मांय माटी : राजपाट छोड़ अंग्रेजों से ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने लिया था लोहा

अमर शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव की आज 205वीें जयंती है. 1855 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आदेशों को मानने से इनकार कर दिया तथा स्वयं को एक स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया. वहां से सैनिक भेजकर इनके हटिया स्थित गढ़ पर हमला करवा दिया गया घमासान युद्ध हुआ. इस लड़ाई में विश्वनाथ शाहदेव विजय हुए.

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 12, 2022 2:22 PM

लाल सूरज नाथ शाहदेव

अमर शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का जन्म 12 अगस्त. 1817 को बड़कागढ़ की राजधानी सतरंजी में हुआ था. इनके पिता का नाम रघुनाथ शाहदेव तथा माता का नाम वानेश्वरी कुंवर था. राजा एनी नाथ शाहदेव जी के द्वारा उदयपुर और कुंडा परगना को मिलाकर बड़कागढ़ राज्य की स्थापना की गयी थी. इन्हीं की सातवीं पीढ़ी में ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का जन्म हुआ था. जब वह मात्र 23 वर्ष के थे तब इनके पिता की मृत्यु 1840 में हो गयी और राज्य का कार्य इन्हें संभालना पड़ा. उन्होंने अपनी राजधानी हटिया स्थित चिरनागढ़ में बनाया.

उन्हें मालूम था कि ये नाम मात्र के राजा हैं, सारी शक्तियां तो अंग्रेजों के पास है. अंग्रेजों का अत्याचार लगातार बढ़ता ही जा रहा था. 1855 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आदेशों को मानने से इनकार कर दिया तथा स्वयं को एक स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया. उनकी इस घोषणा से अंग्रजी प्रशासन तिलमिला उठा. उन्हें दंड देने के लिए तुरंत अंग्रेजों की एक फौज भेज दी गई. उस वक्त रामगढ़ बटालियन का मुख्यालय डोरंडा ही था.

वहां से सैनिक भेजकर इनके हटिया स्थित गढ़ पर हमला करवा दिया गया घमासान युद्ध हुआ. अंग्रेजों के काफी सैनिक मारे गये. अंग्रेजों को वहां से मुंह की खानी पड़ी और वापस लौट गये. इस लड़ाई में विश्वनाथ शाहदेव विजय हुए. अंग्रेज इस घटना के बाद चुपचाप हो गए. अभी दो वर्ष बीते भी नहीं थे कि हजारीबाग में 1857 के सिपाही विद्रोह का प्रभाव पड़ा और वहां के सैनिक छावनी में भी विद्रोह का बिगुल फूंक दिया गया.

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हजारीबाग छावनी में उस वक्त सातवीं और आठवीं बटालियन की पैदल सेना थी. यह सूचना मिलते ही ग्राहम के नेतृत्व में रामगढ़ बटालियन का दो दस्ता बंदूकधारी और 30 घुंडसवारी सेना विद्रोहियों से हथियार रखवाने के लिए भेजा गया, किंतु सैनिक वहां विद्रोह करने के बाद उनके सरकारी अधिकारियों को कुचलते हुए, कार्यालयों को तोड़ते आग लगाते रांची की ओर चल पड़े थे.

पिठोरिया के पास अंग्रेजों के कुछ भक्तों ने सैनिकों को रोकने का प्रयास किया तो वे लोहरदगा का मार्ग पकड़ लिए. मजेदार बात यह हुई कि ग्राहम जिन सैनिकों को लेकर विद्रोहियों को दबाने निकला था, उन सैनिकों को जब इस विद्रोह की सूचना मिली तो उनलोगों ने भी जमादार माधो सिंह के नेतृत्व में तत्काल ग्राहम के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया. एक अगस्त 1857 का दिन था. ग्राहम की निजी संपत्ति को लोगों ने अपने कब्जे में ले लिया.

आगे हजारीबाग न जाकर पुनः वे लोग तोपों के साथ रांची की ओर ही लौट गए थे. आगे चलकर उनका साथ दिया राजा टिकैत उमराव सिंह तथा उनके दीवान शेख भिखारी ने. दो अगस्त को दो तोपों के साथ दो बजे दिन में माधव सिंह एवं उनके साथी सैनिक तोपों से गोले छोड़ते हुए अंग्रेजों में भय पैदा करते हुए रांची में प्रवेश किए. ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी को इन लोगों ने एक संदेश भेजा और उन्हें इस विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए कहा क्योंकि ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू कर चुके थे. उनकी बातें मान ली और इसे तत्काल स्वीकार कर लिया.

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रामगढ़ बटालियन के 600 विद्रोहियों का दल उस वक्त रांची में था. उनके साथ ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जी की सेना भी जुड़ गयी. डोरंडा में अंग्रेजों के घरों में आग लगा दी गयी. फाइलें जला दी गई एवं कुएं में डाल दिए गए. अंग्रेजों को यहां से भागने के लिए विवश कर दिया गया. रांची का विद्रोह सफल बनाकर अंग्रेजों को समूल नष्ट कर इन सैनिकों ने 11 सितंबर 1857 को शेरघाटी के लिए प्रस्थान किया.

चतरा में मेजर इंग्लिश ने इन विद्रोहियों पर हमला कर दिया. यहां ये विद्रोही कमजोर पड़ गए और कुछ इनके विद्रोही पकड़े गए तो कुछ वहां से भागने में सफल रहे. ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और पांडे गणपत राय भागकर लोहरदगा पहुंच गए तो माधव सिंह के बारे में कोई पता नहीं चला. राजा विश्वनाथ शाहदेव पांडे गणपत राय लोहरदगा पहुंचकर फिर से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का प्रारंभ कर दिया था. अंग्रेजों की परेशानी बढ़ने लगी थी और इन दोनों को पकड़ना उन लोगों ने अपना लक्ष्य बना लिया था. कुछ अपने ही विश्वासघाती लोगों की मदद से अंग्रेज इनको पकड़ने में सफल हो गये.

16 अप्रैल, 1858 को ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को रांची के शहीद चौक के कदंब के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया. फांसी के पांच दिनों के बाद यानी 21 अप्रैल 1858 को पांडे गणपत राय को भी फांसी दे दी गयी. फांसी के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के 97 गांव को अपने कब्जे में कर लिया. उनके सतरंजी गढ़ एवं हटियागढ़ के किले को ध्वस्त कर दिया. उनकी सारी चल-अचल संपत्ति जब्त कर ली.

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ठाकुर साहब की पत्नी बाणेश्वरी कुंवर अपने एक वर्षीय पुत्र के साथ ठाकुर कपिल नाथ शाहदेव को लेकर रानी खोरहा जंगल (गुमला जिला) अपने विश्वस्त जनों के साथ भाग गयी. रानी को पता था कि अंग्रेजी सरकार उन्हें एवं उनके पुत्र को मारने के लिए तत्पर है. रानी बाणेश्वरी कुंवर ने खोरहा ग्राम में 12 वर्षों तक निर्वासित जीवन व्यतीत किया.

12 वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद रानी बाणेश्वरी कुंवर अपने पुत्र को आगे कर अंग्रेजों के समक्ष प्रकट हो गई और अंग्रेजी सरकार से बड़कागढ़ एस्टेट को वापस करने की मांग की. परंतु, अंग्रेजी सरकार ने बड़कागढ़ एस्टेट के संचालन के लिए एक कमिटी बना दी थी, यह कहते हुए कि जिन जागीरदारों एवं जमींदारों का कोई वारिस नहीं होगा, उनकी जमींदारी सीधे काउंसिल के तहत हो जाएगी. चूंकि ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का वारिस था इसलिए अंग्रेजों ने कहा कि काउंसिल बड़कागढ़ एस्टेट के केयरटेकर के रूप में कार्य करता रहेगा. अंग्रेजों ने व्यवस्था दी कि बड़कागढ़ एस्टेट से जो लगान काउंसिल उगाही करती है, उसी में से जीविकोपार्जन के लिए 30 रुपये प्रति माह रानी बाणेश्वरी कुंवर को दी जाएगी.

(महासचिव, बड़कागढ़ रैयत जनमंच).

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