शहंशाह-ए-झारखंड के रूप में है कुरबान अली शाह की पहचान, दूर-दूर तक फैली है मकबूलियत

कसमार प्रखंड मुख्यालय के निकट पश्चिम दिशा स्थित सुरजूडीह गांव में यह मजार अवस्थित है. कुरबान अली शाह सुरजूडीह गांव के निवासी थे. उनकी पैदाइश 1862 में गांव के खाते-पीते व इज्जतदार घराने में हुई थी. जब वह तीन साल के थे, गांव में महामारी फैल गयी.

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 19, 2023 2:13 AM

कसमार, दीपक सवाल. बोकारो जिला के कसमार प्रखंड के सुरजूडीह स्थित हजरत दाता कुरबान अली शाह बहारशफी चिश्ती निजामी रहमतुल्लाह अलैह की मजार अकीदत और मोहब्बत का महत्वपूर्ण केंद्र है. इनकी मकबूलियत दूर-दूर तक फैली हुई है और इन्हें शहंशाह-ए-झारखंड के रूप में भी जाना जाता है. प्रत्येक साल 20 व 21 मार्च के उर्स मुबारक में जनसैलाब उमड़ पड़ता है. दूसरे राज्यों से भी काफी संख्या में लोग पहुंचते हैं.

कसमार प्रखंड मुख्यालय के निकट पश्चिम दिशा स्थित सुरजूडीह गांव में यह मजार अवस्थित है. कुरबान अली शाह सुरजूडीह गांव के निवासी थे. उनकी पैदाइश 1862 में गांव के खाते-पीते व इज्जतदार घराने में हुई थी. जब वह तीन साल के थे, गांव में महामारी फैल गयी. इसकी चपेट में आकर उनके वालिद व वालदाह समेत परिवार के अन्य सदस्यों का इंतकाल हो गया. दादी उन्हें पश्चिम बंगाल के पुरूलिया जिला स्थित जामहरा गांव ले गयीं.

Also Read: Jharkhand: बोकारो का एक ऐसा गांव, जहां लोग शराब और गंभीर बीमारी से हैं कोसों दूर, आखिर इसका राज क्या है?

सुरजूडीह में फैली बीमारी चूंकि छुआछूत की थी, और उस जमाने में उसका कोई इलाज नहीं था, इसलिए जामहरा के निवासियों ने इन्हें रहने नहीं दिया. कुरबान अली को लेकर उनकी दादी वापस लौट गयीं. कसमार से थोड़ी दूर जंगल में झोपड़ी बना कर शरण लेनी पड़ी. मगर दादी का साथ भी अधिक दिनों तक नहीं मिला.

थोड़े समय में उनका इंतकाल हो गया. तब, चाची ने राजी-खुशी से कुरबान अली की परवरिश का जिम्मा उठाया. जवान होने पर इनका निकाह महेशपुर के जमींदार शेख़ जुड़न महतो की साहेबजादी जैतून बीबी से हुआ. मगर, कुरबान अली की सोच-ओ-फिक्र का अंदाज कुछ और ही था.

कई करिश्मे हैं मशहूर

कुरबान अली के दिन-रात खुदा को याद करते हुए गुजरते थे. इस दुनिया में रहते हुए भी मानो दुनिया से अलग थे. जीवन का एक बड़ा हिस्सा रियाजत व इबादत में गुजार दिये. धीरे-धीरे लोग इनकी खासियत को पहचानने लगे और जौक-दर-जौक उनके पास आने लगे. इनके करिश्मे की लंबी फेहरिस्त है. इसका जिक्र लोग आज भी बड़े शान से करते हैं. इनके कई शिष्यों ने भी काफी ख्याति अर्जित की.

… जब फानी को अलविदा कहा

20 मार्च 1947 को रात करीब 11 बजे कुरबान अली शाह ने हमेशा के लिए आंखें बंद कर ली और इस जहानें फानी को अलविदा कह दिया. इसकी सूचना मिलने पर सुबह चारों सिम्त से लोग सुरजूडीह पहुंचे. उस दिन मानो यह गांव आशिकों का किब्ला बन गया था. तब से प्रत्येक साल 20-21 मार्च को उनकी मजार पर उर्स मुबारक मनाया जाता है. इनकी मजार के पास ही उनके तृतीय पुत्र की मजार भी बनी हुई है.

उर्स की माकूल तैयारी

इस साल भी उर्स की माकूल तैयारी की गयी है. हाजी मोहम्मद शमशुल होदा चिश्ती, नसरुल होदा, सोहेल अंसारी, कलीमुल्ला, मेहरुल होदा आदि ने बताया : 20 मार्च को ढाई बजे चादरपोशी व गुलपोशी तथा रात में जलसा तथा 21 मार्च को कव्वाली का आयोजन होगा. मेला भी लगेगा. इधर, मजार की सजावट का काम जोरों पर है.

कुरबान अली शाह झारखंड के शहंशाह के नाम से जाने जाते हैं. इनके प्रति आवाम की काफी आस्था है. समय के साथ उर्स में भीड़ बढ़ती जा रही है. दूसरे राज्यों से भी लोग पहुंचते हैं. यहां चादरपोशी करने सालों भर लोग पहुंचते हैं. नयी गाड़ी खरीदने पर भी लोग इनके दरबार में हाजिरी अवश्य बजाते हैं.

रूहुल होदा, सुरजूडीह

Next Article

Exit mobile version