Bihar Elections 2025: पड़ोसी राज्यों से बिहार वोटिंग के लिए चल रहीं फ्री ट्रेनें, रहना-खाना सब पार्टियों के तरफ से

Bihar Elections 2025: बिहार की धरती पर लौटती ट्रेनें इस बार सिर्फ यात्रियों को नहीं, वोटों की उम्मीदें भी ढो रही हैं. स्टेशन पर भीड़ है, नारे हैं, भोजन के पैकेट हैं और बीच में गूंजता सवाल. क्या ये लोकतंत्र का उत्सव है या राजनीतिक मैनेजमेंट का नया मॉडल?

By Pratyush Prashant | November 5, 2025 7:52 AM

Bihar Elections 2025: बिहार विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे अपने निर्णायक मोड़ पर पहुंच रहा है, राज्य की सीमाओं के पार एक अलग हलचल दिख रही है. उत्तर प्रदेश, झारखंड, बंगाल, हरियाणा और दिल्ली से हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने-अपने गांव लौट रहे हैं, वोट डालने के लिए.

दिलचस्प यह है कि इन यात्राओं की टिकटें और भोजन की थालियां किसी रेलवे विभाग ने नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों ने संभाल रखी हैं. स्टेशनों पर पार्टी के काउंटर खुले हैं, कार्यकर्ता यात्रियों के नाम और विधानसभा क्षेत्र दर्ज कर रहे हैं और ट्रेन के डिब्बों में नारेबाजी के बीच ‘फ्री टिकट यात्रा’ का नया अध्याय लिखा जा रहा है.

सीमावर्ती जिलों में बढ़ी चहल-पहल

बिहार से सटे उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल के कई जिलों के रेलवे स्टेशनों पर सोमवार और मंगलवार से भारी भीड़ देखी जा रही है. बनारस कैंट, बलिया, गाजीपुर, चंदौली, मिर्जापुर और प्रयागराज से लेकर झारखंड के धनबाद, रांची, गिरिडीह और जमशेदपुर तक, हर जगह से लोग बिहार की ओर जा रही ट्रेनों में सवार हो रहे हैं.

कई राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने कैंप लगाकर यात्रियों के नाम, आधार नंबर, मोबाइल नंबर और विधानसभा क्षेत्र की जानकारी एकत्र करनी शुरू कर दी है. बताया जा रहा है कि इन स्टेशनों के बाहर पार्टी कार्यकर्ताओं ने अस्थायी काउंटर बना रखे हैं, जहां दिन-रात रौनक लगी रहती है.

टिकट, भोजन और संदेश — सब कुछ फ्री

पटना पहुंचने वाले मतदाताओं में यूपी, बिहार और झारखंड के अलावा हरियाणा, दिल्ली, जोगबनी और मध्यप्रदेश से भी लोग आ रहे हैं. इन ट्रेनों में यात्रा सिर्फ वोट तक सीमित नहीं है. यह एक राजनीतिक संदेश बन कर भी उभर रही है कि प्रवासी बिहारी अब अपनी मिट्टी के फैसले में सक्रिय भागीदारी निभाने को तैयार हैं.

राजनीतिक पार्टियों ने इसे ‘वोटिंग यात्रा’ का रूप दे दिया है. स्टेशनों पर कार्यकर्ता यात्रियों को भोजन और पानी दे रहे हैं, वहीं ट्रेन में हल्का नाश्ता और चाय की व्यवस्था भी की गई है. बताया जा रहा है कि इन सफरों के लिए नियमित ट्रेनों के अलावा विशेष ट्रेनों की व्यवस्था की गई है ताकि मजदूर सुरक्षित और समय पर अपने गंतव्य तक पहुंच सकें.
खास बात यह है कि यात्रियों में उत्साह के साथ-साथ इस बार राजनीतिक जागरूकता भी साफ दिख रही है. कई यात्री खुले तौर पर बताते नजर आए कि वे अपनी पार्टी के समर्थन में वोट डालने आए हैं. स्टेशन पर मौजूद कार्यकर्ता लगातार सभी से संपर्क बनाए हुए हैं और मतदाताओं को अपने क्षेत्र के बूथ की जानकारी तक दे रहे हैं.

रेलवे की चुप्पी और राजनीतिक बयानबाजी

रेलवे प्रशासन इस ‘विशेष व्यवस्था’ पर चुप है. किसी भी राज्य ने अब तक आधिकारिक तौर पर ‘फ्री ट्रेन सर्विस’ की घोषणा नहीं की, लेकिन मैदान में जो हो रहा है, वह किसी सार्वजनिक नीति से कम नहीं. विपक्ष इसे चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन बता रहा है, जबकि सत्ता पक्ष इसे ‘लोकतंत्र की भागीदारी’ कहकर बचाव कर रहा है.

“बिहार में चुनाव सिर्फ विचारों का नहीं, संसाधनों का भी मुकाबला बन चुका है. टिकट और ठिकाना अब रणनीति का हिस्सा हैं, सिद्धांत का नहीं” यह दृश्य लोकतंत्र की जड़ों में बसे उस भरोसे को भी परखता है, जो मतदाता की स्वतंत्रता पर टिका है. जब वोट डालने की प्रेरणा टिकट और भोजन से जुड़ जाए, तो सवाल उठना लाजमी है कि यह जनसहभागिता है या जनप्रबंधन?
बिहार की धरती पर लोकतंत्र हमेशा थोड़ी लोककथा भी रहा है—जहां हर चुनाव एक उत्सव है और हर मतदाता अपने गाँव लौटकर कहता है, “हम भी लोकतंत्र में हिस्सेदारी करने आये हैं.”

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