आम आदमी खुद को जुड़ा महसूस करे : अमोल पालेकर
70-80 का दशक ऐसा था जहां हीरो को अकेले बिना हथियार के तीस-तीस लोगों से लड़ते हुए दिखाया गया
अमोल पालेकर की आत्मकथा व्यूफाइंडर में मौजूद है छह दशकों का सांस्कृतिक आस्वाद
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ऐसी कहानियों को कहा जाए जिसमें आम आदमी खुद को जुड़ा महसूस करे, उक्त बातें अमोल पालेकर ने साहित्य अकादमी और संस्कृति मंत्रालय के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम उन्मेष के चौथे दिन शंकरदेव सभागार में अपनी आत्मकथा व्यूफाइंडर: छह दशकों का सांस्कृतिक आस्वाद विषय पर आशुतोष ठाकुर के प्रश्न का जवाब देते हुए कही. उन्होंने कहा कि 70-80 का दशक ऐसा था जहां हीरो को अकेले बिना हथियार के तीस-तीस लोगों से लड़ते हुए दिखाया गया. यह विश्वास करने योग्य बात नहीं है. जब मैंने सिनेमा बनाना शुरू किया तब इस बात का ख्याल रखा कि ऐसी कहानियों को कहा जाए जिसमें आम आदमी खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर पाए. लोगों ने सिर्फ ऐसी फिल्मों को पसंद ही नहीं किया उसकी सराहना भी खूब हुई. यह समांतर सिनेमा का उत्कर्ष था.
जब मैं फिल्में बना रहा था वो दौर बहुत कठिन था. जो जितना बड़ा सितारा था वो उतनी देर से आता था. मैंने हमेशा जिनके साथ भी काम किया उनके साथ बहुत ईमानदार रहा. मैं पहले ही निर्देशक को कह देता था कि मैं आठ घंटे ही काम करूंगा और समय से एक दिन भी आगे काम नहीं करूंगा क्योंकि मुझे नाटक की तैयारी के लिए जाना होता है. बंगाली रंगमंच से जुड़ाव पर उन्होंने कहा कि बादल सरकार, शंभू मित्र, बासु चटर्जी, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे लोगों से मेरा गहरा नाता रहा है. मैंने बंगाली रंगमंच के लिए बंगाली भाषा सीखी है और बंगाल रंगमंच के कई नाटकों का अनुवाद भी किया है. आगे उन्होंने कहा कि मैंने क्षेत्रीय सिनेमा में सीखने के उद्देश्य से बहुत काम किया है. मैंने बिहार की एक भाषा अंगिका की एक फिल्म में भी काम किया है और इस फिल्म की शूटिंग के दौरान मैं बिहार और बंगाल की सीमा पर देवघर में रहा. इस चर्चा में संध्या गोखले ने भी अपनी बात रखी.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है
