ज्यादातर पार्टियां संगठनात्मक रूप से कमजोर सामाजिक मुद्दों पर आंदोलन में विफल : कंचन

पटना : ज्यादातर पार्टियां संगठनात्मक रूप से कमजोर हैं. वे सामाजिक मुद्दों को लेकर आंदोलन चलाने में विफल रही हैं. होटल मौर्या में आयोजित लेक्चर में डेमोक्रेसी फॉर्म द मार्जिन्स विषय पर व्याख्यान देते हुए न्यूयार्क विवि की प्रोफेसर कंचन चंद्रा ने आगे कहा कि भारत में प्रजातंत्र कुछ ही लोगों तक सिमट कर रह […]

By Prabhat Khabar Print Desk | March 26, 2017 6:34 AM
पटना : ज्यादातर पार्टियां संगठनात्मक रूप से कमजोर हैं. वे सामाजिक मुद्दों को लेकर आंदोलन चलाने में विफल रही हैं. होटल मौर्या में आयोजित लेक्चर में डेमोक्रेसी फॉर्म द मार्जिन्स विषय पर व्याख्यान देते हुए न्यूयार्क विवि की प्रोफेसर कंचन चंद्रा ने आगे कहा कि भारत में प्रजातंत्र कुछ ही लोगों तक सिमट कर रह गया है और एक बड़ा तबका हाशिये पर है. नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में अगड़ों की आबादी 22 फीसदी है, लेकिन वर्तमान संसद में उनका प्रतिनिधित्व 43 फीसदी है. देश में 14 ऐसे राजनीतिक दल हैं, जो अगड़ों के प्रभुत्व में संचालित हो रहे हैं. 456 लोकसभा की सीट पर अगड़े निर्णायक भूमिका में हैं.

वर्तमान लोकसभा में चुन कर आये 70 फीसदी पिछड़े, 83 फीसदी अनूसूचित जाति, 92 फीसदी अनूसूचित जनजाति और 50 फीसदी मुसलिम सांसद अगड़ों के प्रभुत्ववाली सीटों से चुन कर आये हैं. अब तक हुए 17 प्रधानमंत्रियों में से 14 अगड़ी जातियों से रहे हैं. वर्तमान में 29 में से 15 राज्यों के मुख्यमंत्री अगड़ी जाति के हैं. पिछड़े और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व करनेवाली बसपा और सपा जैसी कई पार्टियों में भी सेकेंड लाइन लीडरशिप अगड़ों का है और नेतृत्व कर रहे लोगों ने अपनी जाति के लोगों को आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं किया है. 1951 के बाद से देश के विभिन्न राज्यों में अगड़े विधायकों की संख्या में गिरावट आयी है. द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता की.

कोच्चि, जहां हिंदू और मुसलिम एक अच्छे पड़ोसी : आशीष नंदी
अगले सत्र में अनदर कॉस्मो पॉलिटैनिज्म लिविंग विद रेडिकल डायवर्सिटी एंड बीईंग वन सेल्फ विषय पर प्रकाश डालते हुए सीएसडीएस(सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज), दिल्ली के मानद फेलो आशीष नंदी ने अपने व्याख्ययान में कहा कि कोच्चि को इस संबंध में आदर्श माना जा सकता है, जहां मुसलमान और यहूदी दोनों एक साथ अच्छे पड़ोसी के रूप में रहते हैं. इसकी तारीफ करते हुए एक बार इजरायल के राष्ट्रपति ने भी अपने देशवासियों से कहा कि मुसलमानों के साथ कैसे मिल कर रहा जाता है, यह वे भारत के यहूदियों से सीखें. अपने व्याख्यान में नंदी ने हिंदू और मुसलमानों के बीच के आपसी प्रेम के भी कई दृष्टांत दिये. उन्होंने जोर देते हुए कहा कि विभाजन के दौरान बचनेवाले लोगों में 40 फीसदी ऐसे थे, जिन्हें विरोधी संप्रदाय के लोगों ने ही बचाया था. आज जब किसी ऐसे शरणार्थी से उसके अच्छे दिनों के बारे में पूछते हैं, तो हिंदू होने के बावजूद वह पाकिस्तान के गृह नगर या गांव और मुसलमान होने के बावजूद भारत के गृह नगर या गांव में बिताये गये बचपन और जवानी के दिनों की ही बात ही करता है. धर्म और राष्ट्रीयता की दीवार ऐसे जगहों पर बिल्कुल टूट जाती है. जेएनयू के पूर्व प्राध्यापक दीपंकर गुप्ता ने व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता की.
डायनपन की पूरी धारणा मिथ्या व भ्रम : शशांक एस सिन्हा
द आइडिया ऑफ विच इन कोलोनियल एंड पोस्ट कोलोनियल छोटानागपुर एंड संथाल परगना विषय पर व्याख्यान के दौरान रूटलेज के संपादक शशांक एस सिन्हा ने डायन प्रथा के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला. इसके उत्पत्ति को संपत्ति संबंधी विवाद से जोड़ते हुए शशांक ने कहा कि कई मामलों में विधवा और संतानहीन महिलाओं पर इसलिए डायनपन का आरोप लगाया जाता है. क्योंकि, इसी के बहाने लोगों को उन्हें संपत्ति के उत्तराधिकार से वंचित करने और उनके खिलाफ सामूहिक हिंसा करने का मौका मिल जाता है. डायनपन की पूरी धारणा मिथ्या बातों व भ्रम पर आधारित है. यह माना जाता है कि वे अपने बालों के सहारे काला जादू करती है. अपने जादू से लोगों को बीमार कर सकती है और उनके शरीर के महत्वपूर्ण अंगों यथा हृदय, जिगर आदि को भी खा सकती है. झारखंड के छोटानागपुर और संथाल परगना में अंगरेजी शासनकाल और उससे पहले भी यह प्रथा दिखती है, जो आज भी खत्म नहीं हुई है. पहले दो व्यक्तियों के बीच डायनपन को लेकर विवाद होता था और उनमें से एक पक्ष दूसरे पर इस प्रकार के आरोप लगाता था. लेकिन अब यह सामूहिक होने लगा है, जिसमें पूरे गांव के लोग एक पक्ष बन जाते हैं. इसमें नग्न घुमाना और शरीर को शुद्ध करने के नाम पर विष्टा पिलाने जैसी घटनाएं भी अक्सर घटती रहती है, व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता नालंदा विवि के पूर्व कुलपति गोपा सब्बरवाल ने की.
हरिजन शब्द को पसंद नहीं करते थे जगजीवन राम : निकोलस जाउल
जगजीवन राम एंड दलित स्ट्रगल आफ्टर इंडिपेन्डेंस : ए व्यू फ्रॉम उत्तरप्रदेश विषय पर व्याख्यान के दौरान सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज, फ्रांस के अनुसंधानकर्ता निकोलस जाउल ने जगजीवन राम के जीवन और विचारों से जुड़े कई रोचक पहलुओं पर प्रकाश डाला. जगजीवन राम हरिजन शब्द को पसंद नहीं करते थे. वे हिंदू समाज से अनुसूचित जाति को अलग मानने के पक्षधर नहीं थे बल्कि सह अस्तित्व के पक्षधर थे. कोलकाता में रविदास महासभा की स्थापना से उन्होंने 1930 में अपने राजनैतिक जीवन की यात्रा शुरू की. कभी उन्हें आंबेडकर का अनुयायी कहा गया, तो कभी उनसे अलग राह बनानेवाला. लेकिन जरूरत पड़ने पर कभी भी निर्णय लेने में देरी नहीं की. कांग्रेस डेमोक्रेटिक फ्रंट की स्थापना और बाद में मजदूर जनता पार्टी में शामिल होने तक यह यात्रा जारी रही. देश के रक्षा मंत्री के साथ-साथ 1977 में उन्हें उप प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला.
हालांकि यह पद लंबे समय तक नहीं रहा, इसलिए वे बड़ी उपलब्धियां हासिल नहीं कर पायें. व्याख्यान सत्र की अध्यक्षता समाजशास्त्री हेतुकर झा ने की.

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