देश में एक साथ लोकसभा व विधानसभा चुनाव की जरूरत

सुरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार जब-जब चुनाव आता है, कई लोगों को एक साथ चुनाव की जरूरत महसूस होने लगती है जब-जब चुनाव आता है, कई लोगों को एक साथ चुनाव की जरूरत महसूस होने लगती है. दरअसल, चुनाव के दौरान विकास व कल्याण के कामकाज बाधित हो जाते हैं. अधिक चुनाव यानी कामकाज में अधिक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 29, 2019 6:56 AM
सुरेंद्र किशोर
वरिष्ठ पत्रकार
जब-जब चुनाव आता है, कई लोगों को एक साथ चुनाव की जरूरत महसूस होने लगती है
जब-जब चुनाव आता है, कई लोगों को एक साथ चुनाव की जरूरत महसूस होने लगती है. दरअसल, चुनाव के दौरान विकास व कल्याण के कामकाज बाधित हो जाते हैं. अधिक चुनाव यानी कामकाज में अधिक बाधा और
अधिक खर्च सरकारी और गैर सरकारी. अधिक खर्च यानी काले धन का अधिक इस्तेमाल. 2018 में कई राज्य विधानसभाओं के चुनाव हुए. उससे पहले 2017 में 7 और 2016 में 5 राज्यों में चुनाव हुए थे. बिहार और दिल्ली में अगले साल चुनाव होंगे. इस साल लोकसभा का चुनाव हो रहा है. 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते थे. कई बार यह मांग उठी कि एक बार फिर वैसा ही होना चाहिए. पर, इस काम में अधिकतर राजनीतिक दलों व नेताओं के स्वार्थ बाधक रहे हैं.
महागठबंधन की महाफिसलन
भाजपा को हराने के ‘बड़े उद्देश्य’ के साथ महागठबंधन की नींव पड़ी थी. लगता था कि बिहार में राजग के सामने यह बड़ी चुनौती बन कर खड़ा होगा.
पर, इन पंक्तियों के लिखते समय तक महागठबंधन के कुछ नेताओं ने अपने समर्थकों को निराश ही किया है. तालमेल में कमी का दोष कोई राजद को भले दे, किन्तु अनेक राजनीतिक प्रेक्षकों को यह लग रहा है कि कांग्रेस में त्याग की अधिक कमी है. दोस्ती का मूल आधार त्याग होता चाहे वह दो व्यक्तियों की दोस्ती हो या दो संगठनों की. कांग्रेस की मूल ताकत के अनुपात में राजद ने उसके लिए वाजिब संख्या में सीटें छोड़ी हैं.
पर, लगता है कि कांग्रेस 2015 के विधानसभा चुनाव नतीजे को भूल नहीं पा रही है. उसे तब 243 में से 27 सीटें मिली थीं. पर उसे यह सफलता राजद-जदयू की उदारता के कारण मिली थी न कि उसकी अपनी राजनीतिक ताकत के कारण. कांग्रेस की असली ताकत के कुछ नमूने कुछ इस प्रकार हैं. उसे बिहार विधानसभा के 2005 के चुनाव में 9 सीटें मिलीं. सन 2010 के विधानसभा चुनाव में 4 सीटें मिलीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस को 40 में से मात्र दो सीटें मिलीं.
राष्ट्रीय स्तर पर मोदी विरोध
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही गैर राजग दलों के नेतागण यह कहते रहे कि नरेंद्र मोदी सरकार से देश को मुक्त कराना अत्यंत आवश्यक है. उसके लिए वे तरह-तरह के नारे गढ़ते रहे और उपाय भी करते रहे. लोकतंत्र में यह कोई अजूबी बात नहीं है.
पर इस बार प्रतिपक्ष में सरकार विरोध की जितनी तीव्रता रही है, उतनी पहले कभी नहीं. पर, जब मोदी को हटाने का अवसर आया तो प्रतिपक्षी दल देश भर में ‘एक के खिलाफ एक’ को चुनाव में खड़ा करने में विफल रहे. कारण है गैर राजग खेमे में प्रधानमंत्री पद के अनेक उम्मीदवारों की उपस्थिति. वे अपने- अपने दल के अधिक से अधिक सांसद चाहते हैं ताकि प्रधानमंत्री बनने से उन्हें सुविधा हो. वे यह बात भूल गये कि मोदी देश के लिए खतरा है. उन्हें सिर्फ अपनी ‘भावी कुर्सी’ याद रही.
टीएन शेषण की धमक!
1994 में वैशाली लोकसभा का उप चुनाव हो रहा था. चुनाव आयोग ने लाइसेंसी हथियार को जब्त करने का निदेश दिया. चुनाव आयुक्त टीएन शेषण के नाम की तब ऐसी धमक थी कि वैशाली के निर्वाची अधिकारी ने भी अपनी लाइसेंसी बंदूक जमा करा दी. ऐसा संभवतः पहली बार हुआ था. तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद भी चुनाव सभा के समय पर पूरा ध्यान रखते थे. वे अपने लोगों से कहते थे कि आठ बजे से पहले सभा खत्म हो जानी चाहिए. जल्दी जाना है. नहीं तो टीएन शेषण साहब बैठे हैं.
और अंत में
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने हाल में क्षुब्ध होकर कहा कि बेहतर हो कि आदर्श चुनाव संहिता को समाप्त ही कर दिया जाये. क्योंकि, कोई भी दल इसका पालन नहीं कर रहा है.