Madhubani : राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के यादों तक सिमटकर रह गया खादी ग्राम उद्योग और चरखा
दशकों पहले देश के झंडे की शान बढ़ा चुके और मिथिलांचल के घर-घर में चलने वाला चरखा इन दिनों वजूद खोने के कगार पर पहुंच चुका है.
बेनीपट्टी . दशकों पहले देश के झंडे की शान बढ़ा चुके और मिथिलांचल के घर-घर में चलने वाला चरखा इन दिनों वजूद खोने के कगार पर पहुंच चुका है. एक जमाना था जब अनुमंडल क्षेत्र के घर-घर में मौजूद रहने वाला चरखा और मधुबनी जिले को ग्रामोद्योग के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर भी खास पहचान दिलाने वाला खादी भंडार का आज इस हाइटेक युग में अस्तित्व मिटने के कगार पर पहुंच चुका है. जबकि यह कभी इस क्षेत्र में बेरोजगार, असहायों, नि:शक्तजनों व महिला-पुरूष के लिये रोजी-रोटी का प्रमुख माध्यम हुआ करता था. खासकर मध्यम वर्ग की अधिकांश महिलाएं चरखे से सूत बनाकर पैसा का उपार्जन कर परिवार को सबल करतीं थीं. जहां बनाये गये सूत का ग्रेडिंग तय कर इस संस्थान द्वारा पारिश्रमिक दिया जाता था. फिर इस सूत से इसी संस्थान के हस्तकर्घा, बुनाई, धोवाई, रंगाई, छपाई, सिलाई का काम होता था और इसी सूत से धोती, कुर्ता, चादर, बंडी दोपट्टा, कोट, टोपी, झोला, बोरे आदि बनते थे. प्रत्यक्ष रूप से औसतन 10 से 12 लोगों व अप्रत्यक्ष रूप से जिले के हजारों लोगों का रोजगार का साधन था. गर्म-ठंड दोनों ऋतुओं में अनुकूल होने के कारण इससे उत्पादित वस्त्र की खपत मिथिला के अलावे देश विदेश स्तर पर भी था. रोजगार और महिला सशक्तिकरण व स्वालंबन के ख्याल से यह उद्योग काफी महत्त्वपूर्ण था. औसतन 5-7 घंटे चरखे चलाने वाली महिलाएं 80 के दशक में 1500 रुपये तक की आय कर लेतीं थीं. बाद में खादी भंडार को वृहत् किये जाने के क्रम में साबुन उद्योग, सरसों तेल पेड़ने का मशीन, मधुमक्खी पालन, शुद्ध मधु की खरीद बिक्री जैसी योजनाओं को भी जोड़कर बढ़ावा दिया जाने लगा. स्थानीय स्तर पर बनाए जाने वाला चरखा और उत्पादों को खादी भंडार के जरिये विदेशों में भी निर्यात किया जाता था. अनुमंडल के सभी प्रखंडों के विभिन्न गांवों में खादी भंडार का केंद्र था. खासकर बेनीपट्टी प्रखंड के बेनीपट्टी, बसैठ-रानीपुर, धकजरी, चतरा आदि कई स्थानों पर खादी भंडार थे, जिनमें से आज सभी अपना वजूद खोते नजर आ रहे हैं. बता दें कि कई दशकों से इसकी घोर उपेक्षा के कारण इन दिनों ऐसे मशीन बंद पड़े हैं और कई खादी भंडार भवन भी जीर्ण शीर्ण अवस्था में भूतबंगला में तब्दील होकर अब जुआरियों और अवारा पशुओं का स्थायी बसेरा बन चुका है. कई जगह पर आज भी खंडहर भवन हैं तो कई जगहों पर भवन की एक-एक ईंट गायब कर भू माफिया द्वारा जमीन बेच दी गयी है या फिर बेची जा रही है. कई लोगों ने कहा कि खादी भंडार का जीर्णोध्दार के दिशा में कोई सकारात्मक पहल नही हो रहा है. सरकार के द्वारा खादी भंडार की भूमि सहित भवनों को संरक्षित कर मृतप्रायः हो चुके खादी ग्रामोद्योग संस्थानों को आधुनिक तरीके से विकसित करने की जरुरत है, ताकि मिथिला के लोग पुनः खादी वस्त्र को दैनिक जीवन में अपनाकर इसे सशक्त कर सके.
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