागरिकों ने शांति के नायक के तौर पर देखा और उन्हें जीत हासिल हुई. दूसरी ओर उनके विपक्षी चार्ल्‍स इवांस ह्यूज को युद्ध के समर्थक के तौर पर देखा गया था.

चुनाव जीतने के बाद विल्सन ने अपनी ओर से दुनिया में शांति कायम करने के प्रयासों पर बल दिया. इस दौरान उन्होंने युद्ध में शामिल देशों के बीच अनेक संधियों का प्रस्ताव भी रखा ताकि युद्ध को खत्म किया जा सके.

लीग ऑफ नेशंस के गठन की अमेरिकी विचारधारा के अगुवा उस समय विल्सन ही थे. जनवरी, 1917 में विल्सन ने ब्रिटेन और जर्मनी के बीच गुप्त रूप से मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए प्रथम विश्व युद्ध को समाप्त करने की दिशा में सार्थक पहल की थी.

हिटलर का उदय

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हिटलर जर्मनी की सेना में एक बहादुर योद्धा था. युद्धभूमि में कई बार हिटलर मौत के मुंह से बच निकलने में कामयाब रहा था. बहादुरी के लिए उसे दो बड़े पुरस्कार भी मिले थे.

अक्तूबर, 1918 में बेल्जियम में एक गैस हमले में उसकी एक आंख अस्थायी रूप से घायल हो गयी थी. इस युद्ध में जर्मनी की हार हुई थी और जर्मन राजशाही खात्मे की ओर थी. जर्मनी को गणराज्य घोषित किया गया और लिखित संविधान के तहत संसदीय लोकतंत्र के साथ राजनीतिक और सैन्य शक्तियों के तहत राष्ट्रपति पद का प्रावधान किया गया.

1919 में जर्मनी की सरकार ने वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर किया. इस संधि के तहत जर्मनी को युद्ध से हुए नुकसान का बड़े पैमाने पर हर्जाना भरने को कहा गया था. युद्ध के नतीजे के तौर पर जर्मनी को न केवल अपने कई उपनिवेशों को खोना पड़ा, बल्कि उसे अपने एक बड़े भूभाग से भी हाथ धोना पड़ा.

इस बीच हिटलर ने म्यूनिख में मिलिटरी इंटेलिजेंस यूनिट ज्वॉइन की और यहां से उसका उत्थान शुरू हुआ. हिटलर ने अपनी भाषण कला के जरिये जर्मनी वासियों को प्रथम विश्व युद्ध और उसके पश्चात वर्साय की संधि से हुए नुकसान के बारे में बताना शुरू किया. इस बीच देश में कई कारणों से महंगाई बेलगाम हो गयी और कीमतों में कई सौ गुना बढ़ोतरी हो गयी.

नाजी पार्टी के तहत 8 नवंबर, 1923 को हिटलर ने म्यूनिख में क्रांति की घोषणा कर दी. इसके बाद धीरे-धीरे पूरे जर्मनी में हिटलर ने किसानों और कामगारों की समस्याओं को उठाया और अनेक स्थानीय चुनावों में हिस्सा लेता रहा. अगस्त, 1934 में हिंडनबर्ग की हत्या के बाद हिटलर जर्मनी का शासक बन गया. इसके बाद जर्मनी को आर्थिक रूप से मजबूती प्रदान करने में हिटलर का व्यापक योगदान रहा.

भारत की भूमिका

पूरी दुनिया के ज्यादातर मुल्कों के बीच जब विश्व युद्ध छिड़ा, उस समय भारत पर ब्रिटिश का साम्राज्य कायम था. अविभाजित भारत की सेना ने इस युद्ध में जनशक्ति और सामग्री मुहैया कराते हुए भरपूर योगदान दिया. भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम, अरब, पूर्वी अफ्रीका, मिस्र, मेसोपोटामिया, फिलिस्तीन, पर्सिया और सालोनिका समेत दुनिया में अनेक मोरचों पर इस लड़ाई में शामिल हुए.

कॉमनवेल्थ वार ग्रेव्स कमीशन की एक रिपोर्ट में प्रथम विश्व युद्ध में भारत के संदर्भ में बताया गया है कि इस युद्ध में 11,05,000 भारतीय सैनिकों ने हिस्सा लिया था. इनमें से 1,38,000 को फ्रांस, 1,44,000 को मिस्र व फिलिस्तीन तथा 6,57,000 सैनिकों को मेसोपोटामिया (जिसे अब इराक के रूप में जाना जाता है) भेजा था. इसके अलावा, बड़ी तादाद में भारतीय सिपाहियों को एडेन, पूर्वी अफ्रीका आदि देशों में भेजा गया था.

इस युद्ध में भारत का योगदान केवल सैनिकों तक ही सीमित नहीं था. 1914 में ही रॉयल मरीन आर्मी को भी इस युद्ध के लिए तैयार किया गया था और इसे मेसोपोटामिया के समुद्र तटीय और नदियों से जुड़े इलाकों में निगरानी का जिम्मा सौंपा गया था. सैनिकों को साजोसामान समेत अनेक जरूरी वस्तुएं मुहैया कराने के लिए परिवहन के साधन उपलब्ध कराने में भी भारत के व्यापारियों का योगदान रहा था.

इसके अलावा, भारतीय सेना में क्वीन एलेक्जेंडर्स इंपेरियल मिलिटरी नर्सिग सर्विस के तहत करीब 300 नर्सो को भी युद्ध क्षेत्र में भेजा गया था. बाद में इनकी संख्या बढ़ कर 10,000 से ज्यादा पहुंच गयी थी.

इस दौरान 200 से ज्यादा भारतीय नर्सो की सेवा के दौरान मौत भी हो गयी थी, जिनका योगदान उल्लेखनीय रहा था. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस युद्ध में दुनिया के तमाम मोरचों पर लड़ाई लड़ रहे सैनिकों के लिए भारत की ओर से पौने दो लाख पशुओं और 37 लाख टन सामग्री की आपूर्ति की गयी थी.