रूस का सिनेमा और विश्व राजनीति

विश्व सिनेमा... इन दिनों दो रूसी फिल्मों की चर्चा है. जहां सर्जेई लोजनित्स की फिल्म ‘अ जेंटिल क्रिएचर’ मर्दों की व्यवस्था में तन्हा आम औरत के अपमान का दस्तावेज है. तो वहीं ‘लेवियाथान’ फिल्म से मशहूर हुए फिल्मकार आंद्रे ज्याग्निशेव की ‘लवलेस’ हमें मास्को के अनदेखे इलाकों में ले जाती है. विश्व राजनीति में शीत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 8, 2018 12:58 AM

विश्व सिनेमा

इन दिनों दो रूसी फिल्मों की चर्चा है. जहां सर्जेई लोजनित्स की फिल्म ‘अ जेंटिल क्रिएचर’ मर्दों की व्यवस्था में तन्हा आम औरत के अपमान का दस्तावेज है. तो वहीं ‘लेवियाथान’ फिल्म से मशहूर हुए फिल्मकार आंद्रे ज्याग्निशेव की ‘लवलेस’ हमें मास्को के अनदेखे इलाकों में ले जाती है.
विश्व राजनीति में शीत युद्ध अब भी जारी है, जिसमें सिनेमा का इस्तेमाल एक बड़े हथियार के रूप में किया जा रहा है. डेविड लीन की ‘डॉ जिवागो’ को याद कीजिये. इन दिनों जिन दो रूसी फिल्मों की चर्चा है, उनके गहरे राजनीतिक मायने हैं. सर्जेई लोजनित्स की फिल्म ‘अ जेंटिल क्रिएचर’ मर्दों की व्यवस्था में तन्हा आम औरत के अमानवीय अपमान का दस्तावेज है. आज के रूस में यदि ऊपर तक आपकी कोई जान-पहचान नहीं है, तो आपकी कोई नहीं सुनेगा, आपको अपमान सहना होगा.
रूस के एक सुदूर गांव में अकेली रहनेवाली महिला को एक दिन अपने पति को जेल में भेजा हुआ पार्सल वापस मिलता है. वह जेल जाकर पता लगाने का फैसला करती है कि पार्सल वापस क्यों लौटा? जेल के भीतर-बाहर भ्रष्टाचार और अन्याय का बोलबाला है, जहां उसकी मदद करनेवाला कोई नहीं है. फिल्म के कई दृश्य दिल दहलानेवाले हैं. भीड़ से भरे डाकघर में लंबी लाईन में पीछे खड़े मर्द न सिर्फ उसका मजाक उड़ाते हैं, बल्कि एक तो उसके मुंह पर थूकने की धमकी देता है.
मानवाधिकार कार्यालय का दृश्य हास्यास्पद है. अपराधियों, नशेड़ियों,
वेश्याओं, लूटेरों, पुलिस और जेल के सुरक्षा गार्डों से गुजरती हुई यह भद्र महिला न्याय की खोज जारी रखती है. रेलवे स्टेशन के मुसाफिरखाने में वह भयानक सपना देखती है, जहां फिल्म के सारे चरित्र रूस के लाल-सफेद राष्ट्रीय ड्रेस में बयान दे रहे हैं कि इस औरत के साथ क्या-क्या गुजरी है. अंतिम दृश्य में वह चौंककर सपने से जागती है. हमें यातना के अंतहीन जंगल से गुजारते हुए फिल्म रहस्यमय उम्मीद पर खत्म होती है. वसीलीना माकोव्तसेवा ने औरत का चरित्र निभाया है.
सर्जेई लोजनित्स ने सुप्रसिद्ध रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तव्स्की की इसी नाम की कहानी से फिल्म का नाम रखा है. फिल्म की बुनावट पर काफ्का और गोगोल की रचनाओं का साफ असर है. रूस में इस फिल्म की शूटिंग नहीं हो सकती थी, इसलिए इसे लाटीविया के एक ऐसे शहर में शूट किया गया, जहां स्तालिन के जमाने की विशाल जेल की इमारत मौजूद है. लोजनित्स दुनियाभर में अपनी डाॅक्यूमेंटरी फिल्मों के कारण जाने जाते हैं. इस फिल्म का छायांकन भी इसी शैली में किया गया है.
‘लेवियाथान’ फिल्म से मशहूर हुए आंद्रे ज्याग्निशेव की ‘लवलेस’ (नेल्यूबोव) इस बार ऑस्कर पुरस्कारों की दौड़ में सबसे आगे थी. आंद्रे ने आज के रूसी समाज में बढ़ते अलगाव का हृदय विदारक चित्र खींचा है. बारह साल का अलेक्सी अपनी मां जेन्या और पिता बोरिस के बीच असहनीय कलह से तंग आकर एक दिन स्कूल से गायब हो जाता है. यह बुरी खबर उन दोनों तक तब पहुंचती है, जब दोनों तलाक लेकर अपने-अपने दूसरे जीवनसाथी के साथ अलग घर बसानेवाले हैं.
‘लेवियाथान’ में जहां आंद्रे ने रूसी समाज में बढ़ते अराजक भ्रष्टाचार को दिखाया था, तो ‘लवलेस’ में मध्यवर्ग की पारिवारिक टूटन और बढ़ती संवादहीनता के बीच बच्चों की नियति को फोकस किया है. यह अजीब है कि तकनीकी रूप से संचार के अति विकसित दौर में हमारा समाज संवादहीनता से ग्रस्त है. एक रात्रि भोज में जेन्या देखती है कि हर कोई सेल्फी खींचने और स्टेटस चेक करने में व्यस्त है. यही हाल घरों में भी है. पति-पत्नी के बीच संवाद के नाम पर छोटी-छोटी बातों पर कलह होता रहता है. एक बच्चे की खोज में ‘लवलेस’ हमें मास्को के अनदेखे इलाकों में ले जाती है.
अजित राय
संपादक, रंग प्रसंग, एनएसडी