1945 में दूसरी बार हुई नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत, INA के मेजर रहे रांची के डॉ बीरेन रॉय की किताब में दावा

अंग्रेजों की गुलामी से निजात पाने के लिए भारत में लगातार आंदोलन चल रहे थे. महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन चल रहा था, तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई में उग्र आंदोलन चला. सुभाष चंद्र बोस अपनी भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से जल्द से जल्द आजादी दिलाने की ठान चुके थे.

By Mithilesh Jha | January 22, 2023 11:03 PM

आज 23 जनवरी है. नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती (Netaji Subhas Chandra Bose Jayanti). प्यार से लोग उन्हें नेताजी बुलाते हैं. नेताजी के जन्मदिन को नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र पराक्रम दिवस (Parakram Diwas) के रूप में मनाती है, तो पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार देशप्रेमी दिवस (Deshpremi Diwas) के रूप में. नेताजी ने अंग्रेजों की गुलामी से भारत को आजाद कराने के लिए कई स्तर पर लड़ाइयां लड़ीं. आजाद हिंद फौज में उन्होंने देशभक्त भारतीयों की भर्ती की. देशभक्ति से लबरेज सेना ने अंग्रेजी सेना के कई बार दांत खट्टे किये. नेताजी की आजाद हिंद फौज में अहम भूमिका निभाने वाले मेजर रैंक के एक अधिकारी रांची से भी थे. उन्होंने एक किताब लिखी है, जिसमें उन्होंने दावा किया है कि अगर 1945 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत हो गयी, तो यह दूसरा मौका था, जब इस महान क्रांतिकारी की मौत हुई.

भारत में निरंतर आजादी के लिए चल रहा था संघर्ष

नेताजी की आजाद हिंद फौज के इस मेजर का नाम था बीरेंद्र नाथ रॉय. रांची में उन्हें डॉ बीरेन रॉय के नाम से जाना जाता है. उन्होंने लिखा है कि अंग्रेजों की गुलामी से निजात पाने के लिए भारत में लगातार आंदोलन चल रहे थे. महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन चल रहा था, तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई में उग्र आंदोलन चला. सुभाष चंद्र बोस अपनी भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से जल्द से जल्द आजादी दिलाने की ठान चुके थे. इसके लिए दिन-रात काम कर रहे थे. अलग-अलग देशों का दौरा कर रहे थे.

रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान नेताजी को सौंपी

आजाद हिंद फौज के लिए बहुत से भारतीयों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. किसी ने अपनी संपत्ति नेताजी को दान कर दी, तो किसी ने अपना जीवन देश की आजादी की लड़ाई के लिए समर्पित कर दिया. इस जंग में न जाने कितने लोग शहीद हुए, लेकिन किसी के माथे पर कभी शिकन न आयी. आजाद हिंद फौज की स्थापना रास बिहारी बोस ने की थी. उन्होंने इस फौज की कमान नेताजी को सौंपी और खुद उनके सलाहकार बन गये.

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ब्रिटिश सेना की नौकरी छोड़ आजाद हिंद फौज में शामिल हुए डॉ बीरेंद्र नाथ रॉय

महज 26 साल की उम्र में ब्रिटिश सेना में एक युवक शामिल हुआ था. रांची का यह युवक ब्रिटिश सेना की नौकरी छोड़कर आजाद हिंद फौज का हिस्सा बन गया. पेशे से डॉक्टर बीरेंद्र नाथ रॉय को आजाद हिंद फौज में मेजर का रैंक दिया गया. डॉ रॉय ने आजादी की लड़ाई, आजाद हिंद फौज, नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर आधारित एक किताब लिखी- सैनिक नेताजी हिज डिसअपीयरेंस एंड इवेंट्स देयरआफ्टर. 93 पेज की इस किताब में मेजर बीएन रॉय ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में कई ऐसी बातें लिखीं हैं, जिसके बारे में लोगों को जानकारी नहीं थी. उन्होंने आजाद भारत में नेताजी के साथ हुए व्यवहार पर चिंता भी जतायी है.

1944 में भी आयी थी नेताजी की मौत की खबर

डॉ बीरेन रॉय ने इस किताब में लिखा है कि अगर 18 अगस्त 1945 को ताईपेई स्थित ताईहुकु एयरोड्रोम पर हुए विमान हादसे में नेताजी का निधन हो गया, तो यह दूसरा मौका था, जब नेताजी की मौत हुई. इसके पहले वर्ष 1944 में ‘द साउथ ईस्ट एशिया कमांड न्यूजपेपर’ में एक खबर प्रकाशित हुई थी कि रंगून से मोलमिन जाते समय सड़क दुर्घटना में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत हो गयी. इसलिए डॉ बीरेन ने कहा कि अगर 1945 में नेताजी की हवाई जहाज दुर्घटना में मौत हुई, तो यह उनकी दूसरी मौत थी.

नेताजी ने जिवाबाड़ी में घोषणा की- हमने पहली लड़ाई जीत ली है

डॉ रॉय लिखते हैं कि यह वह दौर था, जब ब्रिटिश सेना मजबूती के साथ बर्मा की ओर बढ़ रही थी. ऐसे समय में नेताजी ने जिवाबाड़ी में अपने सैनिकों को संबोधित किया. नेताजी ने कहा कि हमने पहली लड़ाई जीत ली है. मेरा पहला उद्देश्य था कि भारत के लोग एकजुट होकर लड़ें. एकता के दम पर ही ब्रिटिश हुकूमत को भारत से खदेड़ा जा सकता है. भारत एकजुट हो गया है. मैंने यह कर दिखाया. अब मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि भारत बहुत पहले आजाद हो जायेगा.

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आजाद हिंद फौज में सभी धर्म और वर्ग के लोगों को शामिल किया

नेताजी को इस बात का आभास हो गया था कि अंग्रेजी हुकूमत को परास्त करना है, तो भारतीयों की ताकत को उससे अलग करना होगा. अगर हम इसमें सफल हो जाते हैं, तो अंग्रेज ज्यादा दिन भारत में नहीं टिक पायेंगे. जब नेताजी ने आजाद हिंद फौज की कमान संभाली और युद्ध तेज हुआ, तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि जब तक आईएनए में सभी वर्गों के लोगों को शामिल नहीं किया जायेगा, हम मजबूती से नहीं लड़ पायेंगे. इसके बाद हर रेजिमेंट में सभी धर्मों और वर्ग के लोगों को शामिल किया गया. भारतीय सेना में आज भी यह परंपरा जारी है.

अंग्रेजी सरकार की नौकरी छोड़ नेताजी की फौज से जुड़ने लगे लोग

बहरहाल, नेताजी की अगुवाई में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध तेज हो चुका था. ब्रिटिश सेना की नौकरी छोड़कर देशभक्त भारतीय आजाद हिंद फौज में शामिल होने लगे थे. सैनिक से लेकर अधिकारी तक. डॉक्टर से लेकर अन्य पेशेवर तक आजाद हिंद फौज का हिस्सा बनने लगे. आजादी की लड़ाई में अपना योगदान देने लगे. इस तरह नेताजी ने अंग्रेजी हुकूमत को अंदर और बाहर चारों ओर से घेरकर पूरी तरह से खोखला कर दिया.

भारत में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहा था आजादी का आंदोलन

डॉ बीरेन रॉय अपनी किताब के 10 नंबर पेज के पहले पैरा में लिखते हैं कि 40 साल पहले (जब किताब लिखी गयी थी) जब मैं 26 साल का था, मैंने ब्रिटिश इंडियन आर्मी ज्वाइन की थी. तब हम गुलाम थे. मैंने सोचा कि युद्ध कुछ दिनों में खत्म हो जायेगा. रोमांच से भरपूर एक सैनिक का जीवन जीने के लिए एक बार विदेश जाना चाहिए. यह वह दौर था, जब बड़ी संख्या में हमारे देश के लोग महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहे थे. सविनय अवज्ञा आंदोलन और अहिंसक आंदोलन चल रहा था. जनवरी 1941 में मैं सिंगापुर पहुंचा. 15 फरवरी 1942 को जापानियों के समक्ष सरेंडर करने से पहले तक मैं बेस हॉस्पिटल में बतौर डॉक्टर कार्यरत रहा.

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रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान नेताजी को सौंपी

इसी दौरान भारत की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की. डॉ बीरेन रॉय भी उस फौज का हिस्सा बन गये. उन्हें गांधी रेजिमेंट के नंबर-1 बटालियन का मेडिकल ऑफिसर नियुक्त कर दिया गया. वर्ष 1943 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे. रास बिहारी बोस और नेताजी ने एक-दूसरे का गर्मजोशी से स्वागत किया. रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान नेताजी को सौंप दी और खुद उनके सलाहकार बन गये.

सिंगापुर में नेताजी ने दिया ‘चलो दिल्ली’ का नारा

यहीं पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की सेना को पहली बार संबोधित किया. यहीं से उन्होंने ‘चलो दिल्ली, चलो दिल्ली’ का नारा दिया. नेताजी ने कहा कि मैं नहीं जानता कि इस आजादी की जंग में हममें से कितने लोग जीवित बचेंगे. लेकिन, मैं इतना जरूर जानता हूं कि हम जीतेंगे और हमारा काम तब तक खत्म नहीं होगा, जब तक हम अंग्रेजों के किले में आखिरी कील ठोंककर दिल्ली के लाल किला पर विजयश्री का जश्न नहीं मनायेंगे.

नेताजी के साथ दोयम दर्जे के व्यवहार से बेहद नाराज थे डॉ रॉय

भारत को आजादी मिलने के बाद ऐसे नेताजी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने वालों को डॉ रॉय ने अपनी किताब में आड़े हाथ लिया. डॉ रॉय ने लिखा कि आजादी के बाद फरवरी 1949 में मेजर जनरल खंडूरी ने एक चिट्ठी लिखी, जिसमें कहा गया कि सेना बैरकों, कैंटीनों, गार्डों के क्वार्टर्स और कैंप में स्थित अन्य महत्वपूर्ण स्थलों से नेताजी की तस्वीरों को हटा दिया जाये. डॉ रॉय ने पूछा कि क्या ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया, क्योंकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस का निधन हो गया? यह लुकाछिपी का खेल आखिर क्यों?

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डॉ रॉय ने नेताजी को विश्व का सबसे महान क्रांतिकारी नेता बताया

डॉ रॉय आगे लिखते हैं कि सुभाषवादी जनता को इसका जवाब भी मिल गया. खोसला कमीशन की मदद के लिए बनी राष्ट्रीय समिति के सदस्य ने भी इस बात को भलीभांति समझा. उन्होंने पूछा कि अगर नेताजी का ताईपेई में हुए विमान हादसे में 1945 में निधन हो गया, तो सेना के अधिकारियों को यह चिट्ठी क्यों जारी करनी पड़ी? डॉ बीरेन रॉय ने नेताजी को विश्व का सबसे महान क्रांतिकारी बताया है.

आजादी के बाद रांची आ गये डॉ बीरेंद्र नाथ रॉय

सिंगापुर में आजाद हिंद फौज से जुड़ने वाले डॉ बीरेन रॉय आजादी के बाद अपने पैतृक घर रांची चले आये. यहीं उन्होंने एक क्लिनिक खोली और नेताजी के कहे अनुसार जीवन भर गरीबों को सस्ती और बेहतर चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराते रहे. वह महज एक रुपया फीस लेते थे. गरीबों से फीस नहीं लेते थे. जरूरतमंद लोगों को दवाएं भी मुफ्त में दिया करते थे. उनके परिवार के लोग आज भी उस क्लिनिक में दवा दुकान चलाते हैं.

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